advertisement
क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की 'अंतरात्मा' एक बार फिर उन्हें पाला बदलने के लिए प्रेरित करेगी? या बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और बीजेपी के बीच मौजूदा राजनीतिक तनातनी खत्म हो जाएगी?
नीतीश की पहचान ऐसे राजनेता के तौर पर नहीं है, जो आनन-फानन में या जल्दबाजी में कोई निर्णय लेता है. इसलिए उनका कदम अनिवार्य रूप से इस बात पर निर्भर करेगा कि वर्तमान में उनके पास क्या-क्या विकल्प हैं. इसके साथ ही यह इस पर निर्भर करेगा कि अन्य पार्टियां, विशेष तौर पर बीजेपी, आरजेडी और कांग्रेस उन्हें क्या ऑफर करने को तैयार हैं.
इसका मलतब होगा 2015-17 के दौर वाले गठबंधन में वापसी, जिसमें नीतीश कुमार की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस के साथ थी. सीपीआई-एमएल, सीपीआई और सीपीआई (एम) जैसे वाम दल अभी भी उस महागठबंधन का हिस्सा हैं.
हालांकि, महागठबंधन में वापस जाना नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि 2015-17 के बाद से काफी कुछ बदल गया है और इसके लिए मुख्य तौर पर वह खुद दोषी हैं.
जिस तरह से 2017 में उन्होंने एनडीए की तरफ पाला बदला था, उसे देखते हुए महागठबंधन की पार्टियों के बीच नीतीश कुमार को लेकर विश्वास में काफी कमी है.
2017 की तुलना में JD(U) काफी कमजोर पार्टी है. उस समय उसके पास 71 सीटें थीं, अब उसके पास सिर्फ 45 सीटें हैं. वहीं दूसरी ओर आरजेडी मजबूत हुई है उसके पास फिलहाल 80 सीट हैं.
सत्ता विरोधी लहर नीतीश कुमार के खिलाफ पहले की तुलना में कहीं ज्यादा मजबूत है. इसलिए आरजेडी के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन करना फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसानदायक हो सकता है. क्योंकि समर्थन का मतलब यह होगा कि उन्हें भी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा.
हालांकि JD(U) के अंदरूनी सूत्र इन बातों को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि आरजेडी की सौदेबाजी की ताकत उसके नेताओं को हिरासत में लेने की संभावना से सीमित है.
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि बीजेपी नीतीश कुमार का कद छोटा करने की कोशिश कर रही है. जिस तरह से चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी ने विधानसभा चुनावों के दौरान जेडी(यू) को हराने के लिए अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जबकि बाकी राज्य में बीजेपी का समर्थन किया था, वह बीजेपी के प्लान का स्पष्ट संकेत था.
इस प्लान ने कुछ हद तक काम किया क्योंकि इसकी वजह से जेडी(यू) की सीटों में भारी गिरावट आई, वहीं बीजेपी 77 सीटों पर पहुंच गई.
जेडी(यू) के एक वरिष्ठ नेता ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि "शिवसेना वाला सबक हमें सिखाने की जरूरत नहीं है. हम पहले से जानते हैं कि उनका अंतिम लक्ष्य जेडी(यू) को खत्म करना है. लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार को कम आंक लिया. वह उद्धव ठाकरे नहीं हैं."
हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार का विरोध करना बीजेपी का उतावलापन हो सकता है. 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार ने एनडीए को भारी जीत दिलाई, यहां गठबंधन ने 40 में से 39 सीटों पर कब्जा किया था.
नीतीश कुमार को इस समय परेशान या नाराज करने का मतलब उन्हें महागठबंधन की ओर धकेलना होगा. आरजेडी का मुस्लिम-यादव बेस, कुर्मी, अति पिछड़ा वर्ग और महादलितों के बीच जेडी(यू) का समर्थन और कांग्रेस के साथ सीपीआई-एमएल के प्रभाव वाले क्षेत्र, इसे एक मजबूत गठबंधन बनाते हैं, जो एनडीए को नुकसान पहुंचा सकता है.
इसलिए अभी बीजेपी के साथ शांति बनाने से नीतीश कुमार को सीएम के तौर पर दो साल और मिल जाएंगे. लंबे समय के लिए यह उनके लिए विश्वसनीय विकल्प नहीं है.
यह एक अधिक जोखिम भरा प्लान है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. इसमें शामिल है नीतीश कुमार का निकट भविष्य में बीजेपी का दामन छोड़ देना, तेजस्वी को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर समर्थन करना और गैर-एनडीए मोर्चे के एक अहम नेता के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में आना.
कुछ मायनों में यह नीतीश कुमार के लिए दिलचस्प विकल्प लगता है. क्योंकि सब कुछ कहने और करने के बाद वे बिहार की राजनीति में अपना चरम बिंदु हासिल कर चुके हैं. वह अब 2005, 2010 या 2015 के सुशासन बाबू नहीं हैं. जेडी(यू) कमजोर हो गई है और उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता में भी गिरावट आयी है.
नीतीश कुमार के अस्तित्व को अभी भी जो तथ्य सुनिश्चित कर रहा है वह यह है कि अभी भी कई मतदाता (खास तौर पर गैर-यादव ओबीसी और महादलित) यह महसूस करते हैं कि उनकी आवाज को उच्च जाति-प्रभुत्व वाली बीजेपी और यादव-प्रभुत्व वाली आरजेडी के एकमुश्त प्रभुत्व की तुलना में नीतीश के साथ ज्यादा बल मिल सकता है. हालांकि, यह पकड़ भी कमजोर हुई है. वहीं दूसरी ओर बीजेपी और आरजेडी मजबूत हो गई हैं.
इसलिए बीजेपी और आरजेडी द्वारा अपरिहार्य रूप से दरकिनार किए जाने से बेहतर यह होगा कि वे राष्ट्रीय राजनीति की तरफ सम्मानजनक कदम बढ़ा लें.
वर्तमान में, एकमात्र पार्टी जो नीतीश कुमार को राष्ट्रीय राजनीति में सम्मानजनक स्थान दे सकती है, वह कांग्रेस है.
जिस किसी भी वजह से नीतीश कुमार और कांग्रेस के बीच बातचीत टूट गई और बाकी, जैसा कि हम जानते हैं, इतिहास है.
हालांकि, अभी भी इसका एक संशोधित संस्करण संभव है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि नीतीश कुमार और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच वार्ता का एक द्वार खुल गया है.
चाहे वह कांग्रेस के साथ विलय के माध्यम से हो या कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा बनकर, नीतीश कुमार का राष्ट्रीय कदम भव्य पुरानी पार्टी के माध्यम से ही हो सकता है. क्योंकि इसके अलावा उनके पास बीजेपी और आरजेडी में महत्वपूर्ण लेकिन जूनियर भागीदार होने का चुनाव बचता है.
कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि आरजेडी के साथ पार्टी के समीकरण में हुए हालिया उतार-चढ़ाव के कारण, इस बार पार्टी नेतृत्व नीतीश कुमार के साथ बातचीत में अधिक "फ्लेक्सिबल" है.
कांग्रेस के एक वर्ग को यह लगता है कि आरजेडी की तुलना में जेडी(यू) पार्टी के लिए बेहतर सहयोगी है.
कांग्रेस के एक सूत्र जिसने बिहार में पार्टी के मामलों को करीब से देखा है, उसने कहा कि "हमें यह मानना होगा कि कांग्रेस ने आरजेडी के साथ गठबंधन करके और आरजेडी शासन के दौरान यादवों के व्यवहार के कारण उच्च जाति और यहां तक कि कुछ दलित समर्थन भी खो दिया. नीतीश कुमार नरम प्रकार के नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते है, जोकि ओबीसी, उच्च जातियों, दलितों और मुसलमानों को भी साथ लेकर चल सकते हैं. बिहार में आरजेडी की तुलना में कांग्रेस और नीतीश कुमार में अधिक समानता है."
हालांकि अभी यह देखा जाना बाकी है कि नीतीश कांग्रेस से क्या मांगेंगे और क्या कांग्रेस जो वो मांगेंगे वह देने की स्थिति में है.
फिलहाल बीजेपी और आरजेडी नीतीश कुमार के अगले कदम का इंतजार कर रही है. इस बात पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा कि नीतीश कुमार में कितनी हिम्मत है और साथ ही अपनी पार्टी पर उनका नियंत्रण कितना है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 09 Aug 2022,08:50 AM IST