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पीएम मोदी प्रज्ञा के बयान से खफा हैं या फिर बयान की टाइमिंग से?

भोपाल से बीजेपी की उम्मीदवार के बयान से माननीय प्रधानमंत्री इतने विचलित हैं कि उन्हें घिन आ रही है

पुरुषोत्तम अग्रवाल
नजरिया
Updated:
प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर बीजेपी का मौन क्या बताता है?
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प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर बीजेपी का मौन क्या बताता है?
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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भोपाल से बीजेपी की उम्मीदवार के बयान से माननीय प्रधानमंत्री इतने विचलित हैं कि उन्हें घिन आ रही है, पार्टी कर भी दे तो वे महोदया को मन से माफ नहीं कर पाएंगे. प्रधानमंत्री जी के मन की महिमा तो पिछले पांच साल में हम सब मन की बात सुन-सुन कर जान ही गये हैं. सब लोग भले ही विश्वास न करें, लेकिन प्रधानमंत्री जी तो यह दावा करते ही हैं कि उनके मन की बात सच्ची होती है.

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ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि महोदया का पार्टी से निलंबन पहले होता, बयानबाजी बाद में. मोदीजी जैसे गुणी को यह समझाने की जरूरत तो है नहीं कि सुश्री ठाकुर और आपके बीच व्यक्तिगत रूप से कोई कड़वाहट हो जाए और आप उन्हें कभी माफ न कर पाएं, इससे देश को कोई लेना-देना नहीं. लेकिन, अगर गोडसे देशभक्त था तो राष्ट्रपिता की गतिविधियां देश-विरोधी थीं. ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री जी के मन की बात सच तभी मानी जाएगी, जबकि इस उम्मीदवार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो, वरना तो मान्यवर, बातें हैं, बातों का क्या.

यह सवाल तो उठेगा ही ना कि अगर आपको ऐसी बातों से ऐसी ही घिन होती है तो BJP के आईटी सेल के मुखिया के विरुद्ध क्या कार्रवाई हुई?  

वे अभी बस कुछ ही दिन पहले तक, गोडसे के कुकृत्य की सफाई देते हुए, ट्वीटर पर केस लॉ के हवाले से बता रहे थे कि कानून भी कुछ स्तिथियों में हत्या को जायज मानता है.

आप जिन्हें फॉलो करके गौरवान्वित करते हैं, उन महानुभावों के ट्वीटर हैंडलों पर दो चीजें कॉमन हैं, गाली-गलौज, और गोडसे-वंदना.

आपने इस विशेषता के लिए किसी को अनफॉलो किया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया. जिन दो एक लोगों पर गाज गिरी है, उन्होंने कोई पहली बार तो गोडसे-वंदना की नहीं है. फिर क्यों न माना जाए कि मन की बात असल में वक्त की बात होती है. आप स्वयं ही कह चुके हैं कि ’ चुनाव में बहुत सी बातें कह दी जाती हैं, उन्हें मन पर नहीं लेना चाहिए’. अमित शाह तो इस सिलसिले में भारतीय राजनीति में “जुमले” का स्थायी योगदान ही कर चुके हैं.

बीजेपी प्रज्ञा ठाकुर के विरुद्ध कोई गंभीर कार्रवाई कतई नहीं करेगी. अंग्रेजी में मुहावरा है मेथड इन मैडनेस. यहां वही बात लागू होती है. उम्मीदवार का मानसिक स्तर क्या है, समझ क्या है, देशसेवा में योगदान क्या है, हेमंत करकरे से लेकर राष्ट्रपिता तक के बारे में वे क्या सोचती हैं…यह सब बीजेपी से छुपा नहीं था. फिर भी उन्हें जानबूझ कर दिग्विजय सिंह के विरुद्ध उतारा गया. क्यों?

यह परखने के लिए कि भारत के लोग किस हद तक गांधी के बरक्स गोडसे की सोच को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? समावेशी, सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद के घोर विरोधी हिन्दुत्व-विचार की ताकत कितनी बढ़ चुकी है? रणनीति यह है कि भोपाल में प्रयोग अगर सफल हो जाए, तो फिर सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद को एक के बाद एक धक्के और दिये जाएं. यह उम्मीदवारी अचानक लिया गया फैसला नहीं, हिन्दुत्ववादी कार्यपद्धति का नतीजा था.

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इस कार्यपद्धति को वे लौहपुरुष पटेल अच्छी तरह समझते थे जिन्हें अपना वैचारिक पूर्वज साबित करने की कोशिश आरएसएस मोदीजी के पहले से ही करता रहा है. गांधीजी की हत्या के प्रसंग में पटेल ने इस कार्यपद्धति को दो-टूक शब्दों में रखा था. ऐसा लगता है जैसे बात आज की हो रही है. 11 सितंबर 1948 को, गोलवलकर को उन्होंने लिखा था-

“(आरएसएस कार्यकर्ताओं का) कांग्रेस-विरोध इतना विषैला हो गया कि न शख्सियतों का ध्यान रखा गया, न शराफत और मर्यादा का…सांप्रदायिक जहर से भरे भाषणों का नतीजा हुआ कि देश को गांधीजी के बहुमूल्य जीवन का नुकसान सहना पड़ा. आरएसएस के लोगों ने गांधीजी के निधन पर मिठाइयां बांटी, खुशियां मनाईं”.

शराफत और मर्यादा की परवाह किए बिना किये जाने वाले विरोध का विषैलापन बढ़ा है या घटा है, यह आप मोदी-समर्थकों से बात करके या सोशल मीडिया उनकी गतिविधियां देख कर पता लगा सकते हैं. पटेल की मूर्ति को अमेरिका से होड़ का माध्यम बनाने वाले जरा फैंटेसी करके देखें कि उम्मीदवार महोदया का बयान सरदार पटेल के गृहमंत्री रहते आया होता, तब बात घिन और कभी न माफ करने से आगे, बहुत आगे जाती?

प्रज्ञा ठाकुर का टाइप हिन्दू-सभा का है, और ये लोग तो लगातार ही कहते आए हैं, “कहते हैं डंके की चोट, हमने गांधी मारा है”. वे उम्मीदवार बना दी गयीं बीजेपी की, जिसकी नर्सरी अर्थात आरएसएस में गुम चोट करना बाकायदा सिखाया जाता है. शाखाओं में होने वाली जिस बातचीत का कोई रिकार्ड नहीं होता, उसी के जरिए “विषैलापन” तैयार किया जाता है. इस तैयारी की कामयाबी परखने के लिए ही प्रज्ञा ठाकुर को टिकट दिया गया था; लेकिन उनकी नासमझी ने सब गुड़-गोबर कर दिया. जिसे मोदीजी घिन कह रहे हैं, वह असल में गुस्सा है कि किस वक्त क्या बोल दिया. एक तो विद्यासागर ही पीछे पड़े थे, ऊपर से अब गांधीजी “राष्ट्रपिता”.

गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने से बहुत से लोगों को बहुत तकलीफ होती है. ऐं-वें टाइप ही नहीं, मुख्यमंत्री और राज्यपाल के पदों को सुशोभित कर चुके महानुभाव भी ठसके से पूछ चुके हैं, एक ठो तो आरटीआई भी हो चुकी है कि गांधीजी को राष्ट्रपिता किसने बनाया, किसने कहा?

उत्तर है—नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने. 4 जून 1944 को रंगून से आजाद हिन्द रेडियो से बोलते हुए, उन्होंने, “देश की आजादी की इस पवित्र लड़ाई के लिए, राष्ट्रपिता ( फादर ऑफ अवर नेशन)” का आशीर्वाद मांगा था.

आजाद हिन्द फौज में गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद के नाम पर ब्रिगेडें थीं. परस्पर मतभेदों के बावजूद, शख्सियत, मर्यादा, शराफत किसी की भी परवाह न करने वाले सांप्रदायिक जहर का मुकाबला ये बड़े लोग मिल कर करते थे.

गांधीजी के साथ अपने मतभेदों के बावजूद सुभाष चंद्र बोस उनका महत्व भलीभांति समझते थे. गांधीजी को “फादर ऑफ अवर नेशन” इसी समझ को जताता है.

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Published: 18 May 2019,04:31 PM IST

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