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यह सब कुछ बहुत सिंपल रहने की आस थी..
एडवर्ड लुटियंस और हर्बर्ट बेकर, जहां तक इन दोनों में से कोई एक भी याद रखना चाहे, दोनों दोस्त थे. फिर सहकर्मी बने, लेकिन भारत में एक तिनके ने इनकी दोस्ती की डोर को हिला दिया... और वो था दिल्ली का डिजाइन. इन्हें ब्रिटिश राज की राजधानी दिल्ली (Delhi) को डिजाइन करने का मौका मिला था.
इस डिजाइन का एक हिस्सा था गवर्नमेंट हाउस (राष्ट्रपति भवन) और उसके दो सरकारी सेक्रेटेरियट यानि नॉर्थ और साउथ ब्लॉक. इन दोनों में से कोई भी इस बात का अंदाजा नहीं लगा पाया कि भारत के संवैधानिक सुधार का उनकी दोस्ती पर क्या असर पड़ने वाला है.
भारत सरकार अधिनियम (1919) के पारित होने से भारत के लिए दो सदनों वाली विधायिका का प्रावधान किया गया. इसका मतलब एक नई इमारत बनाई जानी थी, जिसमें तीन चेंबर होने थे. काउंसिल ऑफ स्टेट्स, चेंबर ऑफ प्रिंसेस और असेंबली.
नई इमारत (संसद भवन) के डिजाइन को लेकर इन दोनों की एक दूसरे से नाराजगी किसी पौराणिक किस्से जैसी हो गई, जो रायसीना हिल्स के इतिहास में गुंथी हुई है.
अपने समय में, इस डिजाइन पर बहस ने लंदन में हाउस ऑफ कॉमन्स को भी हिलाकर रख दिया था, एडविन मोंटेग्यू (तत्कालीन भारत के वायसरॉय) को लंदन में संसद के नाराज सदस्यों को तुरंत आश्वस्त करना पड़ा था कि उन्हें इस बात की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है कि संसद सदस्य जब नई बिल्डिंग के काउंसिल ऑफ चेंबर्स में जाएंगे तो उनको अचानक से सीढ़ियों पर ‘वायसराय के नौकरों’ का सामना करना पड़ेगा.
लेकिन बिल्डिंग को लेकर कंस्ट्रक्शन साइट के संग्राम को अगर छोड़ दिया जाए तो पिछले 75 साल में संसद भवन भारत के इतिहास का गवाह रहा है. इस भवन के शानदार आर्किटेक्चर यानि वास्तुकला को लेकर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन वो भी इसकी लीगेसी यानि विरासत के करीब नहीं है. शानदार आर्किटेक्टर इसकी विरासत का कोई पैमाना हो नहीं सकता.
कम से कम संसद भवन एक ऐसा मंच रहा है कि जो ना सिर्फ सत्ता के हस्तांतरण और आजादी का गवाह है बल्कि संवैधानिक और राजनीतिक सुधारों का भी गवाह रहा है.
यह न केवल संप्रभुता, संघवाद, राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता पर अंतहीन बहसों का गवाह है, बल्कि उन कागजी कार्यवाहियों का भी गवाह है जो आवश्यक रूप से उन बहसों के साथ जुड़ी होती हैं.
साल 1927 से 1947 तक, यह इमारत इंपीरियल विधानपरिषद थी. विरोध प्रदर्शन के तौर पर 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के फेंके बम ने इस इमारत की नींव हिलाकर रख दी. यह इतिहास में शायद पहली बार था कि जब क्रांति ने संसद हॉल में प्रवेश किया.
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA ) के सौजन्य से केंद्रीय विधान सभा के आक्रोशित सदस्यों पर लाल पर्चे फेंके, जिन पर संदेश लिखा था- 'बहरों को सुनाने के लिए घमाकों की आवाज की जरूरत होती है.
1947 में भारत की आजादी की पूर्व संध्या पर, जैसे ही घड़ी की सुई आधी रात की ओर बढ़ी, जवाहरलाल नेहरू ‘नियति के साथ भारत की मुलाकात’ (ट्रिस्ट विद डेस्टिनी) के बारे में अपना प्रसिद्ध भाषण देने के लिए खचाखच भरे सेंट्रल हॉल में संविधान सभा के सामने खड़े हुए. नेहरू ने राष्ट्र से कहा,
संसद भवन उस मार्मिक क्षण की पृष्ठभूमि की तरह था जब भारत आखिरकार उपनिवेशवाद की बेड़ियों से आजाद हुआ. अगले कुछ दशकों में, यह दूसरे महत्वपूर्ण मील के पत्थर का मंच बना.
उदाहरण के लिए, यह मौलिक अधिकारों, सिद्धांतों और कर्तव्यों के पेचीदा विषयों पर जोशीले बहस का गवाह बना. इसमें दशकों से भारत के नेताओं के हास्य, क्रोध, आक्रोश और दुख की गूंज मौजूद है. यहीं पर किसी मॉडर्न स्टेट यानि आधुनिक देश को चलाने वाली रूल बुक यानि संविधान का मसौदा तैयार किया गया था और इसके अस्तित्व पर हस्ताक्षर किए गए. पिछले कुछ वर्षों में, संसद के इस हॉल में देश के बढ़ते लोकतंत्र और तकलीफों के लिए भी जगह बनती गई.
उदाहरण के लिए चेंबर ऑफ प्रिंसेस को जब चेंबर सत्र में नहीं होता था तो इसका इस्तेमाल संघीय न्यायालय (जो सुप्रीम कोर्ट से पहले था) के रुप में कराया गया . स्वतंत्रता के बाद, इस कक्ष का उपयोग भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने किया. 1950 से 1958 तक सुप्रीम कोर्ट यहीं से चला. 1951-52 में पहले आम चुनावों के बाद 450 नए सांसदों को जगह देने के लिए इसके फ्लोर एरिया को बढ़ाया गया.
जैसे-जैसे लोकसभा की ताकत बढ़ती गई, वैसे-वैसे जगह की जरूरतें भी बढ़ती गई, जिससे अक्सर कुछ असहाय सांसदों को हॉल में खंभों के पीछे बैठना पड़ता था. यहीं, संसद में, भारत के नेताओं ने संविधान, युद्ध और विदेश नीति, राज्यों के पुनर्गठन, राष्ट्रीय भाषा, सांप्रदायिक दंगों और अकाल, सीमा विवाद और सामाजिक न्याय, आपातकाल, प्रेस सेंसरशिप और आतंकवाद पर बहस की.
ये तब आधुनिक राजनीति और जियोपॉलिटिक्स की आधारशिला थे. ये सब उस गोलाकार इमारत की दीवारों के भीतर हुआ था जिसे एडविन लुटियंस ने विजयी भाव से डिजाइन किया था. इसी से हर्बर्ट बेकर और उनकी सौंदर्य संबंधी संवेदनाएं आहत हुई थी.
अब ये भवन संविधान सभा के तौर पर जाना जाएगा और रिपोर्ट्स के मुताबिक ‘संसद संग्रहालय’ की तरह यह संचालित होता रहेगा.
लेकिन सच तो यह है कि संसद भवन को कभी भी अतीत का अवशेष बनाकर नहीं छोड़ा जा सकता. इसकी विरासत, जैसा कि मैंने शुरुआत में लिखा था, को किसी पैमाने से मापना मुश्किल है. ऐसा सिर्फ उस इतिहास के विशाल पैमाने और दायरे की वजह से नहीं, जिसकी मेजबानी या गवाह संसद भवन रहा है.., बल्कि इसलिए कि जिन मूल्यों से यह देश बना उनको किसी कमोडिटी में बदलना कठिन है.
मंगलवार को सांसदों को नए भवन में ले जाने से पहले, पुराने भवन से अपने आखिरी भाषण में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए बहुत कुछ स्वीकार किया कि "इस घर (पुराने संसद भवन) की महिमा कभी कम नहीं होनी चाहिए".
1947 में, जवाहरलाल नेहरू ने देश से कहा, “और इसलिए, हमें अपने सपनों को साकार करने के परिश्रम करना होगा... कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.. वे सपने भारत के लिए तो हैं ही, विश्व के भी हैं”.
2023 में, संसद भवन एक पर्मानेंट रिमाइंडर के तौर पर हमारे सामने खड़ा है... सत्ता और सरकारों से सवाल किया जाना चाहिए और बहस होनी चाहिए... आखिरकार, इन दीवारों ने 96 वर्षों से इस देश के लोगों की, नागरिकों की आवाजें सुनी हैं.
इसलिए, पुराने संसद भवन की सच्ची विरासत हमेशा लोकतंत्र की नियति के साथ मुलाकात ही रहेगी.
(नारायणी बसु एक इतिहासकार और वीपी मेनन: द अनसंग आर्किटेक्ट ऑफ मॉडर्न इंडिया और एलेग्यन्स: आजादी एंड द एंड ऑफ एम्पायर की लेखिका हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार राइटर के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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