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2019 में बनने वाले नए प्रधानमंत्री के नाम खुला खत

प्रिय 2019 के नए प्रधानमंत्री, अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए सरकारी बैंकों का निजीकरण जरूरी है

राघव बहल
नजरिया
Updated:
प्रिय 2019 के नए प्रधानमंत्री, अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए सरकारी बैंकों का निजीकरण जरूरी है
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प्रिय 2019 के नए प्रधानमंत्री, अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए सरकारी बैंकों का निजीकरण जरूरी है
(फोटोः The Quint)

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  • फिशिंग के नाम पर 772 करोड़ का कर्ज घोटाला (अमर उजाला, 29 मार्च, 2018)
  • आईडीबीआई बैंक की खस्ता हालत से चिंतित रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्रालय को लिखी चिट्ठी (द इकनॉमिक टाइम्स, 30 मार्च, 2018)
  • आईसीआईसीआई-वीडियोकॉन कर्ज विवाद : क्या प्रधानमंत्री ने व्हिसल-ब्लोअर की बात दो बार अनसुनी की? (नेशनल हेराल्ड, 29 मार्च, 2018)
  • पीएनबी घोटाला : भारत में धोखाधड़ी के मामलों से निपटने का तरीका बदलना आज क्यों जरूरी है (द इकनॉमिक टाइम्स, 28 मार्च, 2018)

ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के 200वें हफ्ते में छपी खतरनाक हेडलाइन्स के सिर्फ चंद नमूने हैं. ये महज एक हफ्ते की सुर्खियां हैं, जो चीख-चीख कर कह रही हैं कि ये सरकार सत्ता पर पूरी तरह काबिज होने के 200 हफ्ते बाद भी देश की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या से निपटने में किस कदर नाकाम रही है.

आपको ध्यान है न कि देश ने तीन दशकों तक गठबंधन वाली अपेक्षाकृत कमजोर सरकारों के शासन के बाद प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी को किस तरह स्पष्ट बहुमत देकर सत्ता के सिंहासन पर बिठाया था? किस्मत ने तब भी उनका पूरा साथ दिया, जब कच्चे तेल की कीमतें लुढ़ककर 30 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आ गईं. इस जबरदस्त गिरावट से सरकार को हर साल लगभग 1 लाख करोड़ रुपये, यानी जीडीपी के करीब 1 फीसदी के बराबर अतिरिक्त रकम बिना कुछ किए-धरे मिल गई.

याद कीजिए, आर्थिक समझ रखने वाले तमाम लोग तब सोच रहे थे कि मोदी इस शानदार चुनावी जीत और तेल के मोर्चे पर मिले अप्रत्याशित लाभ का इस्तेमाल करके देश के खस्ताहाल बैंकों को दुरुस्त कर देंगे, जिससे देश में आर्थिक तेजी का नया दौर शुरू होगा.

आर्थिक तेजी बदले आई लगातार गिरावट

लेकिन मोदी सरकार ने इस शानदार मौके को मिट्टी में मिला दिया. चार साल बीत चुके हैं और भारत के सरकारी बैंक औंधे मुंह पड़े अंतिम सांसें गिन रहे हैं (कुछ लोग कहेंगे, उनकी जान पूरी तरह निकल चुकी है):

  • मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान देश के सभी बैंकों के कुल मार्केट कैपिटलाइजेशन में सरकारी बैंकों का हिस्सा भयानक रूप से गिरा है. 2014 में ये हिस्सा करीब 43% था, जो2018 में लुढ़ककर महज 26% रह गया है.
  • इन चार बरसों के दौरान प्राइवेट बैंकों की वैल्यू 100 अरब डॉलर से ज्यादा बढ़कर करीब दोगुनी हो गई, जबकि सरकारी बैंकों के पहले से कमजोर वैल्यूएशन में करीब 50 अरब डॉलर की और सेंध लग गई है.
  • सरकारी बैंकों की इस तगड़ी धुलाई के दौरान सरकार ने उन्हें न सिर्फ 10 अरब डॉलर की मदद मुहैया कराई, बल्कि अगले दो सालों में और 35 अरब डॉलर देने का वादा भी किया है.टैक्स भरने वाले आम लोगों, यानी हमारे और आपके पैसे इन बैकों में बड़े पैमाने पर झोंके जाने के बावजूद इनकी वैल्यू में आई ये भयानक गिरावट वाकई दिल दहलाने वाली है.
  • देश के बैंकों में जमा होने वाली कुल रकम में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी भी करीब 4 फीसदी गिरी है (80% से 76%). लेकिन बकाया कर्जों में उनका हिस्सा करीब दोगुना यानी 8फीसदी गिरकर 79% से 71% पर आ गया है. इन हालात में सरकारी बैंकों की लाभ कमाने की क्षमता भी लगातार तेजी से गिरती जा रही है.

कैंसर का घाव, बैंड-एड की पट्टी !

छह महीने पहले जब मोदी सरकार को बैंकों की खस्ता हालत सुधारने का और कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसने बैंक रीकैपिटलाइजेशन बॉन्ड जारी करने के कथित "बोल्ड प्लान" का ऐलान कर दिया. सच बताएं तो ये पूरी तरह से सरकार की नियंत्रणवादी सोच से उपजा, गुजरे जमाने का घिसापिटा कदम था. ये उपाय 1991-92 में तब आजमाया गया था, जब देश दिवालिया हालत में था. उस वक्त अगर सरकार ने ऐसा कदम उठाया था, तो उसे किसी हद तक जायज भी माना जा सकता था. हालांकि बैंक के बही-खातों में लायबिलिटी को ट्रांसफर करके एसेट में डालने और इस तरह बैंलेस शीट से कंटिन्जेंट लायबिलिटी को जबरन खत्म करने का ये तरीका असल में सरकारी खजाने के घाटे को अदृश्य रूप से और बढ़ा ही देता है. इतना ही नहीं, यही काम अगर किसी प्राइवेट बैंक के मालिक ने किया होता, तो उसे पब्लिक फंड के गबन के आरोप में जेल की हवा खानी पड़ती. लेकिन 1992 में वित्तीय इमरजेंसी की वजह से सरकार को अपने उस कदम के लिए कड़ी आलोचना नहीं झेलनी पड़ी.

लेकिन ये बेहद शर्मनाक है कि मोदी सरकार आज कैंसर के इलाज लिए बैंड-एड की उसी पच्चीस साल पुरानी पट्टी को दोबारा इस्तेमाल कर रही है.
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सरकारी बैंकों का निजीकरण राजनीतिक तौर पर भी संभव है, लेकिन कुछ बातों से बचना होगा

सरकारी बैंकों के निजीकरण की मुश्किल प्रक्रिया शुरू करने की योजना बनाना क्या राजनीतिक रूप से व्यावहारिक और संभव है? हां, बिलकुल संभव है. लेकिन इसकी शुरुआत उन कामों की लिस्ट बनाकर करनी होगी, जो बिलकुल नहीं करने होंगे. यानी-

  • ऐसा बिलकुल नहीं लगना चाहिए कि घर की कीमती चीजें बड़े विदेशी निवेशकों या घरेलू उद्योगपतियों के हवाले की जा रही हैं (क्रोनी कैपिटलिज्म हर हाल में खत्म करना होगा.)
  • सरकारी इक्विटी को आज के निराशाजनक हालात की वजह से औने-पौने दामों पर बेचने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए. एसेट प्राइस में सुधार के जरिए न सिर्फ करदाताओं को उनकेपिछले भारी-भरकम निवेश की वसूली का वाजिब मौका मिलना चाहिए, बल्कि साफ-साफ दिखना भी चाहिए कि ऐसा किया जा रहा है. (मारुति और बाल्को जैसे इसके कई उदाहरण मौजूद हैं)
  • बैंक कर्मचारियों के हितों की अनदेखी बिलकुल नहीं होनी चाहिए. उन्हें निजीकरण का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. उनकी नौकरी की शर्तों से छेड़छाड़ नहींहोनी चाहिए, जब तक कि वो खुद अपनी इच्छा से उसमें बदलाव के लिए तैयार न हों.
  • निजीकरण की ये प्रक्रिया बहुत तेज रफ्तार नहीं होनी चाहिए. न ही इतने बड़े पैमाने पर होनी चाहिए कि उथल-पुथल मच जाए. इसकी शुरुआत बिलकुल छोटे स्तर से की जाए. जैसे-जैसे सफलता मिलेगी, उसकी मिसाल आगे की प्रक्रिया को मजबूती और गति देगी. पूरी योजना पर अमल में पांच साल या उससे भी ज्यादा समय लगाया जा सकता है.
  • इस योजना को रायसीना हिल्स के नौकरशाहों के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए. इसमें ऐसे बाहरी विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए, जिन्हें प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कासीधा और पूरा राजनीतिक समर्थन हासिल हो.

सरकारी बैंक का पहला निजीकरण: असंभव को कैसे बनाएं संभव

असंभव को संभव बनाने का तरीका इस उदाहरण की मदद से समझा जा सकता है:

  • सबसे पहले एक छोटा सरकारी बैंक चुनें, जिसका मार्केट कैपिटलाइजेशन मौजूदा निराशाजनक हालात में तकरीबन 25 हजार करोड़ रुपये हो.
  • मिसाल के लिए मान लीजिए कि इस बैंक में सरकार की हिस्सेदारी 60% है. अब इसके कैपिटल स्ट्रक्चर का नए सिरे से वर्गीकरण किया जाए, जिसमें सरकारी इक्विटी शेयर्स को 10साल के अनिवार्य रूप से कनवर्टिबल प्रेफरेंस शेयर (CCPS) में तब्दील कर दिया जाए, जिनकी लिस्टिंग अलग से हो. ध्यान रहे कि भारतीय एकाउंटिंग स्टैंडर्ड के तहत CCPS को इक्विटीके बराबर माना जाता है. इस तरह कनवर्जन के बाद सरकार का मालिकाना हक बिलकुल पहले की तरह बना रहेगा, लेकिन उसका वोटिंग का अधिकार खत्म हो जाएगा. इससे बैंक के नएमालिक को मैनेजमेंट में सरकारी दखलंदाजी के बिना काम करने का मौका मिल पाएगा.
  • इन CCPS का 9 फीसदी हिस्सा 'कर्मचारी स्टॉक पूल' में ट्रांसफर कर दिया जाए, जिसका इस्तेमाल कर्मचारियों को उदारता के साथ स्टॉक ऑप्शन बांटने में हो. इसके बाद भी 51% CCPS यानी इक्विटी सरकार की होगी, लेकिन वोटिंग राइट्स उसके पास नहीं होंगे.
  • सिर्फ शानदार रिकॉर्ड वाले भारतीय बैंकर्स को उनकी निजी हैसियत में 10% मैनेजमेंट शेयर के लिए बोली लगाने का अधिकार दिया जाए. उन्हें अकेले-अकेले या ग्रुप में ऐसा करने कीइजाजत दी जाए. इस बिडिंग की फंडिंग के लिए उन्हें भरोसेमंद प्राइवेट इक्विटी इनवेस्टर्स के साथ करार करने की छूट मिले.
  • अगर मान लें कि इस बिडिंग में जीतने वाली बोली मौजूदा निराशाजनक वैल्यू के दोगुने के बराबर होगी तो 10 फीसदी मैनेजमेंट शेयर की लागत 2000 करोड़ रुपये के आसपासआएगी. (कुल मार्केट कैपिटलाइजेशन 50 हजार करोड़ होगा, लेकिन उसका 60% हिस्सा CCPS में तब्दील होने के बाद 10% वोटिंग राइट्स खरीदने के लिए सिर्फ 2000 करोड़ रुपये कीजरूरत पड़ेगी.) ये रकम इतनी वाजिब है कि प्रोफेशनल बैंकर निजी हैसियत में इसे जुटा सकते हैं.

2019 के नए प्रधानमंत्री से अपील : सर/मैडम, आजमाकर देखिए, ये हो सकता है!

तो देखा आपने ! बैंक का निजीकरण सफल रहा और कोई ऐसा कदम भी नहीं उठाया गया, जिससे बचने का हमने फैसला किया था. यानी-

  • बैंक की हिस्सेदारी किसी बड़े विदेशी या घरेलू बिजनेस ग्रुप ने नहीं, बल्कि भारत के बैंकिंग प्रोफेशनल्स ने निजी हैसियत में खरीदी (बेहद कामयाब आरबीएल बैंक की तरह).
  • सरकार को अपनी इक्विटी मौजूदा बाजार भाव पर मिट्टी के मोल बेचने को मजबूर नहीं होना पड़ा. दरअसल, 10 साल में अगर बैंक के शेयर की कीमत 10 गुना बढ़ जाए, तो सरकार के 51% CCPS का मूल्य सवा लाख करोड़ रुपये हो जाएगा (जबकि मौजूदा गिरे हुए भाव पर उनका मूल्य महज 15 हजार करोड़ रुपये होता.) !
  • बैंक कर्मचारियों के स्टॉक ऑप्शन वाले 9% शेयर्स का मूल्य भी तब तक 25 हजार करोड़ रुपये हो चुका होगा.

मुझे पता है रायसीना हिल्स के अड़ंगा फंसाने वाले बाशिंदे क्या कहेंगे. वो कहेंगे, ये एक बेवकूफी भरा सपना है, जिसकी कल्पना एक ऐसे दिमाग में आई है, जिसे सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों का कोई तजुर्बा नहीं है (दो टूक शब्दों में कहें, तो ऐसा हो ही नहीं सकता!). मैं उनसे कहूंगा, "ईश्वर को धन्यवाद कि ये दिमाग नौकरशाही की सीमित सोच के सींखचों में कैद नहीं है".

और 2019 में आने वाले प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से मैं कहना चाहूंगा : “सर/मैडम, आजमाकर तो देखिए, ऐसा किया जा सकता है.”

ये कोशिश एक बार सफल हो गई तो दूसरे लोग भी इस रास्ते पर चल पड़ेंगे और भारत की सबसे कठिन आर्थिक समस्या हल हो चुकी होगी. वो भी पूरे राजनीतिक समर्थन के साथ. भरोसा कीजिए सरकार!

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Published: 02 Apr 2018,08:13 AM IST

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