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पाकिस्तान (Pakistan) के पेशावर के 4 मार्च को शिया मस्जिद पर हमला (Peshawar Mosque Attack) अफगानिस्तान और पाकिस्तान में रह रहे शिया मुसलमानों पर लगातार हो रहे अत्याचार की एक और घटना थी. इस बार ISKP ने इस हमले का दावा किया. जो हुआ वो जाहिर तौर पर साल 2014 में आर्मी पब्लिक स्कूल के हादसे के बाद पेशावर में हुई सबसे भयावह घटना थी. आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमले में 140 बच्चों की जान चली गई थी. इस हमले का दावा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने किया था.
यहां ये भी जानिए कि इस क्षेत्र के शिया मुसलमानों के साथ अत्याचार का इतिहास करीब 100 साल से भी ज्यादा पुराना है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसने नरसंहार का रूप ले लिया है. इनमें अफगानिस्तान में शिया हाजरा पर हमले, बलूचिस्तान में शियाओं के साथ अत्याचार, चाहे वो हाजरा हों या कुर्रम के शिया कबीले या फिर पाकिस्तान के पेशावर के शिया मुसलमान, ये सब एक दूसरे से जुड़े हैं.
सालों तक ये समुदाय पाकिस्तान के बलूचिस्तान और इरान के मसद भागकर जाता रहा. पर जैसा कि पहले जिक्र किया गया है, हाल में पाकिस्तान में शियाओं पर हो रहे हमलों और नरसंहार की घटनाएं सिर्फ हाजराओं तक ही सीमित नहीं हैं. अब ये नस्लीय लड़ाई से उग्र सांप्रदायिक लड़ाई में बदल गई है. जिसका सबसे ज्यादा शिकार सुन्नी आतंकी संगठनों द्वारा शिया समुदाय हो रहा है. ये वो सुन्नी आतंकी संगठन हैं जो अफगानिस्तान पर सबसे पहले सोवियत रूस और इसके बाद अमेरिका के आक्रमण के परिणामस्वरूप पैदा हुए.
चाहे अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान सुन्नी जिहादी संगठनों ने दोनों युद्धों के दौरान और इसके बीच में शिया मुसलमानों को बार बार अपना निशाना बनाया.
पेशावर हमले में 60 से ज्यादा लोग मारे गए. इनमें से करीब आधे गैर पश्तून थे. इन पर इस तरह का अत्याचार करीब 30 सालों से ज्यादा समय से चलता आ रहा रहा है. ये कुर्रम के शियाओं और क्वेटा के शिया हाजरा की तरह राजनीतिक रूप से सक्रिय और संगठित नहीं हैं. अपने क्षेत्रों में हाजरा और कुर्रम कबीले के शिया विरोध प्रदर्शन कर पाते हैं क्योंकि, कम से कम अपने क्षेत्रों में उनकी संख्या ठीकठाक है.
पेशावर के शिया पाकिस्तान में कहीं भी रहने वाले शिया मुसलमानों में सबसे ज्यादा कमजोर तबके के तौर पर उभरे हैं. उन्हें उनके ही सबसे प्रचीन शहर में अल्पसंख्यक बना दिया गया है. पेशावर में शियाओं का मोहल्ला Farsiwaan जिस पर ये हमला किया गया था. ये अफगान शासन के भी पहले से, अहमद शाह अब्दाली के समय से भी पहले से है.
पेशावर के शियाओं पर पहला हमला साल 1992 में सिपह-ए-सहाबा ने किया था. तब से इन्हें निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि, इन हमलों ने सबके मन में ये डर पैदा कर दिया कि कोई भी इस बारे में कुछ नहीं कर सकता. पाकिस्तान ने सीधे इससे मुंह मोड़ लिया और सबसे खतरनाक ये है कि सरकार और ऐसे हमलों को बढ़ावा देने वालों ने दबाव बनाया कि इसे अनदेखा किया जाए कि किसे किस बात के लिए निशाना बनाया जा रहा है?
साल 2021 में तालिबान के सामने काबुल के पतन के बाद मानव अधिकारों के उल्लंघन की घटनाएं सिर्फ अफगानिस्तान में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के पश्चिमी सीमाई क्षेत्रों में बढ़ी हैं. यहां तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान को बढ़ावा मिला है और ISKP को भी खुद की पहुंच को बढ़ाने के लिए जगह मिली है.
वहीं पाकिस्तान का सुन्नी जिहादियों के सभी संगठनों को समर्थन, उनके साथ सांठ गांठ और ये दिखावा करना कि सरकार उनसे लड़ रही है, इसका परिणाम है कि देश में आतंकवाद बढ़ रहा है.
अफगानिस्तान में पाकिस्तान का तालिबान को समर्थन देना और ISKP की पहुंच को बढ़ाना जिससे वो इसका इस्तेमाल भविष्य में कर सके, अब इसका उल्टा असर दिखने लगा है, जिसे कोई भी भांप सकता है.
हर तरफ से घिरे शिया जाहिर तौर पर सबसे पहला और सॉफ्ट टार्गेट हैं, जो हर किसी के निशाने पर हैं. ये बात सभी जानते हैं कि बलूचिस्तान में लश्कर-ए-झांगवी को दशकों तक खुला हाथ मिला हुआ था और इसने शिया मुसलमानों को निशाना बनाया. ये धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादियों को हटाने के बदले था.
2001 और 2021 के बीच अमेरिका के कब्जे के 20 सालों के अंतराल को अगर छोड़ दिया जाए तो 1970 के बाद के दशक से राष्ट्र के तौर पर अफगानिस्तान का अस्तित्व मुश्किल से ही रहा है. वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान का अस्तित्व एक मजबूत देश के तौर पर रहा है और इसके पास मजबूत सेना भी है.
हो सकता है कि कभी न खत्म हुए युद्ध की वजह से अफगानिस्तान अपने यहां शिया समुदाय को सुरक्षा न दे पाया हो, लेकिन पाकिस्तान शिया मुसलमानों के प्रति हमेशा से उदासीन रहा है और सबसे बुरा ये है कि इसने शियाओं के खिलाफ अत्याचार और हमले की घटनाओं को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया.
यहां दुखद सच ये है कि तथाकथित रूप से पाकिस्तान के प्रगतिशील पश्तून ने, शिया मुसलमानों पर हुए इस हमले को पश्तूनों पर हमले का रंग देने की कोशिश की क्योंकि, ये घटना पेशावर में हुई थी.
वहीं शिया मुसलमानों के मामले में सरकार उनकी पहचान को मिटाने में मदद कर रही है जिससे वो पूरी तरह से गुमनामी में चले जाएं और उन्हें भुला दिया जाए.
दुखद रूप से इस घटना के बाद एक एक आंतरिक कमी भी खुलकर सामने आ गई है जो दिखाती है कि शियाओं और उनकी पहचान को लेकर पश्तून राष्ट्रवादियों में सहानुभूति की कितनी कमी है. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. लेकिन अब सबकुछ सार्वजनिक रूप से सामने आ गया है.
पहले भी किसी भी पश्तून राजनीतिक दल या इनके नेताओं ने शियाओं के प्रति सहानुभूति नहीं दिखाई, जब शिया मुसलमानों को इसकी जरूरत थी.
इसका सबसे खराब पहलू ये है कि शिया मुसलमान पाकिस्तान के लिए हमेशा से ही महत्वहीन और गैरजरूरी रहे हैं जबकि ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो शिया सरकार और देश के पक्के समर्थक रहे हैं.
इस हमले में एक ऐसे भी व्यक्ति की मौत हुई जो पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान की जीत का प्रशंसक रहा था. ये दुखद है कि इसका कोई हल नजर नहीं आता. शिया मुसलमान इन हमलों में लगातार मारे जा रहे हैं और दुनिया का ध्यान इस तरफ नहीं है
(गुल बुखारी, पाकिस्तानी पत्रकार और मनवाधिकारों के लिए काम करने वाली एक्टिविस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @GulBukhari है. इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं.)
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