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जम्मू-कश्मीर में 1990 में शुरू हुई बगावत के बाद से सुरक्षाबलों ने जितने भी गंभीर हमलों का सामना किया है, उनमें पुलवामा में हुआ आत्मघाती हमला सबसे गंभीर है, जिसमें 40 जवान मारे जाने की रिपोर्ट है.
2001 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा भवन पर हुए हमले से इसकी तुलना की जा रही है, जिसमें 38 लोग मारे गये थे. ऐसा लगता है कि दोनों घटनाओं में हमले का तरीका एक जैसा है- विस्फोटकों के साथ एसयूवी में सवार होकर लक्ष्य पर आत्मघाती हमला करने जैसा.
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परिस्थिति से निबटने के लिए मोदी सरकार के पास दो विकल्प हैं. इनमें से एक 2016 की तरह पाक अधिकृत कश्मीर में एक और हमला हो सकता है, जिसे 29 सितम्बर 2016 के कथित सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में जाना जाता है. या फिर यह किसी हद तक निरर्थक हो चली कूटनीति की राह भी हो सकती है.
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ भारत इस मुद्दे को साझा कर सकता है, जिन्होंने अगस्त 2017 में पाकिस्तान की इस बात के लिए आलोचना की थी कि अफगानिस्तान में आतंकियों के मददगारों और आतंकी समूहों के लिए वह सुरक्षित पनाहगार रहा है. उसके बाद ही अमेरिका ने इस्लामाबाद को सैन्य मदद में कटौती की थी.
लेकिन अब अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने की उत्सुकता को देखते हुए पाकिस्तान के प्रति वाशिंगटन का रवैया बदल गया है. पाकिस्तान उस प्रक्रिया में ‘जिम्मेदार’ भूमिका निभाने को तैयार है.
तो हमारे पास बच जाता है चीन. बरसों से चीन ने नई दिल्ली के उन प्रयासों पर रोक लगा रखी है, जिसमें जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख अजहर मसूद को आतंकवादी के रूप में यूएन के 1267 कमेटी में शामिल करने की कोशिश की जाती रही है. यहां तक कि वुहान में अप्रैल 2018 में जब मोदी-शी शिखर सम्मेलन हुए थे और भारत-चीन के बीच रिश्ते में गतिरोध थमा था, तब भी अजहर के नाम पर बीजिंग का चीन की ओर से अड़ंगा कम नहीं हुआ था.
इस तरह उनके 'सभी पक्ष' कहने का मतलब था भारत और पाकिस्तान. उस घटना का नतीजा ये हुआ कि दूर से ही इस्लामाबाद जैश को जम्मू और कश्मीर में छद्म युद्ध के लिए तैयार कर रहा है. इसी वजह से पठानकोट, उरी, नागरोटा, संजुवान कैम्प और अब पुलवामा जैसी घटनाएं लगातारी होती रही हैं.
चीनी मंत्री ने 'ठोस तथ्य और प्रमाण' मांगे और घोषणा की कि इस्लामाबाद ‘स्थायी साक्ष्य’ पर ‘पीछे नहीं हटेगा’. उन्होंने यहां तक कहा कि चीन हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ है और हमेशा पाकिस्तान को आतंकियों के विरुद्ध संघर्ष के लिए उत्साहित करता रहा है.
चीन ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में अलकायदा से लड़ाई की भारी कीमत पाकिस्तान ने चुकाई है. वुहान बैठक के बाद चीन-भारत संबंध नये सिरे से परवान चढ़ा, लेकिन इसका अजहर मुद्दे पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा.
भारत ने बीआर पहल और सीपेक की आलोचना का रुख नरम किया और इस बात की भी प्रतिबद्धता दिखलायी कि वह तिब्बत कार्ड का इस्तेमाल नहीं करेगा. अब भी किसी हद तक अजहर का मुद्दा बातचीत के स्तर पर बना हुआ है. चीन को प्रभावित करने की भारतीय क्षमता की सीमा का इससे पता चलता है.
इस तरह मोदी सरकार अपनी ताकतवर रणनीति सर्जिकल स्ट्राइक मोड पर लौटने को मजबूर हो सकती है. ऐसा कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल. सीमा पार हमले करना बहुत कठिन काम होता है. यह बॉलीवुड की रिक्रिएशन से ज्यादा मुश्किल भरा काम है.
सर्जिकल स्ट्राइक को सावधानीपूर्वक अंजाम दिया गया और वे आतंकियों को मारने में सफल हुए थे. नियंत्रण रेखा के आसपास आतंकियों को खड़ा करने में वे सफल रहे. पाकिस्तान खुद यह समझने में सक्षम हुआ कि हमले बिल्कुल नहीं होने चाहिए.
इस बार सरकार क्या किसी फॉर्मूले को लेकर सामने आएगी और क्या वह फॉर्मूला काम करेगा?
(मनोज जोशी नयी दिल्ली में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन के विशिष्ट फेलो हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
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Published: 15 Feb 2019,12:40 PM IST