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विपक्षी दलों में एकता की संभावना से सहम गए हैं मोदी समर्थक

कर्नाटक के अनुभव ने बता दिया है साथ लड़े बगैर किनारा नहीं पाया जा सकता

आशुतोष
नजरिया
Updated:
विपक्षी दलों में एकता की संभावना
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विपक्षी दलों में एकता की संभावना
(फोटो: PTI)

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जब से कर्नाटक में विपक्षी नेता जुटे हैं, एकता का नारा बुलंद हुआ है, एक नया जुमला शुरू हो गया है. बीजेपी और उनके चहेते पत्रकार, एंकर, संपादक कहने लगे है कि मोदी जी का कोई विकल्प नहीं है. कोई उनके बराबर का नेता विपक्षी खेमे में नहीं है. न उनका करिश्मा किसी के पास है और न ही उन जैसी लोकप्रियता.

ऐसे में बिना जनरल के विपक्षी सेना लड़ेगी कैसे? और जब उनका कोई नेता ही नहीं है तो जनता इन पर यकीन कैसे करेगी? कोई क्यों अपना वोट बरबाद करेगा? यानी लड़ाई शुरू होते ही विपक्ष हार गया है.

ये तो मानना पड़ेगा कि मोदी समर्थकों में काफी जीवट है. हर हाल में मोदी जी को देवता बनाए रखना चाहते हैं. शोले के जय जैसा हाल है. वीरू में लाख बुराइयां है पर मौसी के सामने वो उसी की ही तरफदारी करेगा. उसके अवगुणों में भी गुण खोज लेगा. वैसे में मोदी समर्थकों के तर्क का न तो बुरा मानना चाहिए और न ही उन्हें भला बुरा कहना चाहिए. ये प्रचार आने वाले दिनों में अभी और तीखा होगा. मोदी जी को देवता के पद से हटाकर भगवान बनाने की कोशिश होगी. सामने वाले को कीड़ा मकोड़ा बताने का प्रयास होगा. हो सकता है ये भी कहा जाए कि मोदी नहीं तो देश सुरक्षित नहीं. यानी भय का ऐसा वातावरण खड़ा किया जाए कि लोग खौफजदा हो मोदी जी को वोट दे बैठें.

ये सब होगा. होना भी चाहिए. लोकतंत्र में विपक्ष को कुप्रचार को जरिये धराशायी किया जाता है. पर पत्रकारों से ये उम्मीद की जाती है कि वो सही तथ्य जनता के सामने रखे ताकि वो सचाई के साथ अपने नेता का चुनाव कर सकें. हकीकत ये है कि विपक्षी एकता ने बीजेपी खेमे में हड़कंप मचा दिया है. वो नर्वस है. मोदी जी के लिए संकट गहरा है. अगर सारे विपक्ष ने बीजेपी के खिलाफ हर चुनाव क्षेत्र में एक उम्मीदवार उतारने का फैसला कर लिया तो मोदी जी 2019 में आराम से घर भी बैठ सकते हैं.

2014 में राजनीति में नए थे मोदी जी

सारे विपक्ष का बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ना, मोदी जी के लिए महंगा पड़ सकता है(फाइल फोटो: ANI)

2014 में मोदी जी देश की राजनीति में बिलकुल नए थे. गुजरात मॉडल का जिक्र कर उन्होंने लोगों को यकीन दिला दिया था कि वो हिंदुत्ववादी होने के बाद भी वो संघी नेता की तरह अतीतजीवी नहीं है. वो भविष्यवादी हैं. वो संघी नेता का तरह दकियानूसी नहीं हैं, नफरतवादी नहीं हैं. वो प्रगतिशील हैं. देश के लिए उनकी सोच ग्लोबल है. सबको साथ लेकर चलने वाले है. हिंदुत्ववादी के बावजूद आधुनिक सोच वाला शख्स. पर चार सालों में ये मिथ टूटा है. विकास तो हुआ नहीं. उल्टे देश पुरातनपंथी जरूर हो गया. 2014 में उनके पास जनता को ऑफर करने के लिए बहुत कुछ था. 2019 में ऐसा फिलहाल कुछ दिखता नहीं. ब्रांड अगर एक बार अटक जाए तो फिर आसानी से उठता नहीं है. आज मोदी ब्रांड अटक गया है. साख का संकट खड़ा है. ऐसे में 2019 में वो 2014 जैसा असर पैदा कर पाएंगे, संदेह है.

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दूसरा 2014 में सारा विपक्ष बिखरा था. हर कोई अपने अपने किले में खड़े होकर तलवार भांज रहा था. उसे इस बात का एहसास नहीं था कि शत्रु कितना मजबूत और खतरनाक है. सब अलग अलग लड़े तो सब ही खेत रहे. कोई यहां गिरा तो कोई कहां गिरा. किसी की हड्डी टूटी तो किसी की टांग. कुछ तो गर्दन ही गंवा बैठे. नतीजा अकेले यूपी में बीजेपी को कुल 73 सीटें मिली अपना दल के साथ. मायावती तो खाता भी नहीं खोल पाईं.

मोदी समर्थकों के लिए बड़ी चिंता

कर्नाटक के अनुभव ने बता दिया है साथ लड़े बगैर किनारा नहीं पाया जा सकता. और अगर देश में जाति एक सचाई है तो जातियों का गठबंधन आसानी से वोटों का गठबंधन खड़ा कर देगा. थोड़ा बहुत नफे नुकसान के साथ. यूपी में अगर माया अखिलेश साथ आ गए तो चाहे मोदी हो या न हो बीजेपी की सीटें आधी होना तय है. ये चिंता ही मोदी समर्थकों को खाए जा रही है.

मायावती और अखिलेश यादव(फोटो:क्विंट हिंदी)
इसी तरह अगर कांग्रेस और मायावती मध्य प्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ में मिल गए तो बीजेपी के लिए किला बचाना मुश्किल होगा. यही हाल होगा अगर कांग्रेस और एनसीपी महाराष्ट्र में साथ आ जाये. जहां शिवसेना ने पहले से ही बीजेपी के खिलाफ बगावत कर रखी है. तो कहां चलेगा मोदी ब्रांड ?

फिर एक सवाल मोदी समर्थक पत्रकारों से. क्या ये भूल गए 2004. तब अटल जी का विराट कद था. कद्दावर आडवाणी का साथ था. प्रमोद महाजन और जार्ज फर्नांडीज का चातुर्य था. पर बीजेपी हार गई. जो उसने कभी सोचा ही नहीं था. सामने थी सोनिया गांधी. राजनीति में नई. विदेशी होने का टैग बंधा था. विपक्ष तो तब एकजुट भी नहीं था. बीजेपी चौड़े से कह रही थी कि देश में फील गुड फैक्टर है. जैसे मोदी जी अच्छे दिन लाने वाले थे. देश को तब नहीं लगा कि फील गुड है.

लिहाजा देश ने तय किया कि मुझसे झूठ क्यों बोला. जब फील गुड नहीं था क्यों कहा? 2004 में लोगों ने ये नहीं देखा कि वाजपेयी जी के खिलाफ कोई है या नहीं ? उन्होंने ये तय किया कि वाजपेयी वायदे पर खरे नहीं उतरे, ऊपर से झूठ बोला. सजी मिली. सत्ता से बाहर. मोदी के लोगों को ये समझना होगा कि 2019 विपक्ष की परीक्षा नहीं है. परीक्षा मोदी जी को देनी है. हिसाब पूछा जाएगा. भाई साहब महंगाई कम हुई? रोजगार दिया ? महिलाएं सुरक्षित हैं ? पाकिस्तान को पीटकर पटरा किया ? आतंकवाद खत्म हुआ ? जब जवाब न होगा तो लोग भी ठेंगा दिखा देंगे जैसे वाजपेयी को दिखाया था.

2019 का चुनाव मोदी के इर्द गिर्द होगा. या तो उनको दोबारा चुनने के लिए लोग निकलेंगे या हराने के लिए. तब कोई ये नहीं देखेगा कि सामने कौन है ? 1977 में लोग इंदिरा गांधी को हराने के लिए निकले थे. राज नारायण ने इंदिरा को हरा दिया. और संजय गांधी भी हार गए. 1980 में लोग जनता पार्टी को हराने निकले, जनता परिवार को मिट्टी में मिला दिया. गुस्से में उन्हीं इंदिरा को ले आए जिन्हें तीन साल पहले वो घर बैठा चुके थे. ऐसे में मोदी समर्थक और पत्रकार-संपादक किसी गलतफहमी में न रहे.

अच्छे दिन, बुरे दिन में कब बदल जाएं, पता नहीं. ये बात मोदी जी को भी पता है. अनायास ही वो रूस और चीन नहीं भाग रहे है. कहीं कुछ हाथ लग जाए 2019 के लिए. और वो दोबारा गद्दी पर आसीन हों. मानो या न मानो विपक्षी एकता कमाल करे या न करे पर मोदी जी तभी कमाल करेंगे जब 2019 में बेचने लायक कुछ कर पाएंगे.

(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्‍ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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Published: 25 May 2018,10:12 PM IST

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