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यहां मैं जो कुछ भी लिखूंगा, सच्चे मन से लिखूंगा और अपने सारे पूर्वाग्रहों का खुलासा करते हुए लिखूंगा.
बिहार के बारे में मेरे पूर्वाग्रह हैं. नीतीश कुमार के बारे में भी मेरे पूर्वाग्रह हैं. राजनीति की समझ आने के साथ ही नीतीश कुमार का प्रशंसक बन गया और उनके प्रति ये भाव कम से कम पिछले तीन दशक से तो मेरे साथ ही रहा है.
इसका नमूना देता हूं. शायद बात 1997 की है. मैं एक छोटा रिपोर्टर और वो हाई प्रोफाइल सांसद. संयोग से एक दिन फोन पर बात हुई. खबर की बात के बाद मैंने अपने मन की बात कह ही डाली. मैंने कहा- “सर, बिहार को बदलने के लिए आपके जैसे नेता का मुख्यमंत्री होना बहुत जरूरी है. हम सबकी दुआ तो है ही, साथ ही प्रार्थना है कि आप इस दिशा में ज्यादा काम करें. नीतीश जी ने बातें सुनीं लेकिन कोई रिएक्शन नहीं दिया.’’
दूसरा वाकया 2010 का है. मैं एक बड़े मीडिया समूह में कार्यरत था और अखबार में कॉलम लिखता था. कॉलम के नाम पर एक दिन मैंने नीतीश कुमार को फैन मेल जैसा आलेख लिख दिया. छपने से पहले सहयोगियों की नजर पड़ी तो उन्होंने माथा ठोक लिया. मुझे उस लेख को रिवाइज करने को कहा. साथ ही ये भी कह दिया कि आप पत्रकार हैं, नीतीश कुमार की प्रचार टीम के सदस्य नहीं हैं. कंट्रोल योर इमोशन यार, उन्होंने हिदायत दी.
अपने पूर्वाग्रहों के खुलासे के बाद, अपनी सोच के आधार पर आपको बताता हूं, कुछ ही साल पहले तक बिहार के अजेय ब्रांड रहे नीतीश कुमार को लोगों की बेरुखी क्यों मिली. चुनाव का परिणाम तो जोर से कह रहा है कि भले ही लोगों ने एनडीए को चुना है, लेकिन इसे नीतीश कुमार को फिर से सत्ता देने के लिए मतदान कहना सही नहीं होगा. बिहार में नई नीतीश सरकार के लिए ये फीडबैक जरूरी है.
नीतीश कुमार और उनके समर्थक शायद बिहार के लोगों को एहसान फरामोश समझते हों. एक कचोट तो होगी. राज्य को ग्रोथ दी, कई बड़े रिफॉर्म दिए, लॉ एंड ऑर्डर दुरुस्त किया, एक सरकारी मशीनरी दी जो अब फंक्शनल है, एक इमेज दी और इसके हिसाब से बिहारी होना अब राज्य के बाहर गाली नहीं है. नीतीश के मन में इस तरह की बातें चल रही होंगी.
तो मेरी नजर से समझिए कि लोगों ने पलटी क्यों मारी- ऐसा बिलकुल नहीं है कि विकास दर, साक्षरता में सुधार, लॉ एंड ऑर्डर, बिजली-सड़क-पानी, रोजगार-बेरोजगारी इन मामलों में बिहार ने सबको पछाड़ दिया हो. देश के दूसरे राज्यों की तुलना में अधिकांश पैमानों पर हम पहले भी फिसड्डी थे और 15 साल के नीतीश राज के बाद भी इनमें बदलाव नहीं है.
नीतीश कुमार के 15 सालों में पहले जो अंडरपरफॉर्मेंस हुआ करता था वो रुका. वो हो रहा है जो हर हाल में, हर सरकार के दौरान होना ही चाहिए था. तो नीतीश कुमार का इसे बड़ा योगदान मानेंगे?
लेकिन दो बड़े सुधार हुए. 2006 में फैसला हुआ कि पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटें रिजर्व होंगी. इस फैसले का तत्काल कितना फायदा हुआ इसको कुछ आंकड़ों से समझिए. 2006 में जो इंफेंट मॉर्टेलिटी की दर थी वो अब आधी हो गई है, वही हाल मेटर्नल मॉर्टेलिटी की दर का भी. 2001-2011 की दशक में लड़कियों की शादी की औसत उम्र में जितना बड़ा उछाल आया वो इससे पहले के चार दशक को मिलाकर भी नहीं हुआ था. और 2006 के बाद बिहार की जनसंख्या बढ़ोतरी दर में जिस रफ्तार से गिरावट हो रही है वैसा पहले कभी नहीं हुआ.
सशक्त और शिक्षित आधी आबादी. बड़े बदलाव के लिए जरूरी शर्त. नीतीश जी ने आधार तो बना दिया लेकिन फॉलोअप एक्शन? इनके फायदों के बारे में राज्य में मुहिम चलाने की जरूरत थी. जागरूकता बढ़ाने की जरूरत थी. खूब राजनीतिक पूंजी लगाने की जरूरत थी. नीतीश जी ने ऐसा किया? या फिर इन बड़े बदलावों को महज प्रशासनिक सुधार भर ही रहने दिया? मेरे हिसाब से नीतीश जी थोड़ी कंजूसी कर गए.
महिलाओं ने उन्हें वोट तो खूब दिए. लेकिन कई सकारात्मक परिणाम के बावजूद महिला सशक्तिकरण को राज्य में आंदोलन नहीं बना पाए. अपने पिछड़ेपन से निकलने लिए बिहार के पास ये असरदार रास्ता था. नीतीश जी ने पहल की, मुहिम को आगे नहीं ले गए. इस टर्म में ऐसा होगा?
उनका दूसरा बड़ा योगदान रहा है सोशल इंजीनियरिंग जिसके जरिए उन्होंने बड़े इनोवेशन किए. उनकी सोशल इंजीनियरिंग का ही नतीजा था कि अपने-अपने इलाकों में यादव, ठाकुर, भूमिहार, ब्राह्मण या बनिया की दबंगई खत्म हो गई. सामाजिक बैंलेस की वजह से किसी एक वर्ग का राजनीति और प्रशासन में वर्चस्व कम हुआ और कानून व्यवस्था को लागू करना आसान हुआ. बड़ा इम्प्रेसिव बॉस. फिर भी लोगों ने पलटी क्यों मारी?
एक नेता की बीजेपी उन्हें सालों से पसंद थी, दूसरे नेता की नहीं. इस डिवोर्स के बाद सामाजिक बैलेंस को झटका लगा. 2015 में उन्होंने एक नए गठबंधन में एंट्री ली. सामाजिक ताना बाना फिर से एडजस्ट होने लगा. लेकिन 2017 में फिर झटका. लगातार झटकों के बाद बैलेंस गड़बड़ हो गया है. इसलिए बिहार में आप सुकून सूंघ नहीं पाएंगे. लॉ एंड ऑर्डर के आंकड़ों में शायद ये ना दिखे. स्मेल टेस्ट में दिखेगा.
2005 से 2013 के बीच के नीतीश कुमार और 2013 से 2020 के नीतीश कुमार की तुलना कीजिए. आंकड़ों के जरिए नहीं, स्मेल टेस्ट के आधार पर. 2013 के बाद बिहार में इस बात पर बहस होती है कि रतन टाटा का टाटा ग्रुप की तरफ से राज्य में कब निवेश आएगा और मुकेश अंबानी अपना प्लांट कब लगाएंगे? 2013 से पहले होता है. मुझे याद है. मेरे जैसे लाखों बिहारियों को भी याद है. इसीलिए एक आंकाक्षा जगी. बिहार के टर्नअराउंड की. अपने आंख के सामने बिहार को विकसित होते देखने की.
मेरे अंदर का नीतीश प्रशंसक इससे दुखी है. अपनी लॉएल्टी बदलना तो मुश्किल है. लेकिन उदासीन होना तो एक ऑप्शन हो सकता है.
इसकी संभावना काफी कम है कि नीतीश जी तक मेरी बात पहुंचे. अब जबकि वो नई पारी शुरू कर रहे हैं तो कोई उनको बता दे कि बिहार को उनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें थीं. कुछ उम्मीदें इस बार पूरी होंगी क्या?
(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो इकनॉमी और पॉलिटिक्स पर लिखते हैं. उनसे @Mayankprem पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके निजी हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 16 Nov 2020,11:00 PM IST