वीडियो एडिटर- मोहम्मद इब्राहिम
हमारे प्यारे प्रधानमंत्री को एक्रोनिम बहुत पसंद हैं. यहां मैं एक ऐसे एक्रोनिम का जिक्र कर रहा हूं, जो उन्हें शायद पसंद ना आए. यह है- DACOIT (डकैत) यानी Digital America/China Colonising and Obliterating Indian Tech.
जिस तरह से 1970 और 1980 के दशक में चंबल के डकैत मध्य भारत में लूटपाट करते थे, उसी तरह से शिनजेन और सिलिकॉन वैली के डकैत 21वीं सदी की डिजिटल दुनिया पर धावा बोल रहे हैं. गूगल और फेसबुक के दबदबे के सामने हमने पहले ही हथियार डाल दिए हैं. इसका मामूली विरोध भी नहीं हुआ. भारत में डिजिटल माध्यमों पर जितना विज्ञापन दिया जाता है, उसका 90 फीसदी दोनों अमेरिकी कंपनियों को मिल रहा है.
उनके पास एक अरब भारतीयों की डिजिटल आइडेंटिटी है. उन्हें पता है कि हम क्या सर्च करते हैं, क्या खरीदते हैं, किसके साथ डेट पर जाते हैं, हमारी राजनीतिक सोच क्या है, हम क्या सोचते हैं. हम जो भी करते हैं, उन्हें पता होता है.
सर्च और सोशल मीडिया को छोड़ दें, तो क्या दूसरे बिजनेस में विदेशी कंपनी को जवाब देने के लिए भारतीय कंपनी नहीं है? अगर यहां एमेजॉन है, तो क्या फ्लिपकार्ट नहीं है, जिसे सचिन और बिन्नी बंसल ने शुरू किया था. सच तो यह है कि दूसरे विदेशी निवेशकों के साथ फ्लिपकार्ट में चीन की टेनसेंट की 70 फीसदी हिस्सेदारी है.
सचिन और बिन्नी बंसल के पास तो कंपनी के 10 फीसदी शेयर ही बचे हैं. अब खबर आई है कि वॉलमार्ट भी फ्लिपकार्ट में हिस्सेदारी लेने जा रही है.
आप यह भी तर्क दे सकते हैं कि अमेरिकी उबर को टक्कर देने के लिए हमारे पास भावीश अग्रवाल और अंकित भाटी की ओला है. हालांकि, ओला के 60 फीसदी शेयर भी कुछ विदेशी निवेशकों के पास हैं. उसमें एक निवेशक जापान का सॉफ्टबैंक ग्रुप है, जिसके पास चीन की अलीबाबा के सबसे अधिक शेयर हैं.
अच्छा, तो अब आप पेटीएम का नाम गिनाएंगे. क्या आपको पता है कि पेटीएम पर मालिकाना हक रखने वाली वन97 कम्युनिकेशंस के 60 फीसदी शेयर अलीबाबा के पास हैं. विजय शेखर शर्मा के पास तो इसके 20 फीसदी से भी कम शेयर हैं? इसका मतलब यह है कि पेटीएम में अलीबाबा के संस्थापक जैक मा की चलेगी.
ऐसा डिजिटल ईकोसिस्टम, जहां डकैतों का राज है
भारत की डिजिटल इकनॉमी पर डकैत पूरी तरह काबिज हो चुके हैं. इंफोसिस के संस्थापकों में से एक मोहनदास पई के शब्दों में:
1 अरब डॉलर से ज्यादा वैल्यू वाली 8 भारतीय स्टार्टअप में से सात विदेशी हैं. इनमें बड़ी हिस्सेदारी विदेशी निवेशकों की है और इन कंपनियों के संस्थापक ‘मैनेजर’ बनकर रह गए हैं.
50 हजार करोड़ डॉलर के मार्केट कैप वाली टेनसेंट की नजर हाइक, प्रैक्टो, बायजू और मेकमायट्रिप पर भी है, जबकि 450 अरब डॉलर के मार्केट कैप वाली अलीबाबा के निशाने पर जोमाटो और टिकटन्यू भी आ गई हैं.
मुझे पता है कि कुछ लोग यह कह सकते हैं कि आखिर अलीबाबा में भी जैक मा की हिस्सेदारी सिर्फ 8 फीसदी है. टेनसेंट के पोनी मा का भी यही हाल है. यहां तक कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग के पास भी कंपनी के 20 फीसदी शेयर ही हैं. फिर आप प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर क्यों सवाल उठा रहे हैं. हमारे प्यारे प्रधानमंत्री तो कोई गलती कर ही नहीं सकते.
अगर कोई कंपनी भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड नहीं है, तो उसे विदेशी स्टॉक एक्सचेंजों पर भी लिस्ट नहीं कराया जा सकता. हालांकि, इस मामले में इधर कुछ ढील दी गई है. भारत में ऐसा लीगल फ्रेमवर्क नहीं है, जिससे एक ही कंपनी में डिफरेंशियल वोटिंग राइट्स जैसे जरियों से मालिकाना हक और कंट्रोल को अलग किया जा सके.
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कंपनियों को आजादी मिलनी चाहिए
मैंने जब भी आरबीआई, सेबी, नीति आयोग और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को मालिकाना हक और कंट्रोल का फर्क समझाने की कोशिश की, मुझे हार माननी पड़ी. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि विजय शेखर या भावीश या सचिन बंसल जैसे उद्यमी विदेशी निवेशकों से अरबों की रकम जुटाने के बाद भी छोटी हिस्सेदारी के साथ कंपनियों पर अपना कंट्रोल बनाए रख सकते थे. तभी असल डिजिटल इंडिया दिखेगा. तभी फेसबुक, गूगल, अलीबाबा, एमेजॉन और टेनसेंट को टक्कर देने वाली कंपनियां हमारे पास होंगी.
अभी भी बहुत देर नहीं हुई है. अगले 10 साल में भारतीय ई-कॉमर्स मार्केट 13 गुना, डिजिटल पेमेंट 4 गुना, स्मार्ट इंटरनेट यूजर्स का बाजार 4 गुना बढ़ेगा. इस तूफानी ग्रोथ का फायदा भारतीय एंटरप्रेन्योर उठा सकते हैं, बशर्ते उन्हें एम्पावर किया जाए. अगर ऐसा नहीं होता है, तो प्रधानमंत्री और नौकरशाहों की उनकी टीम मौजूदा डकैती जारी रहने देगी.
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