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गुरु तेग बहादुर जयंती पर पीएम मोदी ने एक बार फिर खेला 'औरंगजेब' कार्ड

पीएम मोदी ने औरंगजेब की जिस 'मजहबी कट्‌टरता की आंधी' का जिक्र किया वो 'न्यू इंडिया' में भी मौजूद है

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>पीएम नरेंद्र मोदी 21 अप्रैल को गुरु तेग बहादुर की 400वीं जयंती पर </p></div>
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पीएम नरेंद्र मोदी 21 अप्रैल को गुरु तेग बहादुर की 400वीं जयंती पर

फोटो : ट्विटर / @narendramodi

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गुरु तेग बहादुर के 400वीं जयंती के तहत सालभर आयोजित होने वाले कार्यक्रम की कड़ी में 21 अप्रैल को लाल किले में आयोजित किए गए समारोह में पीएम नरेंद्र मोदी ने हिस्सा लिया. इस समारोह को लाइव देखने के लिए लिए मैंने देर शाम संदेह के साथ टीवी को ट्यून किया. शुरुआत में शबद कीर्तन और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खत्म न होने वाले गुणगान ने उनके भाषण को तय समय से काफी आगे बढ़ा दिया.

मोदी के संबोधन से पहले सरकार द्वारा इस बात का व्यापक प्रचार किया गया था कि उनका भाषण सांप्रदायिक शांति का जोरदार तरीके से समर्थन करेगा. इसको ध्यान में रखते हुए मोदी के भाषण के टोन और तेवर के बारे में संदेह था. इस समारोह का आयोजन संस्कृति मंत्रालय द्वारा किया गया था और आयोजकों द्वारा जो दावे किए गए थे उससे संदेह पैदा हो रहा था. इस बात पर विश्वास करना कठिन था कि प्रधान मंत्री पहली बार एक राजनेता की तरह घरेलू दर्शकों से बात करेंगे और ऐसे शब्दों का चयन करेंगे जो दिल्ली और देश के कई हिस्सों में फैली सांप्रदायिक आग को बुझाने का काम करेंगे.

एक साल तक चलने वाले नौवें सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर की 400 वीं जयंती समारोह के समापन के लिए लाल किले को आयोजन स्थल के तौर पर चुनने के पीछे सरकार द्वारा जो कारण बताए गए उससे भी गलतफहमी पैदा हुई.

मंत्रालय के अधिकारियों ने मीडियाकर्मियों को बताया कि लाल किले को दो कारणों से आयोजन स्थल के रूप में चुना गया. “पहला, यह वह स्थान है जहां से मुगल शासक औरंगजेब ने 1675 में गुरु तेग बहादुर को फांसी पर चढ़ाने का फरमान दिया था. दूसरा, लाल किले की प्राचीर वह जगह है जहां से प्रधान मंत्री स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हैं. इस वजह से अंतरधार्मिक शांति संदेश को जनता तक पहुंचने के लिए लाल किला एक आदर्श स्थान है."

'क्रिया-प्रतिक्रिया' और समारोह के लिए लाल किले को चुनने की विडंबना

दिल्ली में हालिया सांप्रदायिक तनाव और "क्रिया और प्रतिक्रिया" के क्रम की पृष्ठभूमि को देखते हुए. विभिन्न धर्माें तक पहुंच बनाने के उद्देश्य तय किए गए किसी कार्यक्रम के लिए लाल किले को आयोजन स्थल के तौर पर चुनना उपयुक्त नहीं था. गौरतलब है कि मोदी ने 2002 में गुजरात दंगों के दौरान एक टीवी इंटरव्यू के दौरान घृणा फैलाने वाले ढंग से 'क्रिया और प्रतिक्रिया' की बात कही थी जो काफी लंबे समय तक चली.

यह तय करके कि गुरु तेग बहादुर समारोह का स्थान वही होगा जहां से गुरु तेग बहादुर को फांसी देने का फरमान सुनाया गया था, मोदी ने औरंगजेब और उसके कार्यों की सार्वजनिक स्मृति को कुरेदने की अपनी मंशा स्पष्ट कर दी.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सबसे बदनाम मुस्लिम शासकों की सूची में ये मुगल शासक सबसे ऊपर हैं. भले ही अयोध्या में राम मंदिर पर काम जारी है, पार्टी की 'टू-डू' सूची में वाराणसी और मथुरा के विवादित मंदिर सबसे ऊपर हैं.

मोदी द्वारा दिसंबर 2021 में काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर का उद्घाटन करने के बाद संघ परिवार के कार्यकर्ताओं ने अपने पुराने नारे को फिर से दोहराया. "कॉरिडोर तो बस झांकी है, असली मंदिर अभी बाकी है."

अंतत: मोदी ने आयोजन स्थल का और औरंगजेब को नीचा दिखाने के लिए मिले मौके का पूरा 'इस्तेमाल' किया. यह याद रखने योग्य वाली बात है कि आज के दौर के मुसलमानों को अक्सर बाबर और औरंगजेब की "औलाद", या वंशज के रूप में संदर्भित किया जाता है, बाबर और औरंगजेब, ये दोनों सबसे 'घृणा' या 'तिरस्कारपूर्ण' वाले मुगल सम्राट हैं.

अपने संबोधन के दौरान मोदी ने औरंगजेब की 'आततायी' सोच की याद दिलाते हुए कहा कि उस समय औरंगजेब की आततायी सोच के सामने गुरु तेग बहादुर "हिंद की चादर" (भारत की रक्षा ढाल) एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे.

उन्होंने आगे कहा कि 'इतिहास गवाह है, ये वर्तमान समय गवाह है और ये लाल किला भी गवाह है कि औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिरों को धड़ से अलग कर दिया, लेकिन वो हमारी आस्था व विश्वास को कभी डिगा नहीं सके.'

मोदी का 'न्यू इंडिया'

गुरु तेग बहादुर का संदर्भ देते हुए मोदी ने आगे कहा कि 'गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने भारत की अनेकों पीढ़ियों को अपनी संस्कृति और आस्था की मर्यादा की रक्षा के लिए, उसके मान-सम्मान के लिए जीने और मर-मिट जाने की प्रेरणा दी है.' उन्होंने यह भी कहा कि बड़ी-बड़ी सत्ताएं मिट गईं, बड़े-बड़े तूफान शांत हो गए, लेकिन "भारत आज भी अमर खड़ा है", भारत आगे बढ़ रहा है.

और गुरु के अंतिम उल्लेख के रुप में मोदी ने गुरु तेग बहादुर को वर्तमान में अपने चर्चित शब्द "न्यू इंडिया" से जोड़ते हुए कहा कि 'गुरु तेगबहादुर जी का आशीर्वाद हम ‘नए भारत’ (न्यू इंडिया) के आभा-मण्डल में हर ओर महसूस कर सकते हैं.'

मोदी ने गुरु तेग बहादुर के लिए अलंकारिक या अतिशयोक्तिपूर्ण संदर्भ दिए और मुगल शासक को निशाने पर लिया, जिसे समकालीन मुसलमानों, विशेष तौर पर मुखर वर्ग जो अपने संवैधानिक अधिकारों की मांग करने से नहीं कतराते उन पर हमले करने के लिए एक प्रॉक्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया. हालांकि, हर बार जब वह गुरु का आह्वान करते हैं, तो यह उनके और उनके शासन पर विपरीत असर करने की क्षमता रखता है. आखिरकार, 2014 से ही मोदी ने औरंगजेब के निरंकुश और मनमानी लक्षणों का फायदा उठाया है.

सिवाय उन लोगों के जो अपना इतिहास केवल मोदी और संघ परिवार में उनके जैसे लोगों से सीखते हैं, अधिकांश लोग जानते हैं कि गुरु तेग बहादुर ने धार्मिक स्वतंत्रता के लिए खुद को बलिदान कर दिया था.

गौरतलब है कि सिख धर्म की सर्वोच्च सीट अकाल तख्त ने एक बयान जारी कर मोदी की आलोचना की थी. दमदार शब्दों के साथ दिए गए अपने बयान में जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने लोगों को याद दिलाया कि गुरु तेग बहादुर ने सिर्फ हिंदुओं की नहीं बल्कि सभी धर्मों की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी.

भारतीय जानते हैं कि मोदी राज में भारत अन्य देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा हर साल संकलित किए जाने वाले धार्मिक स्वतंत्रता सूचकांकों में लगातार फिसल रहा है.

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रामनवमी के संघर्ष की यादें अभी ताजा हैं

मोदी ने औरंगजेब के शासनकाल के दौर की जिस 'मजहबी कट्टरता की आंधी' का संदर्भ प्रस्तुत किया था उस 'धार्मिक कट्‌टरता की आंधी' 2014 के बाद से 'न्यू इंडिया' में भी व्याप्त है. बीजेपी की सोशल मीडिया ब्रिगेड और गली के लड़ाके भले ही धार्मिक स्वतंत्रता सूचकांकों के संकलनकर्ता और समाज के असंतुष्ट नागरिकों की आवाज दबा सकते हैं लेकिन सच्चाई और तथ्यों को दूर नहीं जाया जा सकता है.

नवरात्रि, रामनवमी और हनुमान जयंती के बाद पूरे भारत में देखे गए सांप्रदायिक संघर्ष की यादें अभी तक धुंधली नहीं पड़ी हैं. लेकिन विडंबना यह है कि मोदी को हालिया घटनाएं नहीं दिखीं वे इतिहास में अटके रहे और जनता को सदियों पहले की घटना की याद दिलाते रहे, जब गुंडे सड़कों पर घूमते थे और असहाय लोगों पर हिंसा और अत्याचार करते थे.

एक ऐसे नेता के लिए जो हर चीज (लोग, संस्कृति, भाषा, खान-पान की पसंद, परिधान, धार्मिक अभिव्यक्ति का तरीका, रीति-रिवाज और भी बहुत कुछ के बारे में) में एकता पर जोर देता है, गुरु के आचरण को याद दिलाने से मोदी वक्त बदलने पर खुद भी सवालों के घेरे में रहेंगे.

अपने संबोधन के दौरान गुरु के 'बलिदान' की स्तुति करते हुए मोदी ने 'भारत की अनेकों पीढ़ियों को अपनी संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए, उसके मान-सम्मान के लिए जीने और मर-मिट जाने के लिए प्रेरित किया है' लेकिन विडंबना यह है कि मोदी द्वारा हर तरह के असंतोष को 'गद्दारी' या 'देशद्रोह' के रूप में लगातार लेबल किया गया है.

एक भाषण जो भुला दिया जाएगा

चूंकि गुरु तेग बहादुर न केवल "सेल्फ-रियलाइजेशन के मार्गदर्शक" थे, बल्कि ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने "भारत की विविधता और एकता को मूर्त रूप दिया" ऐसे में जिस तरीके मोदी ने उनकी प्रशंसा की वह पूरी तरह से भ्रामक थी. राजनीतिक बयानबाजी के प्रति मोदी की भूख और अपने वैचारिक विरोधियों के खिलाफ राजनीतिक अंक हासिल करने के लिए अटूट दृढ़ संकल्प ने उन्हें यह कहने के लिए प्रेरित किया कि उनकी सरकार अफगानिस्तान में सिख संघर्ष को हल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है.

उन्होंने अपने संबोधन में यह भी कहा कि उनकी सरकार "पूरे सम्मान के साथ" गुरु ग्रंथ साहिब के "पवित्र 'स्वरूप' को भारत में लायी."

जहां ओर मोदी ने यह उल्लेख भी किया कि उनकी सरकार द्वारा नई पहल करते हुए गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के 'प्रकाश पर्व' मनाए गए. वहीं दूसरी ओर अकाल तख्त के पुजारी ने जवाब देते हुए कहा कि फरवरी में गृह मंत्री अमित शाह के साथ जिन 'सिख मुद्दों' पर चर्चा की गई थी अभी तक उस पर ध्यान नहीं दिया गया है.

उन्होंने हमेशा की तरह नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) का उल्लेख किया, जिसका उद्देश्य उनकी इस पहल का समर्थन करने वाले कोर वोट बैंक को और मजबूत करना था. ऐसे समय में जब भारत धार्मिक संघर्ष के संकट में फंसा हुआ है तब धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने वाले एक ऐतिहासिक भाषण के बजाय मोदी ने एक भूल जाने वाला भाषण दिया जो अल्पकालिक राजनीतिक और चुनावी लाभ के धुंधले लक्ष्य से परे देखने में विफल रहा.

सिविल सेवा दिवस पर दिए गए मोदी के भाषण से भी मिले संकेत

21 अप्रैल की सुबह जब मोदी ने सिविल सेवा दिवस के अवसर पर सिविल सेवकों को संबोधित किया था तब ही यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि इस भाषण में क्या होने वाला है. ब्यूरोकेट्स को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा था कि 'देश में आम लोगों के जीवन में बदलाव आए, उसके जीवन में सुगमता आए और उसे इसका एहसास भी हो. आम लोगों को सरकारी कार्य से निपटने में संघर्ष करने की जरूरत न हो, उन्हें लाभ और सेवाएं प्राप्त करने में कोई परेशानी न हो.'

"लाभ और सेवाओं" पर तो मोदी ने जोर दिया लेकिन आज जिन मौलिक अधिकारों को कुचला जा रहा है उनका उल्लेख किसी तरह से नहीं किया. यह दर्शाता है कि कैसे सरकार का क्षरण हो रहा है और सरकार अब न्याय व संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है.

मोदी ने 'ईमानदारी' या 'वफादारी' (‘loyalty’) के पुराने राग को भी अलापा-इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री या उनकी सरकार की कोई आलोचना न करें-और यही नागरिक और सरकार के बीच संबंधों का प्राथमिक कारक है. लेकिन इस तर्क को उस आलोक में भी देखा जाएगा कि नागरिक के कर्तव्य की लगातार बात होती है लेकिन अधिकारों की नहीं, एक ऐसा दृष्टिकोण जिसे राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने स्पष्ट रूप से 'समर्थन' दिया था.

मोदी ने यह भी कहा कि 'बदलाव' समाज या सोसायटी द्वारा प्रभावित होता है, सरकार द्वारा नहीं. उन्होंने कहा कि वृद्धि, विकास और परिवर्तन सरकारी सिस्टम या सत्ता में बैठे लोगों के माध्यम से नहीं, बल्कि 'आम आदमी' और जनता के माध्यम से आया है. इस प्रकार मोदी के तर्क से यह प्रतीत होता है कि तरक्की की जिम्मेदारी उनकी नहीं बल्कि जनता की है.

इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि मोदी ने समय के साथ चुनिंदा समुदायों के बदलावों पर ही जोर दिया. वर्षों पहले अमेरिका में एक चर्चा में किसी भी समुदाय में अंतिम संस्कार की परंपराओं को बदलने की हिम्मत नहीं होने के बारे में उन्होंने कहा था कि "मैंने उन्हें [अमेरिकी अधिकारियों] से कहा कि परंपरागत रूप से, हिंदू गंगा के किनारे चंदन की आग में अंतिम संस्कार करने को पवित्र मानते थे. वही हिंदू समाज ने बिना किसी झिझक के विद्युत शवदाह गृह में अंतिम संस्कार को स्वीकार कर लिया.समाज की बदलती सोच का इससे बेहतर उदाहरण कोई नहीं हो सकता."

लेकिन प्रधान मंत्री के पास 'हम लोग', 'हम सब', राष्ट्र और भारतीय समाज की एक बहुत ही संकीर्ण, हिंदुत्ववादी परिभाषा है.

ये दो संबोधन बहुत कुछ बयां करते हैं

दो भा‌‌‌‌षणों से, एक, जिसे सांप्रदायिक शांति बनाए रखने की पहल के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया वह सामान्य बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ सका. वहीं सिविल सेवकों के लिए जो भाषण दिया गया उसने समाज और प्रशासन के बारे में सरकार के अस्पष्ट दृष्टिकोण का संकेत दिया. जबकि पहला भाषण निराश करता है, वहीं दूसरा वाला सिर्फ ज्यादा भय और चिंता का कारण बनता है.

(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वे @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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