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व्यक्तित्व, साहस ,प्रतिबद्धता, करुणा. 'फ्लाइंग सिख' मिल्खा सिंह शायद ही कभी ठहरे हों, लेकिन अगर उनकी विरासत को आधार देने के लिए चार स्तंभों की जरूरत होगी तो यह चार खूबियां उससे न्याय कर सकेंगी. भारत में आजादी के बाद के नायकों के बीच मिल्खा सिंह के व्यक्तित्व की इमारत अजेय शिखर के रूप में ऊंची खड़ी मिलेगी.
मिल्खा ने भारत की भावना को मूर्त रूप दिया और अपनी शारीरिक क्षमता के बल पर इसे ऊंचाइयों तक पहुंचाकर उसमें विश्वास की परवरिश की. इस महान व्यक्ति की विरासत स्पोर्ट्स के बाहर तक विस्तृत है. ब्रिटिश युग के खंडहर से फिर से खड़े होते भारत को बनाने में मिल्खा सिंह जितना उत्कृष्ट योगदान बहुत कम लोगों का होगा.
इस बेसहारा नौजवान की क्षमता को अनुभव करने के लिए राष्ट्र को पूरे एक दशक का इंतजार करना पड़ा. वह आगे इस युद्ध में उलझे राष्ट्र को अपनी उल्लेखनीय गति से खुश होने के कई मौका देने वाला था. उसने गौरव के साथ लंबे-लंबे कदम नापे. मिल्खा ने दुर्लभ ईमानदारी से बात की.
उस समय आर्मी इस नवयुवक के लिए एकदम सही जगह थी, जो उन अशांत दिनों के दौरान उन्मादी भीड़ के कारण अचानक अनाथ हो गया था. आर्मी ने उसे खुद के जीवन से बड़ी पहचान और जीने की वजह दी. मैच्योर वॉरियर्स की संगति ने उसके अंदर मौजूद आग को महत्वाकांक्षा में बदलने का काम किया. उसकी आत्मा को भड़काने वाला उग्र क्रोध समय के साथ कम हो गया. आर्मी का जीवन इसके लिए एकदम सही आउटलेट की तरह था.
विडंबना यह है कि मिल्खा को हम रोम ओलंपिक से जानते हैं. 45.73 सेकेंड, नेशनल रिकॉर्ड. नया-नया आजाद हुआ राष्ट्र भारत अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही मिल्खा के पंखों पर सवार होकर उम्मीद के साथ रोमांस करना सीख गया था. लेकिन यह रोम के हार की निराशा और टूटते दिलों की कहानी रही. यह एक ऐसी स्मृति है जिसे मिल्खा के साथ देश भी बार-बार याद करता है.
रोम के अलावा मिल्खा सिंह अपने हर रेस में जीते. उन्होंने 1958 और 1962 के दो एशियन गेम्स में 4 गोल्ड मेडल जीता लेकिन कार्डिफ में कॉमनवेल्थ के दौरान जीत उनके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती थी. क्योंकि यह जीत अंतरराष्ट्रीय जॉइंट एथलीटों के ऊपर थी. इन जीतों मे मिल्खा सिंह की सफलता के कारण उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया. शायद यह इस अवार्ड के लिए भी उतने ही सम्मान की बात थी जितना मिल्खा सिंह के लिए.
1995 में मिल्खा सिंह श्रीलंका में दौड़ने गये. यहीं पर उनकी मुलाकात भारतीय वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर से हुई. 7 साल बाद उन दोनों की शादी हो गई.उनकी तीन बेटियां और एक बेटा जीव मिल्खा सिंह था. बेटियों में से एक सोनिया सांवल्का ने मिल्खा सिंह की विस्तृत आत्मकथा 'द रेस ऑफ माय लाइफ' (2013) लिखने में मदद की. यह कहानी बाद में एक बहुचर्चित फिल्म के रूप में भी सामने आई, जिसको निभाने के लिए फरहान अख्तर ने खूब मेहनत की.
जीव मिल्खा एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय गोल्फ खिलाड़ी हैं. उनके पास यूरोपीय, जापान और एशियन टूर पर जीते गए 13 खिताब हैं. इसके अलावा 2008 PGA चैंपियनशिप में T9 भी है ,जो गोल्फ के चार मेजर्स में से एक है. उन्हें 1999 में अर्जुन पुरस्कार और 2007 में पद्मश्री से नवाजा जा चुका है.
2003 में स्थापित मिल्खा सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट उन युवा एथलीटों की मदद कर रहा है जिनके पास खेल के संसाधन उपलब्ध नहीं हैं. अपनी आत्मकथा के राइट्स को तो मिल्खा सिंह ने फिल्म निर्माता को ₹1 में बेचा लेकिन साथ ही यह सुनिश्चित किया कि फिल्म से हुई प्रॉफिट का एक हिस्सा फाउंडेशन के लिए भी जाये.
पिछले दो दशकों में उम्र दराज होने के बावजूद सक्रिय रहने से उन्होंने बहुत गर्व महसूस किया. मिल्खा सिंह ने भारतीय एथलीटों के साथ यात्रा करना और उनको प्रोत्साहित करना जारी रखा. वह गोल्फ कोर्स पर भी लगातार मौजूद रहे और अपने बेटे को दुनिया भर में यादगार गोल्फ खेलते देखने के लिए साथ-साथ घूमते रहे.
(आनंद डाटला एक स्पोर्ट्सराइटर और सोशल वर्कर हैं. उन्हें दुनियाभर से साहस और दर्द की कहानियों को बयां करने का दो दशकों से ज्यादा का अनुभव है. आनंद क्रिकेट, बैडमिंटन, गोल्फ और टेनिस के कई इंटरनेशनल स्पोर्टिंग इवेंट्स की रिपोर्टिंग कर चुके हैं.)
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Published: 19 Jun 2021,08:56 AM IST