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'एक देश,एक चुनाव', 'भारत-इंडिया' की बहस के बीच क्यों याद आए पूर्व राष्ट्रपति नारायणन

KR Narayanan ने अपने संवैधानिक कर्तव्य के लिए काम किया, न कि सिर्फ दी गई राजनीतिक उपाधि या प्रतीकवाद के लिए.

रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>केआर नारायणन: एक ऐसे राष्ट्रपति जिन्होंने देश को बांधने और शासन करने का काम किया</p></div>
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केआर नारायणन: एक ऐसे राष्ट्रपति जिन्होंने देश को बांधने और शासन करने का काम किया

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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राष्ट्रपति भवन से एक के बाद एक आई दो खबरों पर नजर डालते हैं -

  • पहली, G20 डिनर के न्योते में ‘भारत के राष्ट्रपति’ (President of Bharat) लिखा होना

  • दूसरी ‘एक देश, एक चुनाव’ पर बने एक पैनल की अध्यक्षता एक पूर्व राष्ट्रपति करेंगे.

इन खबरों ने मेरी उस शख्सियत के साथ नौकरी करने को लेकर निजी यादें फिर से ताजा कर दीं, जिन्होंने निडरता से संविधान की पवित्रता और हिफाजत के लिए आवाज उठाई थी– मैं बात कर रहा हूं केआर नारायणन (KR Narayanan) की.

बात उस समय की है जब मुगल गार्डन को उसी नाम से जाना जाता था. राष्ट्रपति नारायणन के साथ चलते हुए (जिसके लिए उन्होंने जोर दिया था), उन्होंने आलीशान राष्ट्रपति भवन के सामने विशाल खंभे पर एक शानदार शिलालेख के बारे में मुझे बताया. मुझे उनके सैन्य सचिव होने के तौर पर कायदे से उस पर उकेरी गई बातों के बारे में पता होना चाहिए था. लेकिन मुझे सिर्फ उस शानदार क्रीम कलर के बलुआ पत्थर के खंभे, यानी जयपुर कॉलम, के बारे में पता था जिसका वह जिक्र कर रहे थे.

‘सर’, निर्विवाद रूप से भारत की सभ्यता और संवैधानिक समझ के सबसे प्रतिष्ठित विद्वान थे. उन्होंने करीने से उन शब्दों के मायने, संदर्भ और उसके पीछे के विचार के बारे में बताना शुरू किया.

“अपने विचारों पर यकीन हो, शब्दों का ज्ञान हो, कर्म में साहस हो, जीवन में सेवाभाव हो, तभी भारत महान बनेगा.” रात में नाविकों को दिशा बताने वाले ध्रुव तारे की तरह 15वें राष्ट्रपति के सधे हुए शब्द मानो उनकी सोच, व्यवहार और पद की जिम्मेदारियों को भी परिभाषित कर रहे थे.

संवैधानिक जांच के लिए राष्ट्रपति की आवाज की भूमिका

'जयपुर कॉलम' नीचे की इमारतों और रायसीना पहाड़ी पर बने घर के बीच के फर्क को बताता है, जिसमें ‘राष्ट्र की आत्मा के रक्षक’ रहते हैं, और नीचे दोनों दिशा में मौजूद नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक यानी भारत सरकार के कामकाज की निगरानी करते हैं.

आत्मनिर्भर देश की संवैधानिक सीमाओं का पालन करते हुए, ये दो निर्माण संरचनाएं (हालांकि भौतिक रूप से नीचे के स्तर पर) उसी धौलपुर पत्थर से बनी हैं, जिनसे राष्ट्रपति भवन बना है. ये नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक एक-दूसरे के सामने हैं, मगर राष्ट्रपति भवन के सामने नहीं, शायद, ये संतुलन का एक तरीका है.

दो सचिवालय भवनों के बीच के रास्ते को अब ज्यादा सटीक नाम दिया गया है— कर्त्तव्य पथ. इसे पहले राजपथ (शासक का रास्ता) कहा जाता था.

इन दोनों शक्ति-केंद्रों के बीच संतुलन जरूरी है, क्योंकि रायसीना हिल के ऊपर से बहुत ज्यादा दखलअंदाजी या एकदम खामोशी, दोनों ही हालत में ‘भारत के विचार’ (Idea of India) को नुकसान पहुंच सकता है.

इस संतुलन को बनाए रखने के लिए, नारायणन ने “संविधान की सीमा” के अंदर रहते हुए काम करने पर जोर दिया– उन्होंने एक 'कार्यकारी अध्यक्ष' या इसके एकदम उलट ‘रबर स्टैंप’ के रूप में नहीं, बल्कि सिर्फ एक ‘जिम्मेदार राष्ट्रपति’ के रूप में काम किया.

25 जून 1975 को, इमरजेंसी के आदेश पर दस्तखत करने के साथ ही राष्ट्रपति के उस नाजुक ‘संतुलन’ को कायम नहीं रख पाने का खतरा सच हो गया. उस रात, राष्ट्रपति को सोने के लिए नींद की दवा की जरूरत पड़ी, और लोकतंत्र में भारतीय प्रयोग को भी झटका लगा ताकि जरूरी ‘शोर’ या असहमति को जगह मिल सके, जो संप्रभु की बेहतर सेवा कर सकता था.

केआर नारायणन के राष्ट्रपति भवन तक के सफर में एक बेजोड़ नैतिकता, मजबूती और परिपूर्णता थी, जिसने उन्हें खोखले दिखावे, समझौते करने, पक्षपात करने और यहां तक कि निजी महत्वाकांक्षा से परे की शख्सियत बना दिया.

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प्रतीकवाद से हटकर देखना

वह किसी और के लिए नहीं बल्कि अपनी अंतरात्मा और इकलौती किताब, जिसे वह पवित्र मानते थे, यानी भारत के संविधान के प्रति कृतज्ञ थे. आखिरकार उन्होंने राजनीति, शिक्षा और कूटनीति के क्षेत्र में तकरीबन सभी प्रतिष्ठित पदों पर काम किया था. वह भारत के उपराष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री, लगातार तीन बार लोकसभा सांसद, जेएनयू के वाइस चांसलर, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन वगैरह में भारत के राजदूत रहे. उन्हें ‘भारत का सर्वश्रेष्ठ राजनयिक’ माना गया. तब उन्हें भारत का ‘प्रथम दलित’ करार देना हकीकत था, लेकिन किसी भी मायने से यह बहुत कम था, क्योंकि उनसे पहले या उनके बाद किसी के पास उनसे ज्यादा खासियतों से लैस बायोडाटा नहीं था.

प्रतीकवाद के संदर्भ में उन्होंने कभी निजी तौर अपनी ‘दलित’ पहचान का सहारा नहीं लिया, न ही इससे इन्कार किया– इसके बजाय उन्होंने हिम्मत के साथ अपनी बात बोलकर बदलाव के कहीं ज्यादा सार्थक तरीकों को चुना, यहां तक कि सरकारों की असुविधा की कीमत पर भी जो उन्हें सिर्फ ‘पहले दलित’ प्रतीक के दायरे में रखना पसंद करतीं. जब भी उन्हें लगा कि जानबूझकर या अनजाने में पक्षपातपूर्ण भावना से संवैधानिक भावना को कमतर करने की कोशिश की जा रही है, वह बोले.

केआर नारायणन ने अपने संवैधानिक कर्तव्य के लिए काम किया, न कि सिर्फ दी गई राजनीतिक उपाधि या प्रतीकवाद के लिए. उनका मानना ​​था कि ‘जांच और संतुलन’ के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में, उनका कर्तव्य है कि वे चेतावनी भरी टिप्पणी (“संविधान की चारदीवारी के भीतर”) जारी करें, भले ही यह बहुप्रचारित पॉजिटिविटी की कीमत पर हो, जिसकी पक्षपात जारी रखने के लिए महिमा गाई जाती है.

आजादी की 50वीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) पर उनके भाषण में उत्सव के स्वर से परे उनकी खास पहचान बन चुकी गहराई थी, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा, “गणतंत्र में हमारे जीवन के पचास सालों में हम पाते हैं कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हमारे लाखों साथी नागरिकों के लिए एक अवास्तविक सपना बना हुआ है. हमारे आर्थिक विकास का फायदा अभी भी उन तक नहीं पहुंचा है.”

बाद में, 25 जनवरी 2000 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, जब संविधान की ‘समीक्षा’ की सुगबुगाहट हो रही थी, देश को संबोधित करते हुए उन्होंने समझदारी से अपनी बात रखी और कहा, “आज जब संविधान को संशोधित करने या यहां तक कि एक नया संविधान लिखने के बारे में इतनी चर्चा हो रही है, हमें इस बात पर विचार करना होगा कि क्या संविधान ने हमें निराश किया है या क्या हम ही हैं जिसने संविधान को निराश किया है.’'

उतने ही विवेकशील तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति के संदेश को समझा और बिना किसी हल्ला-गुल्ला के सुगबुगाहटें खामोश हो गईं.

केआर नारायणन: मजबूत इरादों वाले ईमानदार शख्स

उस शख्स में ऐसी बौद्धिक क्षमता और संविधान की इतनी अच्छी समझ थी कि वह बोलने के लिए दिए गए पर्चे को आसानी से याद कर लेते थे. वह अपने दफ्तर में देर रात तक काम करते हुए, ऐसे भाषण को अंतिम रूप देते पाए जाते थे जिसमें सीधे कहे गए या छिपे हुए शब्दों में महत्वपूर्ण विचार होते थे. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सम्मान में दिए गए भोज में उनका भाषण अमेरिका की एक ध्रुवीय दुनिया की ख्वाहिश के खिलाफ गरिमा और बराबरी के दर्जे के साथ सम्मानजक ‘समानता’ का संदेश देने में बेमिसाल था.

“मगर हमारे लिए, वैश्वीकरण का मतलब इतिहास और भूगोल और दुनिया की जीवंत और रोमांचक विविधताओं का अंत नहीं है. जैसा कि एक अफ्रीकी राजनेता ने हमें बताया है, तथ्य यह है कि दुनिया एक वैश्विक गांव है, पर इसका मतलब यह नहीं कि इसे एक गांव के मुखिया द्वारा चलाया जाएगा.” यह बयान उनको कतई खुश करने वाला नहीं था, लेकिन नारायणन ने अनोखे अंदाज में जरूरी संदेश दे दिया था.

‘पुनर्विचार’ के लिए फाइलें लौटाने से लेकर सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखने तक (उदाहरण के लिए, 2002 के दंगों के बाद), नागरिकों को पता था कि उनके पास एक ऐसा राष्ट्रपति है जो न केवल ‘प्रथम दलित’ है, बल्कि संविधान की पवित्रता की हिफाजत करने वाली ‘आवाज’ भी है.

केआर नारायणन जानते थे कि रायसीना हिल पर खामोश रहना लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है और इसके लिए पद की गरिमा के अनुरूप गंभीरता, संयम और शालीनता के साथ बोलने की जरूरत है.

राष्ट्रपति की आवाज राष्ट्रीय मनोबल बनाए रखने का अटूट हिस्सा है

राष्ट्रपति मुर्मू के लिए 'प्रथम आदिवासी' जरूर जोड़ा गया है, लेकिन अपनी जिंदगी में निजी उपलब्धियों के मामले में वह निश्चित रूप से उससे कहीं ऊपर हैं. केवल 'प्रथम आदिवासी' होना उनकी उपलब्धि नहीं है.

संयोग से खास ‘आदिवासी’ पहलू को लेकर भी हम पाते हैं कि, हाल ही में मणिपुर में आदिवासियों के साथ ज्यादतियां हुईं, जो दुर्भाग्य से बहुत लंबे समय तक चलीं. असमानताओं, मनमानी और असहिष्णुता के कई दूसरे शर्मनाक उदाहरण और भी हैं जिनमें से ज्यादातर के मामले में संवैधानिक औचित्य, और इन सबसे ऊपर सतर्कता भरी ‘आवाज' की जरूरत हैं.

‘आइडिया ऑफ इंडिया’ बिना किसी डर या पक्षपात के सर्वोच्च स्तर से ‘नियंत्रण और संतुलन’ की लगातार जरूरत पर जोर देता है, रास्ते से भटकाने या अराजकतावादी साधन के रूप में नहीं, बल्कि संवैधानिक जवाबदेही और जिम्मेदारी की भावना के साथ शक्तियों को अपने पास रखने के सबसे देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य के रूप में.

आजादी के 50 साल होने पर कहे गए केआर नारायणन के दूरदर्शिता से भरे शब्द आज आजादी को 76 साल बीत जाने के बाद भी (कमोबेश) उतने ही प्रासंगिक हैं. उन्होंने कहा था, “विभिन्न स्तरों पर राजनीतिक लोकतंत्र को बचाए रखना और मजबूत करना नए स्तर पर पहुंच गया है. जैसे लगातार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, अपेक्षाकृत स्वतंत्र प्रेस जैसी संस्थाओं की स्थापना और विकास, विपक्षी दलों को काम करने देने, एक आजाद और काबिल न्यायपालिका, स्वतंत्र सार्वजनिक बहस, जिसे कई बार हमलों का सामना करता पड़ता है, अभिव्यक्ति और रचनात्मकता की आजादी पर हमला, सामाजिक सौहार्द के साथ धर्मनिरपेक्षता के हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे की हिफाजत करना.”

(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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