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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने साल 2017 के लिए अपराध के आंकड़े जारी कर दिए हैं. सरकार ने आंकड़े जारी करने में सालभर की देरी की. ये आंकड़े न सिर्फ देरी से आए, साथ ही इनमें कुछ खास है भी नहीं. इस वक्त तक 2017 के साथ 2018 में भी हुए अपराध के आंकड़े आ जाने चाहिए थे. खासकर डिजिटल जमाने में तो समय की अहमियत और बढ़ जाती है. अपराध के ताजा आंकड़ों से ही नीति निर्माताओं को जनता के लिए नीतियां और भविष्य की योजनाएं बनाने में मदद मिलती है.
आंकड़ों को अलग-अलग करके देखा जाए, तब जाकर अपराध से जुड़ी सच्चाईयों का पता चलता है और टुकड़ों में सामाजिक गलतियां और गेम चेंजर सामने आते हैं.
बताया जाता है कि आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिए NCRB के पूर्व निदेशक ने परफॉर्मा में सुधार किया था. हत्या वर्ग के उपवर्ग के रूप में मॉब लिंचिंग को जोड़ा गया था, जिसमें रसूखदार लोगों, खाप पंचायतों, धार्मिक कारणों जैसे मामलों में हुई हत्याओं को शामिल किया गया था. लेकिन नई रिपोर्ट में ऐसे ब्रेकअप नहीं हैं. इतना जरूर है कि कुछ नए सबहेड शामिल किए गए हैं.
जैसे, फेक न्यूज, भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम के तहत मामले, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान के मामले, ऑफिस में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न आदि. इनके अलावा महिलाओं के लिए साइबर दुष्प्रचार एक और उपयोगी वर्ग है, जिसमें सबसे ऊपर महाराष्ट्र का नाम है.
खाप पंचायत में सुनाए गए फैसलों के बाद हुई मौत, मॉब लिंचिग और धार्मिक आधार पर की गई हत्याओं के आंकड़े नीति निर्माताओं और जनता दोनों के लिए फायदेमंद होंगे. इन आंकड़ों को शामिल न किए जाने के बारे में आधिकारिक सफाई दी गई कि राज्यों से मिलने वाले आंकड़े सही नहीं मालूम हुए. लिहाजा गलत आकलन से बचने के लिए उनका इस्तेमाल नहीं किया गया.
कुछ हद तक ये बात सही हो सकती है, क्योंकि कुछेक राज्य हेट क्राइम के कारण किए गए अपराधों के सही आंकड़े उपलब्ध कराने से कतराते हैं. लिहाजा नफरत के कारण अपराधों के आंकड़े सार्वजनिक न करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार, दोनों जिम्मेदार हैं.
आंकड़ों का गहराई से आकलन और विश्लेषण करने से ही सही तस्वीर उभरती है. दिल्ली का उदाहरण लेते हैं, जो प्रदूषित हवा, गंदी राजनीति और अलग-अलग प्रकार के अपराधों से भरी है. राजधानी में 2016 की तुलना में 2017 में अपराधों की संख्या में 11 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. कुल मिलाकर इसे निश्चित रूप से अपराध की राजधानी कहा जा सकता है.
दिल्ली को अपराधों की राजधानी बनाने में अदालतों में दोषी करार दिया जाना, आर्थिक अपराध और महिलाओं और विदेशियों के लिए अपराधों (जिस सूची में दिल्ली सबसे ऊपर है) के आंकड़ों का अहम योगदान है. राजधानी के आपराधिक मानचित्र में इन अपराधों का स्थान है.
NCRB इन अपराधों को वर्गों और उपवर्गों के जरिए दिखाया जा सकता था. ताकि अपराधों के सालाना ट्रेंड के बारे में जानकारी मिले और भविष्य में अपराधों की आशंका से निपटने में मदद मिले. NCRB आंकड़े जमा करने के तरीकों का भी विस्तार कर सकता था, जिसमें दिल्ली के आंकड़ों की दुनिया के अन्य देशों के राजधानियों में अपराध के आंकड़ों के साथ तुलना की जा सकती थी. इस तुलना के जरिए दिखलाया जा सकता था कि हमारी राजधानी दुनिया के कई देशों की राजधानी की तुलना में सुरक्षित है.
इस साल जुलाई में जब ‘Crime in India’ 2017 की रिपोर्ट जारी करने में देरी का मुद्दा संसद में उठाया गया कि तो जवाब दिया गया कि NCRB अपराध के आंकड़े इकट्ठा करने के लिए परफॉर्मा में बदलाव कर रहा है, ताकि जारी किए गए आंकड़े साझेदारों की जरूरतों के मुताबिक हों. लेकिन कुछेक उपयोगी वर्गों के अलावा मोटा-मोटी ये रिपोर्ट भी 2016 की रिपोर्ट के तर्ज पर ही है. लिहाजा एक साल की देरी का कोई मतलब नहीं था. और जहां तक देरी का सवाल है, तो डिजिटल जमाने में देर से दिए गए आंकड़ों का कोई वजूद नहीं रह जाता.
NCRB ने 2016 में हादसों से होने वाली मौतों और खुदकशी (ADSI) की रिपोर्ट जारी नहीं की थी. किसानों की खुदकशी जैसे गंभीर विषय को देखते हुए ये आंकड़े जरूरी थे. इसकी कुछ जवाबदेही राज्य सरकारों पर भी है, जिन्होंने आवश्यक आंकड़े उपलब्ध कराने में देरी की. जबकि इन मामलों में देरी का कोई कारण नहीं बनता है.
लोकतंत्र में संचार में ईमानदारी और पारदर्शिता अनिवार्य हैं. NCRB को सार्वजनिक माध्यम से आंकड़े सामने लाना चाहिए, जिसमें NCRB प्रमुख चौथे स्तम्भ के सामने मुख्य विन्दुओं को उजागर करें और सवालों का जवाब दें. इससे स्पष्टता आती है, जनता में भरोसा पैदा होता है और लोग सुकून की सांस लेते हैं.
(यशोवर्धन आजाद पूर्व आईपीएस अधिकारी और Institute of Peace & Conflict Studies के गवर्निंग काउंसिल के सदस्य हैं. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और इनसे द क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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