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पाकिस्तान चौतरफा संकट (Pakistan Crisis) का सामना कर रहा है. शायद 1971 के बाद, जब बांग्लादेश युद्ध के बाद वो टूटा था, यह सबसे खराब आर्थिक दौर है. पाकिस्तानी सेना और सियासतदानों के लिए भारी संकट का वक्त है– साफ तौर पर किस दिशा में आगे बढ़ा जाए इसकी कमी दिखती है.
पिछले हफ्ते, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेना प्रमुख सैयद असीम मुनीर ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात का दौरा किया. देश पर डिफॉल्ट का खतरा मंडराता देखते हुए उन्होंने इन देशों से मदद मांगी. पाकिस्तान में विदेशी मुद्रा भंडार नौ साल के निचले स्तर पर है. यह सिर्फ 4.3 बिलियन डॉलर है. पाकिस्तान के पास अभी एक महीने के इंपोर्ट का पेमेंट करने के लिए भी पर्याप्त पैसा नहीं है.
पाकिस्तान काफी हद तक इंपोर्ट पर निर्भर देश है. बिगड़ते गेहूं संकट के कारण सामाजिक उपद्रव शुरू हो गए हैं. कथित तौर पर आटे के पैकेट को लेकर जनता लड़ रही है . ऐसे मामलों में कम से कम एक नागरिक की मौत हो गई है.
विलियम ईस्टरली ने 2001 के वर्ल्ड बैंक के एक केस स्टडी में पाकिस्तान की पॉलिटिकल इकोनॉमी को ग्रोथ के बिना वाला यानि ‘विकास का विरोधाभास’ बताया. हालांकि, पिछले 25 साल के दौरान ग्रोथ और भी लड़खड़ा गया है. दूसरे विकासशील देश, विशेष रूप से भारत और बांग्लादेश (चार्ट देखें) की तुलना में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में एक बड़ा अंतर दिखता है.
पच्चीस साल पहले, पाकिस्तान का प्रति व्यक्ति GDP भारत की तुलना में 46% अधिक था - और अब यह 20% कम है. आखिर कहां गड़बड़ी हुई ? पाकिस्तान में इस बात को बहुत कम लोग मानते हैं कि आखिर बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद ग्लोबलाइजेशन की धारा जो पूरी दुनिया में चली उसका फायदा भारत, चीन और बांग्लादेश जैसे देशों ने जमकर उठाया, लेकिन पाकिस्तानी शासक के अभिजात वर्ग ने दुनिया को पुराने नजरिए से ही देखना जारी रखा. शीत युद्ध की मानसिकता वाले पाकिस्तान ने सोचा कि उसे विदेशी सहायता शीतयुद्ध की तरह मिलती रहेगी और जियोपॉलिटिक्स का फायदा उठाता रहेगा.
अगर GDP का हिसाब किताब देखें तो पाकिस्तान का सैन्य खर्च दुनिया के टॉप 10 देशों के बराबर है. इसका टैक्स टू GDP रेश्यो लगभग 9% है जो कि दुनिया में सबसे कम है. इसे हर साल अधिक उधार लेना पड़ता है क्योंकि कर्ज चुकाने और सैन्य खर्च के बाद विकास पर खर्च करने के लिए बजट में पैसा नहीं बचता है.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) की एक रिपोर्ट के अनुसार, आर्मी प्रतिष्ठान देश के व्यावसायिक संस्थाओं का बड़ा समूह भी है जो देश में पब्लिक प्रोजेक्ट निर्माण में बड़ी भूमिका निभाते हैं.
कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता पाकिस्तान को "प्लॉटिस्तान" कहते हैं. दरअसल बहुत सुविधाजनक टैक्स रिजीम होने के कारण पाकिस्तान में जमीन के प्लॉट की खरीद-बिक्री सबसे बढ़िया बिजनेस में से एक है.
मलिक रियाज पाकिस्तान के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक हैं और बहरिया टाउन के मालिक हैं, जो देश की सबसे बड़ी प्राइवेट रियल एस्टेट डेवलपमेंट वाली कंपनी है.
रियाज ने मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में एक क्लर्क के रूप में करियर की शुरुआत की थी और सेना के सहयोग से एक मल्टीमिलिनेयर रियल एस्टेट डेवलपर बन गए. पिछले साल, स्थानीय मीडिया में एक ऑडियो टेप आ गया था और इस पर काफी बवाल भी मचा था. इसमें कथित तौर पर इमरान खान और आसिफ अली जरदारी के साथ रियाज के करीबी संबंधों की ओर इशारा किया गया था.
मलिक रियाज पाकिस्तान की असली पॉलिटिकल इकोनॉमी का एक ऐसा वर्ल्ड है जहां सभी सरकारी संस्थान और अहम सियासी नेता अपने हित और वर्ग को बचाने के लिए एक दूसरे से सांठ-गांठ करके काम करते हैं. इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पंजाब (पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत), जहां 120 मिलियन से अधिक की आबादी हैं, वहां भी भारत के 10 मिलियन लोगों की आबादी वाले चेन्नई शहर की तुलना में कम प्रॉपर्टी टैक्स हासिल कर पाता है.
आखिर पाकिस्तानी गुजारा कैसे करते हैं? पाकिस्तान के सबसे गरीब 20% लोग रोजी रोटी के लिए बड़ा संघर्ष करते रहते हैं. UNDP की रिपोर्ट के अनुसार, "पाकिस्तान के सबसे गरीब 20% मानव विकास सूचकांक (HDI) मूल्य केवल 0.419 के साथ निम्न मानव विकास श्रेणी में आते हैं. यह इथियोपिया के HDI से कम है और इसकी तुलना चाड गणराज्य से की जा सकती है, जो वैश्विक HDI रैंकिंग में 189 देशों में 186वें स्थान पर है.
पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद यानि GDP का यह 12.6 % हिस्सा है जबकि बांग्लादेश में यह आंकड़ा 6.5% और भारत में सिर्फ 3% है. इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पाकिस्तान की 90% अर्थव्यवस्था लगातार कम बचत और निवेश स्तरों के साथ खपत से संचालित होती है.
क्या पाकिस्तान अब इकोनॉमी में कोई सुधार किए बिना विदेशी मदद और बाहर से भेजे जाने वाले पैसे पर ही बचा रह सकता है . पाकिस्तानी शासक वर्ग पर इस सवाल का जवाब देने का जो दबाव आज है वैसा पहले कभी नहीं रहा.
(लेखक पॉलिटिकल इकोनॉमी एक्सपर्ट और पूर्व-इक्विटी इन्वेस्टमेंट हेड हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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