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यह एक घिनौनी कहानी है. पाकिस्तान की एक मस्जिद (Pakistan Peshawar Mosque Blast) में जिस वक्त ब्लास्ट हुआ, उस वक्त लगगभ 400 पुलिसकर्मी वहां नमाज के लिए मौजूद थे. ब्लास्ट को इतनी सावधानीपूर्वक प्लान किया गया था कि इस हमले से ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंच सके. इस हमले की जिम्मेदारी कथित तौर पर तहरीक-ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) द्वारा ली गई है. उनके द्वारा किए गए हमले में दर्जनों लोग मारे गए हैं, यह काफी भयानक और बुरा रहा.
यह एक ऐसे राष्ट्र पर सिर्फ एक और प्रहार है जो एक अथाह गहरे आर्थिक संकट में फंसा हुआ है. हम जिस देश की बात कर रहे हैं वह आज का पाकिस्तान है, जो दूसरों के साथ-साथ खुद के लिए पहले से भी ज्यादा खतरनाक है.
ज्यादातर लोगों को लगता है कि अमेरिका एक बार फिर हाथ बढ़ाएगा और उसे अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेगा. लेकिन अब चीजें बदल गई हैं. अब पतन पहले से कहीं अधिक भयानक है. जहां तक रही फंडिंग की बात तो वैश्विक स्तर पर पहले से ही धन की कमी है; पहले महामारी का दंश और उसके बाद यूक्रेन में चल रहे बेतुके युद्ध ने वैश्विक संकट की परिस्थियां पैदा कर दी हैं, जहां पाकिस्तान के लिए दूसरे मुल्कों से मदद पाना इतना आसान नहीं होगा. ऐसे में एक पड़ोसी होने के तौर पर भारत को सबसे खराब स्थिति से लेकर सबसे अच्छी स्थिति तक के बारे में चिंता करनी चाहिए.
किसी सरकार या राष्ट्र के लिए खंडित होना वाकई में मुश्किल भरा होता है. पाकिस्तान मेहनती लोगों और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के साथ एक समृद्ध मुल्क है. लेकिन वहां व्यवस्था चरमरा गई है और उसके उबरने की उम्मीद कम है.
एक नजर तथ्यों पर भी डालिए. सत्तारूढ़ गठबंधन को 'अभिजात वर्ग' के तौर पर भी जाना जाता है और इस गठबंधन को मुसीबत के मूल स्रोत के रूप में देखा जा रहा है. बाढ़ सहायता के लिए शेरी रहमान (कथित तौर पर जिनकी संपत्ति 250 मिलियन यूएस डाॅलर की है) को आर्थिक सहायता की गुहार लगाते हुए देखा जाना या प्रधानमंत्री कार्यालय से कथित लीक जिसमें उन्हें पहले से ही एक अमीर मरियम नवाज के पक्ष में सहायता मांगते देखे जाने की वजह से प्रमुख पार्टियों की छवि धूमिल हुई है.
सेना, जोकि बची हुई एकमात्र संस्था है, उसके खिलाफ भी सड़कों पर अभूतपूर्व गुस्सा दिखाई दे रहा है, सेना ने न केवल राजनीतिक रैलियों में, बल्कि उन क्षेत्रों में भी जहां उसके आतंकवाद विरोधी अभियान को आम नागरिकों को झेलना पड़ा है, वहां उसने अपना कद और अधिकार खो दिया है.
आर्थिक बदहाली के साथ-साथ इस तथ्य ने हर प्रांत में अलगाववादी प्रवृत्तियों को बदतर बना दिया है. कराची में जिए सिंध, खैबर पख्तूनवा (केपी) में पश्तून आंदोलन, गिलगित बाल्टिस्तान में जमीन के मुद्दों और गेहूं की सब्सिडी के नुकसान को लेकर महीने भर की अशांति, आजाद कश्मीर में विरोध प्रदर्शन और बलूचिस्तान में आजादी के लिए चल रहे आंदोलन इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं.
न केवल टीटीपी की मांगों को देखते हुए बल्कि पूरी तरह से शांतिपूर्ण चल रहे पश्तून तहफुज आंदोलन का भी फोर्स द्वारा गला घोंटा जा रहा है और इसके नेताओं को कैद कर लिया गया है इसकी वजह से खैबर पख्तूनवा (खासतौर पर इसका जनजातीय इलाका) नियंत्रण से बाहर जाने की सबसे अधिक संभावना रखता है.
अभूतपूर्व दैनिक कठिनाई, जिसके लिए व्हाइट-कॉलर्ड वर्कर्स (बड़े अधिकारी) और वेतनभोगी वर्गों को भी गंभीर कटौती करनी पड़ती है, उससे इस तरह के विभाजन (भंग होने की स्थिति) की संभावना बढ़ जाती है. पाकिस्तान ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक, विशेष रूप से प्याज जैसी सब्जियों की कीमतों में भारी उछाल के कारण जनवरी के अंत में साप्ताहिक मुद्रास्फीति बढ़कर 32.57% साल-दर-साल हो गई. यह देखते हुए कि पाकिस्तान ने ईंधन की कीमतों में 35 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की है (जून में 29 प्रतिशत की वृद्धि के बाद दूसरी महत्वपूर्ण वृद्धि है) इससे लागत और भी बढ़ सकती है.
पाकिस्तानी रुपया (पीकेआर) अपने वास्तविक मूल्य को प्राप्त कर सके इसलिए सरकार ने विनिमय दर (एक्सचेंज रेट) पर एक अनौपचारिक कैप हटा दी है. कराची स्टॉक इंडेक्स में गिरावट के बावजूद रुपया डॉलर के मुकाबले 261 PKR पर आ गया. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की यात्रा के परिणामस्वरूप तरलीकृत प्राकृतिक गैस की कीमतों में 30% की वृद्धि हुई है, और बिजली उत्पादकों को देय 1.25 ट्रिलियन रुपये से निपटने के प्रयास में बिजली शुल्क में वृद्धि हुई है.
अधिकांश घरों में रसोई गैस पहले से ही उपलब्ध नहीं है और इंडस्ट्री संघर्ष कर रही है. इन सबके बीच स्टेट बैंक ने मनी ट्रांसफर में लगातार गिरावट दर्ज की है, जो हाल ही में 19 प्रतिशत (साल-दर-साल) तक गिर गया है, ऐसे में लोग या तो अपने डॉलर जमा कर रहे हैं या फिर से हवाला का उपयोग कर रहे हैं
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आईएमएफ ने श्रीलंका के रक्षा बजट पर कड़ी निंदा की थी, जिसकी वजह से श्रीलंका सरकार ने घोषणा की कि वह 2030 तक अपनी सेना को आधा कर देगी; इस लक्ष्य को कम भर्ती के माध्यम से धीरे-धीरे हासिल किया जाएगा. इसके अलावा श्रीलंका अपने पूरे सरकारी क्षेत्र में भी कटौती करेगा.
पाकिस्तान में, हर जगह सब कुछ सहज व सरल दिखता है लेकिन वाकई में ऐसा होता नहीं है. चीजें काफी जटिल और रहस्यमयी होती हैं जिससे समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं. रक्षा खर्च पर उपलब्ध डेटा, जो भारत में कई पेज लंबा दिखाई देता है, वह पाकिस्तान में इतना संक्षिप्त होता है जैसा कि कोई पैरोडी हो.
'रक्षा सेवाओं' के लिए कुल बजट 1.37 ट्रिलियन पाकिस्तानी रुपये है, जोकि संघीय सरकार द्वारा अपने प्रांतों को भेजी जाने वाली राशि से कहीं अधिक है. इस आंकड़े में 360 बिलियन पाकिस्तानी रुपये की आंकी गई पेंशन राशि और सशस्त्र बल विकास कार्यक्रम के 340 बिलियन पाकिस्तानी रुपये शामिल नहीं हैं.
वहीं दूसरी ओर अन्य मदें अपारदर्शी हैं, जिनमें रक्षा सेवाएं विविध और सुरक्षा जमा शामिल हैं, जो 184 मिलियन पाकिस्तानी रुपये से अधिक हैं. इन सबका योग दी गई राशि से कहीं अधिक है. अब, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आईएमएफ रक्षा पेंशन को भी कुल राशि में शामिल करना चाहता है और टोटल ऑडिट की मांग कर रहा है.
श्रीलंका के विपरीत किसी भी सेना के लिए, जो खुद को खाद्य श्रृंखला के शीर्ष पर देखने की आदी है, उसके लिए यह बेहद अस्वीकार्य होगा, और इससे किसी प्रकार के सैन्य जोखिम या खतरे की संभावना प्रतीत होती है. आखिरकार वह आर्मी चीफ ही हैं जो चीन, अमेरिका और सऊदी अरब से ऋण (कर्ज) के लिए बातचीत करते रहे हैं. यह इस विचार या विश्वास को जन्म दे सकता है कि सेना "चीजों को ठीक कर सकती है. हालांकि इस पर विश्वास करने की संभावना नहीं है, यह नहीं हो सकता.
यह सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि क्या राजनेता राष्ट्रीय हित को राजनीतिक हितों से ऊपर रखते हैं, और संकट से उबरने के लिए कुछ अल्पकालिक नीतियों को अपनाते हैं. इसका मतलब है कि सस्ती सब्जियां और भोजन प्राप्त करने के लिए भारत और अफगानिस्तान की सीमाओं को खोलने और अगर दिल्ली सहमत है तो संभवतः उत्तरी ग्रिड से सब्सिडी वाली बिजली प्राप्त करने पर जोर देना. लेकिन एक और तूफान सामने से आ रहा है वह है उर्वरक उद्योग (फर्टिलाइजर इंडस्ट्री) का संकट, जोकि यूक्रेन युद्ध की वजह से पैदा हुआ है, यह खाद्य उत्पादन को प्रभावित करेगा.
भारत सहित हर कोई चपेट में आने वाला है, जो शायद खुलकर सामने आने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसे डोनर्स जो लंबे समय से मदद करते आए हैं, उनके लिए सहायता प्रदान करना कठिन हो सकता है.
सबसे महत्वपूर्ण है कि अपनी सेना को यह अहसास दिलाया जाए कि वह सरकार या मुल्क का एक उपकरण है, न कि इसके विपरीत है. यह बहुत ही खराब संकट है जो अवसर भी नहीं देता है. पाकिस्तान के लिए, एक सामान्य अवस्था में जाने के लिए यह महत्वपूर्ण बदलाव हो सकता है. इसका मतलब है कि अपने हर एक पड़ोसी के साथ मिलजुल कर रहना. जोकि एक बड़ी चुनौती है.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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