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मतदाताओं ने भारतीय लोकतंत्र को वापस संभलने का मौका दे दिया है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भले ही लगातार तीसरी बार एनडीए की सरकार बनी है लेकिन बीजेपी को लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) में अपने बूते बहुमत नहीं मिला है. ऐसे में पीएम मोदी अपने विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अब उन सहयोगी पार्टियों पर निर्भर रहेंगे जिनके अगले कदम का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता.
निश्चित रूप से, देश भर में नतीजे अलग-अलग रहे. लेकिन बीजेपी ने कई अहम राज्यों में उसे डेंट का सामना करना पड़ा. इसमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जो लंबे समय से पार्टी का गढ़ माना जाता था. बढ़ते घरेलू खर्च से परेशान वोटर्स ने वोट करते वक्त उग्र हिंदू राष्ट्रवाद और नफरत से भरी बयानबाजी पर बढ़ते मोदी के फोकस को अपने राज्य में खारिज कर दिया.
बीजेपी ने विपक्षी दलों को दबाने के लिए स्वतंत्र सरकारी एजेंसियों का भी इस्तेमाल किया, उनके बैंक खातों को फ्रीज कर दिया, आलोचकों और विपक्षी नेताओं को दंडित करने और जेल भेजने के लिए कठोर कानूनों का इस्तेमाल किया, जबकि दूसरों को बीजेपी में शामिल होने के लिए मजबूर किया. यहां तक कि आधिकारिक आंकड़े भी राजनीतिक हस्तक्षेप और हेरफेर से अछूते नहीं थे.
इसके अलावा, भारत की मुख्यधारा की मीडिया ने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया, मोदी के प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से इनकार करने को सामान्य बात मान लिया और प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की महिमा-मंडन को बढ़ावा दिया. एक तरफ स्वतंत्र पत्रकारों को धमकाया और दंडित किया गया, वहीं सरकार से जुड़े आउटलेट बीजेपी के अनुकूल झूठ को बढ़ावा देने और संभावित राजनीतिक विकल्पों को कमजोर करने में लगे थे.
भले ही चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं थे, लेकिन इससे कई सबक मिलते हैं. सबसे पहले, देश के भीतर और बाहर दोनों जगह नैरेटिव को नियंत्रित करने की सरकार की क्षमता साफ तौर से कम होती जा रही है, क्योंकि आज के भारत की वास्तविकता इतनी भयावह हो गई है कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
बीजेपी के विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडे की सीमाएं भी तेजी से स्पष्ट होती जा रही हैं. पूरे चुनाव कैंपेन के दौरान मोदी और उनकी पार्टी ने खुलेआम हिंदुओं के डर और पूर्वाग्रहों को हवा दी, दावा किया कि विपक्षी कांग्रेस पार्टी लोगों की संपत्ति जब्त कर लेगी और उन्हें “घुसपैठियों” और “जिनके ज्यादा बच्चे हैं” उनको बांट देगी. इशारा मुसलमानों पर था.
गौर करने वाली बात ये है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसे भाषण दिए गए, उनमें से ज्यादातर ने बीजेपी के खिलाफ मतदान किया. पार्टी अयोध्या में भी हार गई, जहां उसने हाल ही में भगवान राम के लिए एक विशाल मंदिर का उद्घाटन किया. मंदिर 1992 में हिंदू भीड़ के हाथों ध्वस्त की गई सदियों पुरानी मस्जिद के स्थान पर बनाया गया था.
चुनाव जीतने के बावजूद, मोदी के कभी न हारने वाला जो इमेज बनाया गया था, वो अब टूट चुका है. "मैं बायोलॉजिकल नहीं हूं, ईश्वर ने मुझे भारत की सेवा करने के लिए भेजा है", पीएम मोदी के इस दावे में अहंकार झलकता है. इसे सोने पर सुहागा करता है उनके चाटुकारों का किया गया समर्थन जिन्होंने उनकी हर गलती को "मास्टरस्ट्रोक" के रूप में सराहा. यहां तक कि उनके अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में भी, उनकी जीत का अंतर लगभग दो-तिहाई कम हो गया.
ऐसा लगता है कि समाचार आउटलेट और सोशल-मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल गलत सूचना और प्रचार प्रसार करने के लिए इस हद से ज्यादा नहीं किया जा सकता. अबतक, बीजेपी ने टेलीविजन, रेडियो और प्रिंट मीडिया को कब्जे में करने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया, और इसके आईटी सेल ने व्हाट्सएप ग्रुप और ऑनलाइन ट्रोल की “सेनाओं” के विशाल नेटवर्क के जरिए से सोशल मीडिया पर अपना दबदबा बनाया. लेकिन इन प्रयासों के बावजूद, स्वतंत्र मीडिया आउटलेट, युवा ब्लॉगर्स और बड़ी संख्या में फॉलोअर्स वाले यूट्यूबर्स द्वारा समर्थित डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आलोचना की आवाज जोर पकड़ रही है.
चुनाव के नतीजों में छिपे अर्थ निश्चित रूप से बहुत व्यापक होंगे. बीजेपी को अब गठबंधन के सहयोगियों पर निर्भर रहना होगा, जिसके लिए बातचीत और समझौता करने की क्षमता की आवश्यकता होती है. ऐसा कौशल मोदी और उनके गृह मंत्री और करीबी विश्वासपात्र अमित शाह में बमुश्किल ही देखा जाता है. इसके अलावा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में अन्य दलों के साथ बीजेपी का रिश्ता मूल रूप से लेन-देन वाला है, अतीत में विश्वासघात के इतिहास के कारण दोनों पक्षों के बीच विश्वास का धागा बेहद कमजोर है.
संयोग से, भारत का अपना आर्थिक इतिहास इस दावे का खंडन करता है कि गठबंधन की सरकार अर्थव्यवस्था के लिए बुरी साबित होगी. गठबंधन अधिक अस्थिर हो सकते हैं लेकिन वह संसद में ज्यादा आवाजों को सुनने के लिए सरकार को मजबूर करते हैं. गठबंधन की सरकार का यह पहलू एक-पक्षीय शासन की तुलना में सरकार को अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी बनाता हैं.
दूसरी ओर, केंद्र में एक पार्टी की सत्ता होना गंभीर गलतियां होने कि संभावना को बढ़ा देता है. उदाहरण के लिए मोदी शासन की विनाशकारी 2016 की नोटबंदी या कठोर कोविड-19 लॉकडाउन को देख सकते हैं, दोनों ही फैसले राज्य सरकारों या अन्य राजनीतिक दलों से परामर्श किए बिना लागू किए गए थे.
लेकिन भारत का लोकतंत्र अभी भी खतरे से बाहर नहीं है. बीजेपी ने भारतीय समाज में जो धार्मिक नफरत का जहर घोला है, उससे लड़ने में लंबा समय लग सकता है. इसी तरह, मोदी की सत्तावादी रणनीति से समझौता करने वाली एजेंसियां और संस्थाएं आसानी से पूर्ण स्वायत्तता पर वापस नहीं आ सकती हैं. और मोदी के शासन के लगातार अनिश्चित होते जाने के साथ कानूनी, नियामक और प्रशासनिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग जारी रह सकता है और यहां तक कि तीव्र भी हो सकता है.
फिर भी, भारतीय राजनीति एक बार फिर से कांटे की टक्कर शुरू हो गई है. यह पहलू करोड़ों भारतीयों के लिए राहत की बात है.
(जयति घोष, मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं, क्लब ऑफ रोम के परिवर्तनकारी अर्थशास्त्र आयोग की सदस्य हैं और अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेट कराधान के सुधार के लिए स्वतंत्र आयोग की सह-अध्यक्ष हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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