मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019दशहरे पर भागवत के भाषण में दिखता है भागवत काल का आरएसएस

दशहरे पर भागवत के भाषण में दिखता है भागवत काल का आरएसएस

भागवत के लिए हिंदू “कोई सम्प्रदाय या सम्प्रदाय का नाम नहीं’’

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Updated:
मोहन भागवत
i
मोहन भागवत
(फोटो: IANS)

advertisement

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख के तौर पर मोहन भागवत के कार्यकाल को भावी इतिहासकार हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति का ऐसा कार्यकाल बताएंगे जिसमें संघ निखरकर सामने आया. भागवन ने न केवल उन विषयों पर टिप्पणी की है जो असंदिग्ध रूप से राजनीतिक हैं बल्कि उन्होंने अपने शब्दों में भी पूरी स्पष्टता रखी है.

अपने कई पूर्व प्रमुखों से अलग उन्होंने खुद को केवल ऐसी मुहावरेबाजी तक सीमित नहीं रखा जो केवल वफादार लोगों को ही समझ में आए. संघ के हिंदुत्व दर्शन की समाज में जबरदस्त स्वीकार्यता से उपजा यह आत्मविश्वास है जिसे भारतीय जनता पार्टी ने केवल एक संसदीय चुनाव में नहीं, बल्कि कई चुनावों में बढ़-चढ़कर व्यक्त किया है.

हमें चीन के खिलाफ तैयार रहना ही होगा : दशमी के भाषण में आरएसएस प्रमुख भागवत

आरएसएस प्रमुख के वार्षिक दशहरा व्याख्यान की अहमियत अब सबको पता है और अब यह बड़ा मीडिया इवेंट भी है.

इस साल यह भाषण उसी दिन हुआ है जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ की. इसने लोगों की दिलचस्पी और बढ़ा दी कि वे दोनों भाषणों में संभावित समानता और असमानताओं को देख सकें. इस इवेंट में मोदी ने पूरक भूमिका निभाने का रास्ता चुना.

भागवत के पिछले सात भाषणों ने कई मामलों में बैरोमीटर का काम किया है जिनमें 25 अक्टूबर का भाषण भी शामिल है.

पहली बात यह है कि संघ परिवार के वैचारिक दर्शन स्रोत और डबल इंजन की बीजेपी सरकारों के बीच अंतर संगठनात्मक संबंध रहा है. भागवत के भाषणों से जो संकेतकों का दूसरा सेट नजर आता है उसमें वे मुद्दे हैं जिन्हें आरएसएस चाहता है कि उछाला जाए या उन्हें प्राथमिकता में लाया जाए.

संघ प्रमुख ने पद पर बैठने के बाद से ही हमेशा सरकार की हर कार्रवाई और पहल का पूरी तरह से समर्थन किया है.

जम्मू-कश्मीर पर फैसले की तारीफ भागवत पिछले साल कर चुके हैं. उन्होंने संतोष के साथ उस ऐतिहासिक फैसले की याद दिलाई, जिसमें राम मंदिर निर्माण की अनुमति दी गई और अयोध्या में भूमि पूजन के दौरान आम लोगों में उत्सव का उल्लास दिखा. उन्होंने ‘विधिवत तरीके से पारित’ नागरिकता संशोधन कानून के लिए भी सरकार की सराहना की.

पड़ोसी देशों के साथ करीबी संबंध विकसित करने पर जोर

आरएसएस प्रमुख ने पाया कि COVID-19 महामारी से निपटने में सरकार की कोई गलती नहीं रही, हालांकि उन्होंने आर्थिक कदमों को लेकर सुझाव दिया.

चीन की सैन्य आक्रामकता के अहम मुद्दे पर भागवत ने दावा किया कि सरकार, प्रशासन, रक्षा बल और भारत के लोगों ने जिस दृढ़ता और साहस के साथ जवाब दिया उससे चीन ‘स्तब्ध’ रह गया.

सरसंघचालक ने पड़ोसी देशों श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार (ब्रह्मदेश) और नेपाल के साथ करीबी रिश्ते विकसित करने पर भी जोर दिया, जिनके साथ हमारे ‘साझा मूल्य और नैतिक संबंध’ हैं.

उन्होंने माना कि कई बार मतभेद पैदा होते हैं लेकिन उन्होंने मतभेद दूर करने, विवाद सुलझाने और पुराने मुद्दों को हल करने की सलाह दी. साफ तौर पर आरएसस चाहता है कि उसके विचार कूटनीति में दिखें.

हालांकि कई कारणों से यह कहना आसान है और करना मुश्किल. लेकिन, चीन से मुकाबले की सलाह निश्चित रूप से अति साधारण है.

भागवत का प्रारूप अच्छी नीयत से है : “आर्थिक रूप से, रणनीतिक तौर पर, अपने पड़ोसियों के साथ सहयोग सुनिश्चित करने और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में चीन से ऊपर उठना ही एक मात्र रास्ता है जिससे राक्षसी आकाक्षाओं का मुकाबला किया जा सकता है.”

कोई भी कल्पना कर सकता है कि इन बातों से वफादार तो सहमत हो सकते हैं लेकिन इन इच्छाओं को जमीन पर कैसे उतारा जाए? परंपरागत रूप से आरएसएस के पास वैश्विक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पर्याप्त समझ का अभाव रहा है और एक बार फिर यह बात साबित हुई है.

भागवत के भाषण में दो हिस्से हैं. दोनों आंतरिक हालात पर हैं जिस पर आरएसएस की सोच सुविचारित है और खास तौर से इस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है.

एक का संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुत्ता पर ‘विदेशी खतरा’ और ‘आंतरिक गतिविधियों’ से है. आरएसएस प्रमुख के हिसाब से इसके लिए ‘सतर्कता’ की जरूरत है.

संघ की यह सोच लंबे समय से रही है कि उसके विरोधी भी देश को कमजोर करने का काम कर रहे हैं जिस पर 2014 से सरकार, बीजेपी और आरएसएस जोर देते रहे हैं.

भागवत ने डॉ. बीआर अंबेडकर के परिवर्तनकारी भाषण की भी याद दिलाई, जिसे संघ परिवार ने देर से स्वीकार किया. 25 नवंबर 1950 को अंबेडकर के भाषण में ‘अराजकता के व्याकरण’ का जिक्र करते हुए भागवत ने अपने भाषण में “संगठित हिंसा (दिल्ली दंगा) और (सीएए विरोधी) प्रदर्शन के नाम पर सामाजिक उथल-पुथल पैदा करने” का उदाहरण रखा.

चुनिंदा तरीके से इतिहास, उद्धरण या घटनाओं के इस्तेमाल का यह उदाहरण है. वास्तव में अंबेडकर ने अपने समापन भाषण में तीन चेतावनियां दी थीं और लोकतंत्र की रक्षा के लिए सबसे पहले हिंसा का रास्ता छोड़ने की अपील की थी. उनकी दूसरी चेतावनी थी कि नायक पूजा ना करें क्योंकि “राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन का रास्ता है और यह तानाशाही की ओर ले जाता है.”

2014 के बाद से हमने देखा है कि बीजेपी के भीतर व्यक्तित्व के उपासक बढ़े हैं और भारतीय संसदीय व्यवस्था को राष्ट्रपति व्यवस्था में तब्दील करने की कोशिश दिखी है. शुरू में भागवत ने राजनीति के व्यक्तिपरक होने को लेकर चेतावनी दी थी लेकिन ऐसा लगता है कि अब वे इसी राह पर लौट आए हैं. कम से कम इस वक्त तो ऐसा ही है.

अंबेडकर के अनुसार तीसरी चेतावनी थी कि ‘राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट’ नहीं रहा जाए. इसके बजाए वे ‘सामाजिक लोकतंत्र’ की सोच लेकर आए. उनके अनुसार भारतीय समाज में तब सामाजिक समानता और बंधुत्व के सिद्धांत का पूरी तरह से अभाव था.

जैसा कि कई मौकों पर मोदी कहते हैं, भागवत ने भी संवैधानिकता पर जोर दिया और यह बात रखी कि संविधान के दायरे में रहते हुए कार्रवाई की जा रही है.

इससे संघ परिवार का वो विचार पीछे छूट जाता है, जिस बारे में प्रधानमंत्री कहते आए हैं कि देश का एक ही पवित्र ग्रंथ है. फिर भी जब वास्तविक राजनीति पर लौटते हैं तो जरूरी सामाजिक बराबरी और बंधुत्व के लिए प्रतिबद्धता के मुकाबले भगवा बंधुत्व फीका पड़ जाता है.

सितंबर 2018 को भागवत के बयान पर कई बातें कही गई थीं जब उन्होंने दिल्ली के विज्ञान भवन से देश को संबोधित किया था. उनके बयान को मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश के तौर पर देखा गया था : “जिस दिन यह कहा जाता है कि मुसलमान अवांछित हैं, हिंदुत्व की सोच खत्म हो जाएगी.”

भागवत के लिए हिंदू “कोई सम्प्रदाय या सम्प्रदाय का नाम नहीं''

भागवत ने दशहरा भाषण में इस बात को समझा कि हिंदुत्व को लेकर ‘भ्रम’ है. उन्होंने इस पर स्थिति साफ करने की कोशिश की लेकिन विवादास्पद संदेश छोड़ गए.

भागवत की प्राथमिक परिभाषा है कि हिंदुत्व “वह शब्द है जो हमारी पहचान बताता है जिसमें परंपरा पर आधारित हमारी आध्यात्मिकता और मूल्यों पर आधारित हमारा वैभव है....यह वह शब्द है जो 1.3 अरब लोगों पर लागू होता है जो खुद को भारतवर्ष की संतान बताते हैं.''

जो लोग खुद को इस धरती की संतान कहते हैं उनका उद्देश्य “नैतिकता और पहचान के साथ तारतम्य होना है जिन्हें अपने पूर्वजों की विरासत पर गर्व है जो प्राचीन काल से एक आध्यात्मिक परिदृश्य से जुड़े रहे हैं.”

भागवत के लिए हिंदू “कोई सम्प्रदाय या सम्प्रदाय का नाम नहीं है, ना ही यह प्रांतीय अवधारणा है और न ही कोई जाति...” और वह इस बात पर जोर देते हैं कि हिंदू का क्या मतलब नहीं है.

इसके बजाए हिंदू शब्द “मनोवैज्ञानिक तौर पर हर जगह मौजूद है जो मानव सभ्यता के विशाल प्रांगण में है और यह असंख्य पहचानों से जुड़ा है और उसका सम्मान करता है.”

चूंकि भागवत इस विवाद को जानते हैं कि हर कोई हिंदू कहलाना पसंद नहीं करेगा, वह आगे कहते हैं “हो सकता है कि कुछ लोगों को यह शब्द स्वीकार करने में दिक्कत हो. हम किसी और शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति नहीं करते जो उनके मन में है और जिसका मतलब यही है.”

लेकिन यह रियायत यह बात जोड़ते हुए आती है, “देश की अखण्डता और सुरक्षा के हित में संघ ने विनम्रतापूर्वक वर्षों से इसे आत्मसात किया है और हिंदू शब्द पर वैश्विक स्तर पर व्याख्याओं को स्वीकार किया है.”

“जब संघ कहता है कि हिंदुस्थान हिन्दू राष्ट्र है तो उसके पीछे कोई राजनीतिक या शक्ति केंद्रित सोच नहीं होती. हिंदुत्व इस देश की खुशबू ‘स्व’ है.”

भागवत के इस स्व-वाद में सामान्य विश्वास है जो साझा आध्यात्मिक परंपरा की तरह है. भागवत के कथन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में कोई परिवर्तन नहीं है.

संघ परिवार की नजर में भारत उन लोगों का देश है जिनकी साझा संस्कृति, समान आध्यात्मिक विरासत और धर्म हैं.

हिंदू लेबल से असहज हुए लोग पहचान के लिए किसी और टैग का इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन संघ परिवार की आंखों में देश में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू से इतर कुछ भी नहीं है.

कोई किसी को अपना धर्म मानने, क्षेत्र, भाषा आदि के लिए नहीं रोक रहा. यह सर्वोच्चता की खोज पर विराम लगाता है और व्यापक पहचान के सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है. वास्तव में यह खुले तौर पर सामने आना है.

(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @NilanjanUdwin है. यह एक ओपिनियन लेख है. इसमें दिए गए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 26 Oct 2020,09:15 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT