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पितृसत्तात्मक आधिपत्य के चलते वर्षों से ही समाज में लिंग आधारित भेदभाव जारी है. वैश्विक स्तर पर महिलाओं पर अत्याचार और शोषण के लिए प्रजनन, अधिकार, श्रम, शिक्षा, सम्बंधित कानून इस्तेमाल किए जाते रहे हैं और यह परंपरा आज भी कायम है. अनेक देशों में समान अधिकारों के बाद भी यह स्थिति है कि पुरुषों को आर्थिक लाभ एवं अवसर सरलता से मिलते हैं. वहीं महिलाओं को कड़ी मेहनत के बावजूद भी न समान अवसर और न ही समान वेतन मिलता है. इसका खुलासा हाल ही में आई मानवाधिकार संगठन ऑक्सफैम की रिपोर्ट (Oxfam Report) में किया गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन भारत सरकार के रोजगार और श्रम मंत्रालय के वर्ष 2004-05 से 2019-20 तक के डाटा पर आधारित है. इसमें बेरोजगारी (2004-05) पर, 61वें एनएसएस के डाटा 2018-19 और 2019-20 में आवधिक श्रम बल संरक्षण पर और अखिल भारतीय ऋण और केंद्र सरकार द्वारा निवेश सर्वेक्षण (AIDIS) के आंकड़ों को शामिल किया गया है.
ऑक्सफैम इंडिया की हाल में आई रिपोर्ट (इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022) में बताया गया है कि भारत में महिलाएं बराबर शिक्षा, कार्य अनुभव के बाद भी श्रम क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक भेदभाव का सामना कर रही हैं. कामकाजी महिलाओं को मिलने वाले सैलरी 67% गैरबराबरी का कारण लिंग आधारित भेदभाव है. हालांकि 33% भेदभाव कार्य अनुभव के आधार पर ही होता है.
ऑक्सफैम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2020-21 में कार्य क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी केवल 25% ही थी. यह आंकड़ा चीन, दक्षिण अफ्रीका, रूस और ब्राजील से काफी कम है. 2021 में दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं की लेबर पार्टिसिपेशन रेट 46 प्रतिशत थी.
हालांकि पहले भी महिला और पुरुष के वेतन को लेकर असमानता जारी रही है. 178 देशों में कानूनी प्रावधानों की वजह से महिलाओं को आर्थिक योगदान देने से रोका गया है. यह कहना है वर्ल्ड बैंक की वीमेन, बिजनेस एंड द लॉ 2022 रिपोर्ट का. वहीं 86 देशों में महिलाओं को नौकरी में अनेकों प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है और 95 देशों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलता है. हालांकि कोरोना महामारी के बाद 12 देशों- बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, यूनान, आयरलैंड, लाताविया, लग्जमबर्ग, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन और आइसलैंड ने महिलाओं को आर्थिक समावेश को बेहतर करने की दिशा में कदम उठाया है.
वर्ल्ड बैंक ग्रुप (World Bank Group) की सीनियर वाइस प्रेसिडेंट कार्मेन रेनहार्ट ने कहा कि स्त्रियां तब तक अपने कामकाज की जगह पर बराबरी नहीं कर सकती हैं, जब तक उन्हें घर में बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता है. इसका मतलब यह है कि महिलाओं-पुरुषों दोनों को समान अवसर देने होंगे और यह तय करना होगा कि मां बन जाने का मतलब यह नहीं होगा कि उन्हें अर्थव्यवस्था में भाग लेने और उनकी उम्मीदों को पूरे करने से रोका जाएगा.
महिलाओं के अलावा दलित, आदिवासी और मुसलमानों को भी समान वेतन से वंचित किया जा रहा है. अर्बन एरिया में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के पुरुषों की औसत आय 15,312 रुपये है. वहीं सामान्य वर्ग के कर्मचारियों की औसत आय 20,346 रुपये है. मतलब साफ है कि सामान्य वर्ग एससी और एसटी की तुलना में 33% से ज्यादा कमा रहा है.
कोरोना की वजह से उपजी समस्याओं के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे युवाओं में 17% बेरोजगारी देखी गयी है. वहीं साल 2019-20 में शहरी क्षेत्रों में रहने वाले मुसलमानों के कम रोजगार प्राप्त करने के पीछे 68.3 प्रतिशत भेदभाव रहा. साल 2004-05 में भेदभाव का 59.3 प्रतिशत था तो वहीं 2019-20 में यह बढ़कर 68.3 प्रतिशत पर पहुंच गया है.
ऑक्सफैम इंडिया की डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने कमजोर तबके के लोगों की जीविका और जीवन दोनों को प्रभावित किया है. इस रिपोर्ट में कुछ संक्षिप्त सिफारिशें की गई हैं जो इस प्रकार हैं.
सभी महिलाओं के लिए समान वेतन और कार्य के अधिकार को सक्रिय रूप से लागू करना.
कार्यबल में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कार्यक्षेत्र में वेतन वृद्धि, नौकरी में आरक्षण, मां बनने के बाद नौकरी पर लौटने की आसानी हो.
कार्यक्षेत्र में सामाजिक भेदभाव/धर्म आधारित भेदभाव को बदलने के लिए सक्रिय रूप से काम करना.
अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों के लिए मौजूद कमियों को दूर करना.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए जाति आधारित प्रतिनिधित्व कार्रवाई, कल्याण के लिए लक्ष्य जारी रहे.
महिलाओं के साथ भेदभाव वेतन तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनके साथ नौकरी के विज्ञापनों में भी भेदभाव देखने को मिलता है. साल 2018 में आई वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक ऑनलाइन जारी किए जा रहे विज्ञापनों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को अधिक प्रधानता दी जाती है. इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए भारत में आठ लाख नौकरियों के विज्ञापनों पर शोध किया गया है. यही नहीं इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नौकरियों के लिए जारी किए जा रहे विज्ञापनों में तो भेदभाव किया ही जाता है, वहीं कई बार महिलाओं को आवेदन करने तक का भी अवसर नहीं प्राप्त होता है.
हालांकि कुछ देशों ने लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कड़े कदम उठाए हैं. उसमें न्यूजीलैंड भी एक ऐसा देश है जो महिलाओं को समान अधिकार देने के पथ पर अग्रसर है. न्यूजीलैंड क्रिकेट बोर्ड ने पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में महिला खिलाड़ियों को भी समान वेतन देने की घोषणा की है. कोस्टा रिका में भी समान वेतन पद्धति लागू है. स्वीडन में संसद की लगभग सभी सीटों पर महिलाएं आसीन हैं. स्पेन में सरकार के कार्यक्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय मौजूदगी है. इसके अलावा फिनलैंड में महिला प्रधानमंत्री हैं.
इन सभी रिपोर्ट के बाद कुछ सवाल सबके जेहन में आते हैं कि महिलाएं शैक्षिक योग्यता और सामाजिक रूप से सच में आगे जा रही हैं, तो श्रम-बल में महिलाओं और पुरुषों के बीच इतनी बड़ी खाई क्यों गहरी होती जा रही है? क्या आजादी के 75 साल बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में कब बराबरी के अधिकार सच्चे अर्थों में लागू होंगे?
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