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बीएसपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को फिर से पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है. लेकिन बड़ी खबर यह रही कि मायावती ने भतीजे को नेशनल कोऑर्डिनेटर भी बना दिया. जब पार्टी 2019 के चुनावों में औंधे मुंह गिरी हो और मुकाबला सीधे बीजेपी जैसी परिवारवाद पर बेहद आक्रामक पार्टी से हो, तब बीएसपी का यह फैसला बेहद चौंकाने वाला है.
साल 2016 में मायावती ने कहा था कि ‘‘मैं किसी भी कीमत पर परिवारवाद को बढ़ावा देने वाली नहीं हूं’’.
एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने मीडिया पर आरोप लगाते हुए कहा था - ‘आकाश का नाम जबरदस्ती उछाला जा रहा है.’ लेकिन अब उनके सुर बदल चुके हैं. अब मायावती कहती हैं कि वो खुद आकाश को पार्टी में शामिल कर सीखने का मौका देंगी.
तो ऐसी क्या बात हो गई कि विदेश से पढ़कर आए राजनीति में अनुभवहीन अपने भतीजे को नेशनल को ऑर्डिनेटर जैसा बड़ा पद दे दिया है?
साल 1984 में जब कांशीराम ने बीएसपी की स्थापना की थी तो उन्होंने इसे राजनीतिक पार्टी नहीं, एक आंदोलन का नाम दिया था. एक ऐसा आंदोलन जो आजाद भारत में दलितों की सबसे बड़ी आवाज बनेगा और वक्त के साथ बना भी.
कांशीराम ने बीएसपी को अपने हाथों से संवारकर तैयार किया. वो बीएसपी का प्रचार साइकिलों पर और बसों में घूम-घूमकर और दलितों की बस्तियों में रातें गुजारकर करते थे. इन बस्तियों में रहना, एक-एक जन से मिलना, उसे अपने मूवमेंट के बारे में सचेत करना. सबको इकट्ठा करना. ऐसे खड़ा किया था बीएसपी को कांशीराम ने.
खुद कांशीराम पार्टी में परिवारवाद के खिलाफ थे. कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. गौर करने वाली बात ये है कि जब कांशीराम ने मायावती को पार्टी की कमान सौंपी थी, उस वक्त भी मूवमेंट के कई नेता उनके फैसले पर सवाल उठा रहे थे. कांशीराम अपने फैसले पर अडिग रहे. उनका कहना था कि मायावती में उनको वो नेता दिखता है जो कैडर को इकट्ठा रख सके, बात मनवाकर काम करवा सके और वो मूवमेंट को आगे ले जाने में सक्षम हैं.
बीएसपी में जब तक कांशीराम एक्टिव रहे, तब तक पार्टी की ग्रोथ होती रही. पार्टी पंजाब, यूपी, बिहार, एमपी, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान और भारत के कई हिस्सों तक फैल गई. लेकिन जब मायावती के हाथ में कमान आई तो पार्टी यूपी पर फोकस हो गई. फोकस आंदोलन से हटकर चुनाव जीतने और सरकार बनाने पर हो गया.
अब सीधे आते हैं साल 2016 में, बीएसपी अब तक 2 बड़े चुनाव हार चुकी थी. पहला 2012 का विधानसभा चुनाव, दूसरा 2014 का लोकसभा चुनाव. 2012 में राज्य की सत्ता से बाहर हुई, फिर 2014 में लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई.
पार्टी को 2017 विधानसभा चुनावों से पहले बड़े झटके लगे. विधानसभा चुनावों के ठीक पहले बीएसपी के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ दी. जाते-जाते मौर्य ने मायावती और पार्टी पर बड़े-बड़े लांछन लगाए. ऐसा लगा जैसे कई दिनों का दबा हुआ लावा बाहर आ गया.
मायावती ने भी पलटवार करते हुए कहा कि स्वामी प्रसाद अपने बच्चों के लिए टिकट मांग रहे थे. मौर्य ने परिवार के लिए तीन टिकटें मांगी. मायावती ने आगे कहा कि वे परिवारवाद को बढ़ावा नहीं देना चाहतीं.
लेकिन आज क्या हो रहा है? क्या अपने भतीजे को सीधी पैराशूट एंट्री करवा कर परिवारवाद का उदाहरण नहीं दे रहीं मायावती?
बीएसपी के एक और बड़े नेता पार्टी से अलग हुए. अलग क्या हुए पार्टी विरोधी काम करने के चलते निकाल दिए गए. नसीमुद्दीन सिद्दीकी. मायावती के सबसे खास रहे नसीमुद्दीन.
निकाले जाने के बाद सिद्दीकी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताओं के नाम गिनाते हुए कहा कि मायावती की वजह से हजारों लोग जो मूवमेंट से जुड़े, वे बीएसपी छोड़ गए या निकाल दिए गए.
ये तो वक्त बताएगा कि बीएसपी का यह नया नेतृत्व ‘‘बहुजन मूवमेंट’’ को किस दिशा में ले जाता है. क्या वो कांशीराम की राह पर चलेगा या उसी मूवमेंट को नए हिसाब से चलाने की कोशिश करेगा.
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