दलितों के भारत बंद ने तो मुझे भी चौंका दिया. मुझे ये तो उम्मीद थी कि कुछ शहरों में हल्का फुल्का बंद होगा. पर जिस तरह से बंद को अंजाम दिया गया, हिंसा दिखी उसका अंदाजा मुझे नहीं था. इस हिंसा में 12 लोगों के मरने की खबर है. वैसे कहने को तो बंद सिर्फ एससी/एसटी कानून में जो बदलाव करने का काम सुप्रीम कोर्ट ने किया है, उसके खिलाफ था, पर गुस्सा कई मुद्दों पर था जो लंबे समय से अंदर ही अंदर धधक रहा था.
ये गुस्सा कई कारणों से मोदी जी की सरकार आने के बाद बढ़ा है. मेरा अपना मानना है कि मोदी की सरकार का भविष्य, इस देश का उदारवादी तबका नहीं तय करेगा और न ही मुसलमान तय करेंगे. आरएसएस और मोदी सरकार का भविष्य तो इस देश का दलित ही तय करेगा. मोदी जी की सरकार जितना दलितों को अपनाने का ढोंग करेगी, ये गुस्सा उतना ही भड़केगा. दलितों और संघ के हिंदुत्व के बीच दोस्ती की कोई गुंजाइश बनती ही नहीं . और न आगे बनेगी.
रोहित वेमुला का क्या कसूर था?
एनडीए की सरकार आने के बाद कई बार ऐसा हुआ है कि मोदी जी ने ये जताने का प्रयास किया है कि वो बाबासाहेब आंबेडकर को अपना आराध्य मानते हैं और उनके नाम पर भीम ऐप निकालते हैं पर उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि अगर संघ की विचारधारा बाबासाहेब का इतना सम्मान करती है तो हैदराबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कालर रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिये क्यों मजबूर होना पड़ता है ? रोहित वेमुला का कोई कसूर नहीं था.
झूठी तोहमत लगाकर उसे हॉस्टल से बेदखल कर दिया गया. उसकी फेलोशिप रोक दी गई. उसे दूसरे के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा. उस पर मारपीट का आरोप लगाया था संघ के युवा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक कार्यकर्ता ने. जिसे प्रॉक्टर बोर्ड ने गलत पाया था. उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया. बाद में केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी पर दबाव डाल कर उसे हॉस्टल से जबरन बर्खास्त करवा दिया. ये मोदी सरकार का पहला ब्लंडर था. जिसे ठीक करने की कोई कोशिश नहीं की गई.
रोहित की आत्महत्या ने देश भर के दलितों को हिला दिया. पहली बार दलितों को लगा कि मोदी के राज में अगर रोहित जैसे प्रतिंभाशाली छात्र को न्याय नहीं मिल सकता तो फिर वो कहां जाये, किस के पास फरियाद करें. सोशल मीडिया पर दलितों का गुस्सा भयानक तौर पर फूटा. गो हत्या के नाम पर उना में सात दलित लड़कों की पिटाई की तस्वीर ने दलितों को ये समझा दिया कि अगर एकजुट नहीं हुए तो फिर अत्याचार और बढ़ेगा.
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अहमदाबाद से उना की दलितों की यात्रा और बाद में अहमदाबाद में दलितों की रैली ने एकजुटता दिखा बीजेपी और संघ को ये संदेश दे दिया कि हिंदुत्व के नाम पर दलित बलि का बकरा बनने को तैयार नहीं है. वो आवश्यकता पड़ने पर प्रतिकार भी कर सकता है. उना की घटना की वजह से जिग्नेश मेवाणी नाम का नया दलित चेहरा और नेतृत्व सामने आया. जो पढ़ा लिखा है और जो अपनी बात को आक्रामक तरीके से रखने का हुनर जानता है. रोहित की मौत ने अगर दलितों में गुस्सा पैदा किया तो उना ने उन्हें संगठित होने के लिये प्रेरित किया.
संगठन और गुस्से की पहली बानगी सहारनपुर में देखने को मिली जब गांव के दबंगों ने राणा प्रताप के नाम पर दलितों को दबाने का प्रयास किया, संत रविदास की मूर्ति का अनादर किया तो दलितों ने तुर्की ब तुर्की जवाब दिया. दंबगों को इस तरह के प्रतिकार का अंदाजा नहीं था. प्रशासन की मदद से दलितों को दबाने की कोशिश हुई.
फिर भी जंतर मंतर पर हजारों की संख्या में दलितों ने आकर अपनी ताकत का एहसास करा दिया. अचानक देश का भीम सेना के नाम से परिचय हुआ. और सामने आया चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण.
तीस साल का नौजवान. जो जब बोलता है तो आग उगलता है. वो राजपूतों जैसी मूंछें रखता है. मायावती तक को उसकी वजह से असुरक्षा बोध सताने लगी. यूपी की बीजेपी सरकार ने उसे जबरन जेल में बंद कर दिया. और जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उसे जमानत दी तो उसे राष्ट्रीय सुरक्षा कनून के तहत फिर बंद कर दिया. दलितों को ये बहुत नागवार गुजारा.
इस साल महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव में मराठों पर विजय के दो सौवें साल के उपलक्ष्य में एकत्रित दलितों पर हमला ठीक वैसे ही था जैसे किसी ने घाव पर मिर्च मल दी हो. गुस्से में दलितों ने महाराष्ट्र कूच करने का फैसला किया. महाराष्ट्र बंद ने पूरी सरकार को हिला दिया.
पर सत्ता का अपना मद होता है. बजाय दलितों के आक्रोश को समझने के उन्हें नक्सली और देशद्रोही करार दे दिया गया. जिग्नेश को जेल भेजने की तैयारी कर ली गई. हालांकि बीजेपी को ये अंदाजा हो गया था कि दलित उनकी राजनैतिक दुकान बंद करवा सकते है लिहाजा राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति भवन में बैठाने का उपक्रम किया गया.
राजनीति में सौदेबाजी करने वालों को ये बात समझ में नहीं आई राजनीति इंसानों से तो की जा सकती है, इतिहास की गति को नहीं रोका जा सकता है. बाबासाहेब आंबेडकर ने जो मशाल 1927 में महाद आंदोलन के समय जलाई वो मशाल अब दावानल का रूप ले चुकी है जो इतिहास में हुए अपने साथ अत्याचार का बदला लिए बगैर खत्म नहीं होगी. उसे रेवड़ियों की नहीं इंसाफ की दरकार है.
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बाबासाहेब ने ‘जाति के ध्वंस’ के अपने ऐतिहासिक और क्रांतिकारी लेख में लिखा था कि हिंदू धर्म को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तब तक दलितों को न्याय नहीं मिलेगा. क्योंकि दलित तब तक जाति के बंधन से मुक्त नहीं होगा जब तक जाति प्रथा है. और जाति प्रथा हिंदू धर्म का मूल है. फिर बाबा साहेब ने 1935 में ये भी कहा था कि वो पैदा तो हिंदू हुये है लेकिन वो हिंदू मरेंगे नहीं .
अब सवाल ये है कि जो आरएसएस हिंदू धर्म की वकालत करती है, मनु स्मृति को मानती है, वो बाबासाहेब को कैसे अपना सकती है ? क्या आरएसएस बाबासाहेब की इस राय से सहमत है कि हिंदू धर्म को नष्ट किए बगैर दलितों को न्याय नहीं मिल सकता है ? संघ कभी इस बात को नहीं मानेगा. तो फिर हिंदुत्व और बाबासाहेब के अनुयायियों में कैसे एका हो सकती है ? दोनों दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिल सकते.
आरएसएस प्रमुख गोलवलकर हों या फिर हिंदुत्व के पहले ‘मसीहा’ सावरकर इन दोनों ने ये तो माना है कि जाति प्रथा में खामियां आ गई है पर वो जाति प्रथा को खत्म करने की बात नहीं करते. हिंदुत्व के ये दोनों शूरवीर ये मानते हैं कि जाति प्रथा की वजह से ही हिंदू धर्म सदियों से जीवित रहा. वो कहते है कि ईसा से पांच सौ साल पहले बुद्ध धर्म का जन्म हुआ था जिसने हिंदू धर्म का अस्तित्व मिटाने में कोई कसर नही छोड़ी, हिंदू धर्म जाति प्रथा नामक संस्था के कारण ही बच पाया.
दलितों की तकलीफ पर आरएसएस की चुप्पी क्यों?
चार्वाक हो या फिर जैन धर्म या फिर मध्यकाल में इस्लाम और बाद में ईसाई धर्म, सबको हिंदू धर्म झेल गया क्योंकि जाति ने हिंदू धर्म को संगठित कर रखा था. सबसे हैरानी की बात ये है कि सावरकर हो या गोलवलकर, ये अछूत परंपरा की तीखी आलोचना करते हैं पर इनके लेखन में दलितों के साथ हुये अत्याचार का इतिहास नहीं मिलता (वो जिक्र से ही गायब है ), तीखी टिप्पणी नहीं मिलती. आरएसएस का लेखन दलितों की व्यथा और तकलीफ पर अमूमन चुप है क्योंकि इस विवेचना का अर्थ है उच्च जातियों की कठोर निंदा. जिसके करने का मतलब है उच्च जातियों का समर्थन खोना.
बाबा साहेब ने इस बिंदु पर गांधी जी को भी नहीं बख्शा था. बाबासाहेब ने कहा था कि गांधी जी महात्मा और नेता दोनों ही बने रहना चाहते है. जो संभव नहीं है. महात्मा के तौर पर वो दलित उद्धार की बात तो करते हैं पर नेता के तौर उच्च जातियों को समर्थन भी नहीं खोना चाहते. आरएसएस के बारे में आम धारणा है कि वो सवर्ण हिंदुओं का संगठन है, वो ये तो दावा करेगा कि संघ के लोग दलितों के बीच में काम करते हैं, छुआछूत को नहीं मानते पर संघ दलितों को हक दिलाने के लिये कभी आंदोलन नहीं करता.
वो गाय के लिए मरने मारने पर उतारू है पर इंसान को हाशिये पर ही देखना चाहता है. बाबासाहेब का यही तो दर्द था कि सवर्ण हिंदू जानवर की पूजा करता है और दलितों को जानवर से भी बदतर दर्जा देते हैं. उसको छूने मात्र से वे अपवित्र हो जाते हैं
दलितों के सवाल पर ढोंग
आज बाबासाहेब के अनुयायी ये सवाल पूछते हैं कि रोहित की आत्महत्या, ऊना में दलितों की पिटाई, सहारनपुर में दलितों पर हमला, चंद्रशेखर आजाद पर रासुका लगाकर जेल में रखना, भीमा कोरेगांव में दलितों पर हिंसा क्या अकारण है ? विश्वविद्यालयों में दलित कोटे में कटौती, एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मोदी सरकार की रहस्यमय चुप्पी क्या संकेत करती है ?
वो ये पूछना चाहते हैं कि क्यों मोदी जी की कैबिनेट में सबसे महत्व के पदों पर एक भी दलित नहीं है ? मोदी जी को पता है हिंदुत्व विचारधारा की कुछ मजबूरियां हैं जो 1966 उडुपी में विश्व हिंदू परिषद के सम्मेलन में छुआछूत के खिलाफ प्रस्ताव पारित तो कर सकती है. सड़क का रास्ता नहीं अपना सकती है. वो पूछता है कि बाबासाहेब के नाम में ‘राम जी’ शब्द घुसेड़ने का मर्म क्या है ? ये वैचारिक लड़ाई और जैसे-जैसे आरएसएस की हिंदुत्ववादी विचारधारा की आक्रामकता बढ़ेगी, दलितों से दूरी भी बढ़ेगी. इसलिए सड़कों पर पसरी हिंसा अच्छे संकेत नही दे रही.
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