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नीतीश कुमार की 'पलटू-राजनीति' को खारिज करने का समय आ गया है

रोहित खन्ना
नजरिया
Published:
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Nitish Kumar 'Paltu-Politics'

(Photo- Altered By Quint Hindi)

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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) उर्फ ​​'पलटू' कुमार ने इतनी बार राजनीतिक पाला बदला है कि दिमाग चकरा जाता है. और इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि भले ही उन्होंने बार-बार दिखाया है कि वह मुख्य रूप से मौके की राजनीति करने के पक्षधर हैं, इसके बावजूद बिहार के लोगों ने नीतीश को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया है. और इस तरह, उन्होंने नौवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली है.

जेडीयू सुप्रीमो, सचमुच नौ जिंदगी पाने वाले राजनीतिक बिल्ली हैं. आइए 'पलटू' कुमार के 'यूटर्न' वाले इतिहास का एक नजर डालते हैं.

जून 2013, 'पलटी नंबर 1': NDA के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी को आगे करने का विरोध करते हुए नीतीश कुमार ने NDA छोड़ दिया. 15 सालों से अधिक समय तक बीजेपी के एक स्थिर सहयोगी रहे नीतीश के गठबंधन से बाहर निकलने को कई लोगों ने सैद्धांतिक स्टैंड के रूप में देखा- ताकी NDA दक्षिणपंथी राजनीति में बहुत आगे न जाए. नीतीश बिहार में कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के समर्थन से अविश्वास मत से बचकर मुख्यमंत्री बने रहे.

जुलाई 2017, 'पलटी नंबर 2': JDU, RJD और कांग्रेस के 'महागठबंधन' ने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव आसानी से जीत लिया था. लेकिन फिर, जुलाई 2017 में, नीतीश ने RJD पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए, लोगों के जनादेश का उल्लंघन किया और गठबंधन से बाहर हो गए. फिर से उन्होंने NDA में 'वापसी' कर दी. उन्होंने देखा कि राजनीतिक लहर किस दिशा में बह रही हैं, उन्होंने नरेंद्र मोदी को एनडीए के नए बॉस और कठोर दक्षिणपंथी राजनीति को स्वीकार कर लिया.

कट्टरपंथी हिंदुत्व कार्यकर्ताओं द्वारा निर्दोष मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या, अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, राम मंदिर का फैसला, नफरत फैलाने वाले भाषणों का अंबार - इनमें से कोई भी नीतीश के 'राजनीतिक सिद्धांतों' पर असर नहीं डालता.

अगस्त 2022, 'पलटी नंबर 3':- नीतीश फिर बेचैन हुए. एनडीए के भीतर, नीतीश के लिए कोई राजनीतिक सीढ़ी उपलब्ध नहीं थी. वह देश के कई सीएम में से सिर्फ एक सीएम थे. बीजेपी के खिलाफ एकजुट विपक्ष की चर्चा जोर पकड़ रही थी. कांग्रेस अब ऐसे किसी भी गठबंधन के स्पष्ट नेतृत्व का दावा नहीं कर सकती. ऐसे में नीतीश के लिए संयुक्त विपक्ष का 'सर्वमान्य' पीएम उम्मीदवार बनने का एक अवसर था. और इसलिए, उन्होंने एक बार फिर बीजेपी को धोखा दिया, लोगों के जनादेश को एक बार फिर खारिज कर दिया ( क्योंकि एनडीए ने 2020 में बिहार चुनाव जीता था) और एनडीए से बाहर हो गए. कुछ ही दिनों के भीतर वे फिर से मुख्यमंत्री बने, लेकिन महागठबंधन सरकार में. अब तक वह एक प्रामाणिक 'पलटू राम' बन चुके थे.

और इस तरह, हम जनवरी 2024 पहुंचे, 'पलटी नंबर 4': 'इंडिया' गठबंधन लड़खड़ा रहा है. और किसी भी स्थिति में, इंडिया गठबंधन के 'पीएम उम्मीदवार' के रूप में नीतीश के बारे में लगभग कोई चर्चा नहीं थी. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बीजेपी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में राज्य चुनाव की जीत और राम मंदिर की उद्घोष और तमाशे के दम पर फिर से उभर रही है. बीजेपी ने कर्नाटक में जेडी(एस) के साथ जगन रेड्डी को भी अपनी तरफ कर लिया है और शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बाद एनडीए ने महाराष्ट्र में भी अपनी खोई हुई जमीन वापस पा ली है. लचीले 'पलटू' के लिए यह एक आसान काम था. वह एक बार फिर RJD पर भ्रष्ट और अयोग्य सहयोगी होने का आरोप लगाते हुए महागठबंधन से बाहर हो गए. उन्होंने इस्तीफा दे दिया और रविवार को कुछ घंटों के भीतर फिर से बिहार के सीएम के रूप में शपथ ली.

नीतीश के समर्थक दावा कर सकते हैं कि वह 2020 के बिहार चुनाव के लोगों के जनादेश का सम्मान कर रहे हैं, और उस राजनीतिक साथी के पास लौट रहे हैं जिसके साथ उन्होंने वह चुनाव जीता था, लेकिन फिर उन्होंने 2022 में उसी जनादेश को बर्बाद क्यों कर दिया?

और जैसा कि ऊपर बताया है, उन्होंने 2017 में भी लोगों के जनादेश की आसानी से अनदेखी की थी.

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अब 'पलटू-पॉलिटिक्स' सामान्य है

ये जो इंडिया है ना, यहां 'पलटू-पॉलिटिक्स' यानी अवसरवाद की राजनीति अब सामान्य है.

हमारे कानून राजनीतिक ताकतों और समूहों को सरकार के कार्यकाल के बीच में भी अलग तरह से एकजुट होने की अनुमति देते हैं. लेकिन उम्मीद यह थी कि ऐसा पाला-बदल महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर किया जाएगा. सैद्धांतिक रूप में, भारत के 'दल-बदल विरोधी कानून' सख्त हैं. यह कानून कहता है कि कोई पार्टी तब तक विभाजित नहीं हो सकती और न ही राजनीतिक गठबंधन से बाहर निकल सकती है जब तक कि उसके निर्वाचित विधायकों या सांसदों में से कम से कम 2/3 इस फैसले के पक्ष में न हों. लेकिन दुर्भाग्य से, हमारे राजनेता कानूनों का दुरुपयोग करने और उन्हें नष्ट करने में कामयाब रहे हैं. पैसे का लालच, मंत्री पद का लालच और भविष्य में चुनावी टिकटों के आश्वासन ने सिद्धांतों और बहस की राजनीति को बस नंबर गेम की संशयपूर्ण राजनीति से बदल दिया है.

विधायकों को दूसरे राज्यों में ले जाने, उन्हें बसों में ठूंसने और दूरदराज के लक्जरी होटलों और रिसॉर्ट्स में बंद करने का नाटक अब समाचार चैनलों पर चिर-परिचित 'मनोरंजन' बन गया है. विभिन्न राजनीतिक दल 'रिसॉर्ट पॉलिटिक्स' का यह खेल खेलने के लिए तैयार हैं. हमें इस बात का अहसास नहीं है कि जब भी ऐसा होता है तो भारत का सिर शर्म से झुक जाता है. ऐसे समय में हम एक 'बनाना रिपब्लिक' की तरह दिखते हैं, किसी परिपक्व लोकतंत्र (मैच्योर रिपब्लिक) की तरह नहीं.

दुर्भाग्य से, ऐसे राज्यपालों और विधानसभा अध्यक्षों की संख्या बढ़ी है जो किसी एक तरफ से बल्लेबाजी करने के लिए उपलब्ध दिखते हैं. वे अपने तटस्थ पदों को छोड़ने के लिए तैयार दिखते हैं, वे अपनी सीमाओं से आगे बढ़ने और अपनी विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग करने के लिए तैयार दिखते हैं. इससे राज्य स्तर की राजनीति और अधिक खराब हो गई है.

यह भी ख्याल रहे कि भले ही नीतीश कुमार 'पलटू' राजनीति के प्रतीक हैं, लेकिन वह यहां अकेले नहीं हैं. निश्चित रूप से, जो राजनीतिक दल हर बार उनका स्वागत करते हैं, वे आसानी से भूल जाते हैं कि कुछ समय पहले तक नीतीश उनका राजनीतिक अपमान कर रहे थे, वे भी इस 'पलटू' संस्कृति के लिए दोषी हैं. जब नीतीश दूसरी तरफ थे तो बीजेपी, कांग्रेस और आरजेडी के मन में उनके लिए कोई प्यार नहीं था, लेकिन जब भी वे एक साथ वापस आए तो सब कुछ 'भूला' दिया गया.

अवसर की राजनीति, परफॉरमेंस की नहीं

आइए हम यह भी पूछें कि क्या 'पलटू-राजनीति' से बिहार को फायदा हुआ? जवाब है नहीं. चाहे वह गरीबी हो, भुखमरी हो, शिक्षा हो, आय स्तर हो या स्वास्थ्य हो. इन सभी प्रमुख क्षेत्रों में बिहार बाकि भारत से पीछे है. नीतीश कुमार पिछले 19 वर्षों में से 18 वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं. वे बिहार के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले मुख्यमंत्री हैं, निश्चित रूप से वह जवाबदेह हैं. बिहार को उसके पुराने पिछड़ेपन से बाहर निकालने के लिए उनके पास लगभग 20 साल थे, लेकिन उन्होंने बहुत कम उपलब्धि हासिल की है.

क्यों? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने प्रदर्शन की राजनीति के बजाय संख्या और अवसर की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया है?

क्यों? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने परफॉरमेंस की राजनीति के बजाय संख्या और अवसर की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया है?

अब यह स्थिति मतदाताओं के पास यानी जनता के पास सवाल ले जाता है- हम इन पलटू-कुमारों और पलटू-पवारों को वोट देकर 'इनाम' क्यों देते हैं? (यहां अजीत पवार की बात हो रही है, जो कुख्यात रूप से 2019 और 2023 में दो बार बीजेपी में 'अलग होकर चले गए' थे.)

ऐसा करके, हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि वे कभी न सीखें. ऐसा करके, हम यह सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने राजनीतिक वादों को पूरा न करके भी परेशान न हों.

हम सरकार समर्थित मीडिया (उर्फ 'गोदी' मीडिया) को इन दिनों यह बोलते बहुत सुनाते हैं कि भारत 'लोकतंत्र की जननी' है. लेकिन निश्चित रूप से 'पलटू-राजनीति', जिसे स्पष्ट रूप से खुद बीजेपी द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है, लोकतंत्र का मखौल है. नीतीश कुमार का मामला इसका सबसे ताजा उदाहरण है.

ये जो इंडिया है ना... यहां, 2024 के चुनाव से कुछ महीने पहले, आइए अवसर की राजनीति को योग्यता की राजनीति से बदलें.

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