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हमें पाकिस्तान (Pakistan) में इमरान खान (Imran Khan) को हाल में सुनाई गई सजा और 2018 में पिछले आम चुनाव से पहले मियां नवाज शरीफ की सजा के बीच की जा रही गलत तुलनाओं में कतई नहीं उलझना चाहिए.
सबसे पहली बात, मियां नवाज शरीफ के खिलाफ फैसले में भ्रष्टाचार के सबूतों की कमी थी. इसके मुकाबले इमरान खान ने खुद अपने ऊपर लगे आरोपों को कुबूल किया है. (उदाहरण के लिए तोशाखाना मामले में उन्होंने कहा था- मेरी घड़ी, मेरी मर्जी- यानी तोहफे बेचने और उनसे होने वाली कमाई डिक्लेयर नहीं करना. ऐसे ही सरकारी गोपनीयता कानून मामले में, उन्होंने कबूला कि उन्होंने ‘एक गुप्त दस्तावेज/ साइफर के कंटेंट अपने लोगों से शेयर किए, उसे अपने पास रखना और फिर उसे खो दिया).
तोशाखाना मामले में यह साबित हुआ है कि इमरान खान ने न केवल हितों के टकराव में फायदा उठाया, बल्कि प्रधानमंत्री पद पर अपने पूरे कार्यकाल के दौरान कमाई का गलत डिक्लेरेशन किया. उन्होंने सार्वजनिक रूप से सरकारी गोपनीयता कानून का उल्लंघन किया और निजी राजनीतिक फायदे के लिए एक डिप्लोमेटिक दस्तावेज के कंटेंट की जानकारी पब्लिक कर दी.
दूसरी बात, इमरान खान के सभी मामले ट्रायल कोर्ट में हैं और देश की ऊपरी अदालतों में उनके लिए कानूनी प्रक्रिया और अपील का रास्ता खुला है.
तुलनात्मक रूप से देखें तो मियां नवाज शरीफ को देश की सुप्रीम कोर्ट ने अपील के अधिकार के इस्तेमाल का मौका दिए बिना पद से हटा दिया था. उनके मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (National Accountability Bureau) को उन पर मुकदमा चलाने का निर्देश दिया था और यहां तक कि NAB मुकदमे की निगरानी के लिए अदालत की तरफ से एक ‘निगरानी जज' भी नियुक्त किया गया था.
यह अवैध, असंवैधानिक, अभूतपूर्व और अनसुना था. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एजाज उल अहसन NAB को रोजाना निर्देश देते थे. पद के दुरुपयोग के आरोपों का सामना करने से बचने के लिए उन्होंने हाल ही में पद से इस्तीफा दे दिया है. एक सीनियर जज के पद पर बैठा भला कौन इंसान होगा, जो सिर्फ आठ महीने में देश का चीफ जस्टिस बनने वाला है, वो अपने पद से इस्तीफा देगा. जरूर वह अपराधबोध में न डूबा होगा और उसे पकड़े जाने का डर सता रहा होगा.
तीसरी बात, इमरान खान संवैधानिक प्रक्रिया का पालन कर पद से हटाए जाने वाले पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री हैं, जबकि मियां नवाज शरीफ को हमेशा गैर-संवैधानिक तख्तापलट से हटाया गया, जिसमें अक्सर उन्हें फंसाने के लिए उनके खिलाफ झूठे आरोपों का सहारा लिया गया. बहुत सारे फर्क हैं, लेकिन टीवी एंकर और एक्सपर्ट गलत समानताएं बना रहे हैं, जिनसे बचना चाहिए.
जी हां, यह बिल्कुल साफ है कि मुजरिम करार दिए जाने की टाइमिंग महज इत्तेफाक नहीं है. मेरे लिए, यह इमरान खान के वोटरों और राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए उनके उम्मीदवारों को इशारा देना है कि आने वाले वक्त में वह न तो बाहर आने वाले हैं और न ही कमबैक कर रहे हैं. इसके उलट इमरान खान और उनके सोशल मीडिया वर्कर लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनकी पार्टी व समर्थन आगे और ज्यादा न बिखरे.
यकीनन इमरान खान कमबैक करने की कोशिश कर रहे हैं. इस बात के साथ कि आखिरकार यह यकीन किसी तरह हकीकत बन जाएगा. लंबी कैद की सजा और चुनाव लड़ने से दस साल की रोक ने उस सोच को हमेशा के लिए दफन कर दिया है.
इसके अलावा, आम चुनाव में इमरान खान जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतार रहे हैं, वे काफी हद तक मौकापरस्त और नए हैं. पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) के असल आइडियोलॉजिकल मेंबर जैसे जावेद हाशमी, अकबर एस बाबर वगैरह बहुत पहले ही जा चुके हैं. और अपेक्षाकृत ज्यादा पुराने राजनीतिक कैडर जैसे फवाद चौधरी, मुराद सईद वगैरह या तो 9 मई के मुकदमों का सामना करते हुए जेल में हैं या फरार हैं.
इसलिए अवसरवादी नए लोगों के बाड़े से कोई भी उम्मीदवार, जो अपनी सीट जीतता है, शायद बिल्कुल वैसा ही बर्ताव करेगा जैसा उन्हें करने के लिए प्रेरित करना इन सजाओं का मकसद है: सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए जीतने वाली पार्टी में शामिल होने के लिए तैयार रहें.
इसके अलावा, इमरान खान की सिर्फ वकीलों को भर्ती करने और मैदान में उतारने की रणनीति का उल्टा असर होता दिख रहा है. इन टिकटधारी वकीलों ने न तो ठीक से उनके मुकदमे की तैयारी की और न ही गंभीरता से पैरवी की.
उन्होंने PTI के उम्मीदवार के रूप में निजी फायदे के लिए इमरान खान की लोकप्रियता का फायदा उठाने के काबिल बनने के बजाय हर मौके का इस्तेमाल खुद के प्रचार के लिए किया. वे बहुत अच्छी तरह जानते थे कि इमरान का खेल खत्म हो चुका है, लेकिन वे अभी भी उनके कथित उत्पीड़न और अत्याचार का सहारा लेकर फायदा हासिल कर सकते हैं.
अपनी ओर से लगातार कोशिशों के बावजूद इमरान खान सेना के साथ समझौता क्यों नहीं कर सके? क्योंकि जनरलों के तजुर्बे उन्हें फिर से उन पर भरोसा करने की इजाजत नहीं देते हैं. वे सशस्त्र बलों के भीतर और ज्यादा बेचैनी या बगावत की एक और कोशिश बर्दाश्त नहीं कर सकते, जिसे वह जेल के बाहर होने पर निश्चित रूप से ज्यादा जोरदार ढंग से भड़काएंगे.
वैसे भी, इमरान का प्रचार तंत्र, जिसमें सोशल मीडिया सपोर्टर शामिल हैं, जेल में उनके कैद रहने के दौरान भी तूफानी रफ्तार से काम करता है. वे उस मशीन को चलाना जानते हैं क्योंकि उन्होंने ही तो इसे बनाया है, और वे जानते हैं कि यह कितनी ताकतवर है. इसे खुला छोड़ देना उनके लिए बहुत घातक होगा.
यहां तक कि इमरान खान के देश से निर्वासन का विकल्प भी दो वजहों से खारिज हो जाता है.
पहला, क्योंकि वह एक बड़बोले शख्स हैं, जिसमें राजनेताओं वाले कोई गुण नहीं हैं. वह हर तरह के झूठ और सच फैलाएंगे, खासकर अगर उन्हें ऐसी रवायत और कानूनी ढांचे वाले देश में निर्वासित किया जाता है, जो बोलने की आजादी की गारंटी देता हो. ऐसे में अरब देश या चीन बचते हैं, जहां ऐसा लगता है कि इन्हें वहां कोई स्वीकार करने वाला नहीं है क्योंकि उन्होंने इन ग्लोबल नेताओं को निजी तौर पर नाराज कर दिया है.
ऐसा लगता है कि इमरान खान ने अपनी राजनीतिक किस्मत पर अपने हाथों से ताला लगा दिया है, और उनके पास सत्ता में वापसी का कोई मुमकिन रास्ता नहीं दिख रहा है.
(गुल बुखारी एक पाकिस्तानी पत्रकार और राइट्स एक्टिविस्ट हैं. वह @GulBukhari पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)
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