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आखिरकार केंद्र सरकार ने यह मान लिया कि देश में 2011 से जो जाति जनगणना चल रही थी, और जिस पर देश के खजाने के 4,893 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, उसके आंकड़े कभी नहीं आएंगे. सरकार ने अब घोषणा की है कि 2021 में प्रस्तावित जनणगना में वह ओबीसी का आंकड़ा जुटाएगी.
इससे पहला जनगणना का एक और चरण होता है, जिसमें घरों के आंकड़े जुटाए जाते हैं. यह काम जनगणना कमिश्नर का दफ्तर कराता हैं जो भारत के रजिस्ट्रार जनरल भी होते हैं. टेक्नॉलॉजी और ट्रांसपोर्ट के साधन जब कम विकसित थे, तब भी, अंग्रेजों के समय में भी यह काम 20 दिन में ही पूरा कर लिया जाता था. पूरे देश की आबादी को गिनने का जो काम सौ साल पहले 20 दिन में पूरा हो जाता था, वह काम यूपीए और एनडीए की सरकारें सात साल में क्यों नहीं पूरा कर पाई, यह गहन शोध का विषय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्तमान सरकार या आने वाली सरकार कभी इसकी जांच कराएगी कि 4,900 करोड़ रुपए खर्च करके जातियों की जो गिनती की गई, उसके आंकड़े क्यों नहीं आए और आखिर वह रुपया गया कहां.
भारत में पहली जनगणना 1872 में हुई और 1881 के बाद से हर दस साल पर जनगणना हो रही है. भारत में 1931 तक हर जातियों की गिनती होती थी. जनगणना की रिपोर्ट में हर जाति की संख्या और उसकी शैक्षणिक, आर्थिक हालत का ब्यौरा होता था. 1941 की जनगणना में भी जाति का कॉलम था, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के जारी होने के कारण इस जनगणना का काम सुचारू रूप से नहीं हो पाया और आंकड़े नहीं आए. इसलिए आज भी जाति के किसी भी आंकड़े की जरूरत होती है तो 1931 की जनगणना रिपोर्ट का ही हवाला दिया जाता है. 1931 की जनगणना के आधार पर ही द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसदी बताई थी और उसके लिए आरक्षण की सिफारिश की थी.
आजादी के बाद, तत्कालीन नेहरू सरकार ने फैसला किया था कि जनगणना में जाति की गिनती बंद कर दी जाए. तब शायद यह माना गया था कि भारत ने एक आधुनिक शासन प्रणाली अपना ली है, जहां हर व्यक्ति कानून की नजर में बराबर है और हर वोट की बराबर कीमत है, इसलिए जाति का उन्मूलन हो जाएगा. इसलिए 1951 की जनगणना में जातियों की गिनती नहीं हुई. हालांकि इस जनगणना और उसके बाद की हर जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को गिना गया क्योंकि संविधान के मुताबिक इन दो समूहों को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाना था और इसके लिए इनकी संख्या जानने की जरूरत थी. तब से लेकर, 2011 तक किसी भी जनगणना में जातियों की समग्र गिनती नहीं हुई है.
मंडल कमीशन ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि अगली जो भी जनगणना होने वाली है, उसमें जातियों के आंकड़े जुटा लिए जाएं. मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद पहली जनगणना 2001 में प्रस्तावित थी. 1997 में तत्कालीन एचडी देवेगौड़ा सरकार ने 2001 की जनगणना में जाति को शामिल करने का फैसला कर लिया था. लेकिन ये सरकार गिर गई और उसके बाद आई अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जाति की गिनती न कराने का फैसला किया. 2011 में जाति की गिनती के नाम पर जो बेवजह और महंगा तमाशा हुआ, उसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है.
2011 में जनगणना में जाति को शामिल करने के लिए देश भर में मांग हो रही थी. दिल्ली में इस आंदोलन की अगुवाई जनहित अभियान कर रहा था. इसके तहत देश में कई सर्वदलीय सम्मेलन किए गए और जनमत निर्माण किया गया. 2010 में संसद के बजट सत्र में लोकसभा में इस बात पर आम सहमित बनी थी कि 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल किया जाए. कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही वामपंथी दलों और तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों ने इस बात का समर्थन किया कि जनगणना में जाति को शामिल करना अब जरूरी हो गया है और 2011 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल कर लिया जाए.
संसद में हुई बहस के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि “लोकसभा की भावना से सरकार वाकिफ है और इस बारे में कैबिनेट फैसला करेगी.” उनकी इस घोषणा का लोकसभा में जोरदार स्वागत हुआ और इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया.
लेकिन यूपीए सरकार दरअसल जाति जनगणना कराना नहीं चाहती थी. उसने इस मामले पर विचार करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों के एक समूह का गठन कर दिया. इस समूह में शामिल केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने 2011 की जनगणना में जाति को शामिल करने का विरोध किया और कहा कि जातियों की गिनती जनगणना में नहीं, बल्कि अलग से कराई जाएगी. 2011 की जनगणना में जाति को शामिल न करने का फैसला करते ही यह तय हो गया कि जाति के आंकड़े नहीं आएंगे क्योंकि ऐसे आंकड़े सिर्फ जनगणना में ही आ सकते हैं. जनगणना का काम जनगणना अधिनियम के तहत होता है और जनगणना कमिश्नर को ही इस तरह के काम करने का अनुभव होता है. जरूरी प्रशासनिक ढांचा भी इसी संगठन के पास होता है.
2011 से शुरू हुई जातियों की गिनती का काम जनगणना कानून के तहत नहीं किया गया. इसे जनगणना कमिश्नर के तहत न कराके ग्रामीण और शहरी विकास मंत्रालय को सौंप दिया गया और राज्य सरकारों को भी इसमें शामिल कर लिया गया. यह काम सरकारी शिक्षकों ने नहीं, बल्कि अनुभवहीन दैनिक मजदूरों, आंगड़बाड़ी कार्यकर्ताओं और एनजीओ ने किया.
अब सरकार 2021 की जनगणना में ओबीसी का डाटा जुटाने की बात करके वैसी ही एक गलती कर रही है, जिसकी वजह से भारतीय समाज के आंकड़े नहीं आ पाएंगे.
जनगणना का मकसद भारतीय समाज की विविधता से जुड़े तथ्यों को सामने लाना है, ताकि देश को समझने का रास्ता खुल सके. इन आंकड़ो का इस्तेमाल नीति निर्माताओं से लेकर समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, जनसंख्याविद और आंकड़ाविज्ञानी करते हैं. जनगणना में अगर तमाम जातियों के आंकड़े जुटाए जाएं तभी जनगणना का उद्देश्य पूरा होता है. समाज के हर हिस्से के बारे में जाने बगैर नीतियां बनाना दरअसल एक अंधेरी सुरंग की यात्रा है. सिर्फ ओबीसी की गिनती में कई तरह की दिक्कतें आएंगी.
हालांकि अब तक ऐसा किया नहीं गया है. कुल मिलाकर ये सूचियां स्थिर नहीं हैं. इसके अलावा राज्य सरकारें अपने राज्यों में पिछड़ी जातियों की लिस्ट अलग से बनाती हैं. कई जातियां जो राज्यों में पिछड़ी जातियों में हैं, वे केंद्रीय सूची में नहीं हैं. जाट इसके लिए ही आंदोलन कर रहे हैं क्योंकि वे कई राज्यों में पिछड़ी जातियों में हैं, लेकिन केंद्रीय सूचि में नहीं हैं. कई जातियां एक राज्य में ओबीसी हैं और दूसरे राज्य में नहीं हैं. इसलिए जब गिनती करने वाला किसी के दरवाजे पर जाएगा तो वह व्यक्ति ओबीसी है या नहीं, यह तय कर पाना बेहद जटिल होगा. कई राज्यों में पिछड़ी जातियों में कैटेगरी भी बनी हुई है. इसलिए आंकड़े जुटाने का आधार अगर ओबीसी होने को बनाया जाएगा तो आंकड़ों में बेशुमार गलतियां होंगी.
साथ ही जनगणना का उद्देश्य अगर समाज की विविधतापूर्ण सच्चाई और तथ्यों को सामने लाना है तो अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी के साथ ही सवर्ण समूह में शामिल जातियों की भी गिनती आवश्यक है. क्या आप अमेरिका में ऐसी जनगणना की कल्पना कर सकते हैं जिसमें ब्लैक, लैटिनो, एशियन और नैटिव अमेरिकन तो गिने जाएं, लेकिन श्वेत लोगों की गिनती न हो? या क्या दक्षिण अफ्रीका की जनगणना में अश्वेत लोगों को छोड़कर बाकी लोगों की गिनती की जा सकती है? या क्या यह संभव है कि भारतीय जनगणना में धर्मों की जो गिनती होती है, उसमें किसी एक धर्म को छोड़ दिया जाए?
जनगणना के आंकड़े सिर्फ तथ्य होते हैं. इनकी अपनी कोई राजनीति नहीं होती. इन आंकड़ों से नीतियां बनाने में मदद मिलती है. इसलिए हर दस साल पर होने वाली इस कवायद में ज्यादा से ज्यादा आंकड़े जुटा लिए जाने चाहिए.
इस समय 2021 की जनगणना की तैयारियां चल रही हैं. अगर 2021 में जातियों की गिनती नहीं हुई, तो इसका अगला मौका आज से 13 साल बाद 2031 मे आएगा. तब तक भारत में जातियों के आंकड़े 100 साल पुराने हो चुके होंगे (क्योंकि आखिरी जाति जनगणना 1931 में हुई थी). इतने पुराने आंकड़ों पर एक आधुनिक देश की विकास की यात्रा कैसे मुमकिन होगी?
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Published: 02 Sep 2018,01:16 PM IST