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G20 में बाइडेन-जिनपिंग मिले तो मोदी और चीनी राष्ट्रपति में बात क्यों नहीं हुई?

जैसे अमेरिका चीन के बीच टकराव के कई मसले हैं वैसे ही दिल्ली-बीजिंग के बीच कई विवाद हैं

मनोज जोशी
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत और चीन के बीच, बीजिंग और वॉशिंगटन से कम अहम मसले नहीं हैं</p></div>
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भारत और चीन के बीच, बीजिंग और वॉशिंगटन से कम अहम मसले नहीं हैं

(Photo: Erum Gour/The Quint)

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बाली में जी-20 बैठक से इतर, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आमने-सामने पहली बैठक से सवाल उठता है: शी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच ऐसी ही किसी बैठक की योजना क्यों नहीं बनाई गई?

भारत, चीन और अमेरिका के नेताओं ने विभिन्न देशों के प्रमुख नेताओं के साथ कई द्विपक्षीय बैठकें कीं, लेकिन भारत-चीन के बीच ऐसी कोई वार्ता नहीं हुई.

जब द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मुद्दों की बात आती है, तो भारत और चीन के बीच, बीजिंग और वॉशिंगटन से कम अहम मसले नहीं हैं. अगर नवंबर 2020 में बाइडेन के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से जिनपिंग उनसे नहीं मिले हैं, तो 2019 की चेन्नई शिखर वार्ता के बाद से मोदी से भी उनकी व्यक्तिगत मुलाकात नहीं हुई है.

शी-मोदी की द्विपक्षीय मुलाकात दूर की कौड़ी क्यों लगती है?

ऐसी उम्मीदें थीं कि सितंबर में समरकंद में एससीओ शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पूर्वी लद्दाख में गोगरा हॉटस्प्रिंग्स के पास पीपी15 से चीनी और भारतीय सैन्य बलों की वापसी के बाद शी-मोदी की मुलाकात होगी.

हालांकि दोनों नेता व्यक्तिगत रूप से एससीओ शिखर सम्मेलन में मौजूद थे लेकिन उनकी सीधी मुलाकात की कोई जानकारी नहीं मिली, न ही दोनों के बीच दुआ-सलाम की कोई खबर आई. रिपोर्ट्स के मुताबिक 15 नवंबर 2022 को बाली में दोनों नेता एक दूसरे के सामने आए थे, लेकिन बातचीत नहीं हुई.

अमेरिका और चीन के बीच ताइवान, अमेरिकी निर्यात प्रतिबंध, यूक्रेन से संबंधित मुद्दों आदि पर तनाव रहा है. लेकिन शी-बाइडेन शिखर सम्मेलन के बाद वातावरण कुछ शांत है. ऐसा लगता है कि दोनों नेताओं ने स्थिति की गंभीरता को समझ लिया है और अपनी कड़वी जुबान को काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.

भारत-चीन सीमा पर टकराव ने दूरियां बढ़ाई हैं

भारत और चीन के बीच स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है. हालांकि दोनों पक्षों ने पूर्वी लद्दाख के पांच में से तीन क्षेत्रों से वापसी कर ली है, जहां चीनियों ने 2020 में नाकाबंदी की थी. लेकिन तब से वहां कोई गतिविधि नहीं हुई. सबसे महत्वपूर्ण डेपसांग क्षेत्र है, जहां भारतीय सेना को 900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में गश्त करने से रोका गया, जिस पर वह दावा करता है.

सेना प्रमुख मनोज पांडे ने कहा है कि स्थिति जस की तस है. उन्होंने कहा कि लद्दाख में हालात "स्थिर लेकिन अप्रत्याशित" हैं. उन्होंने आगे कहा कि जहां तक पीएलए के सैन्य बलों की मौजूदगी का सवाल है, तो उसमें "कोई महत्वपूर्ण कमी नहीं हुई है."

जब यूक्रेन की बात आती है तो भारत और चीन एक ही तरफ हैं लेकिन भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ खड़ा है. वह नियमित रूप से अमेरिका और उसके ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे सहयोगियों के साथ सैन्य अभ्यास करता है. मिसाल के तौर पर हाल ही में जापान के मालाबार अभ्यास में भारत ने भी भाग लिया था.  
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क्या नई दिल्ली और बीजिंग इसे युद्धविराम कह सकते हैं?

जैसा कि साफ है, चीन और अमेरिका के बीच शिखर वार्ता के लिए यह उपयुक्त समय है लेकिन नई दिल्ली और बीजिंग के लिए हम यह बात नहीं कह सकते. हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में पिछले हफ्ते विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि “जब तक सीमावर्ती क्षेत्रों में अमन-चैन नहीं होता… जब तक समझौतों का पालन नहीं किया जाता और यथास्थिति को बदलने का कोई एकतरफा प्रयास नहीं होता… स्थिति सामान्य नहीं हो सकती, स्थिति सामान्य नहीं है.”

अमेरिका और चीन कहीं भी, सीधे तौर पर एक-दूसरे से भिड़ते नहीं हैं. ताइवान को लेकर अमेरिका में जबरदस्त डर है, और इसीलिए दोनों के बीच तनाव पैदा हुआ है. फिलहाल बीजिंग के पास वह सैन्य क्षमता नहीं कि वह ताइवान में दखल दे.  

इसके अलावा ऐसी किसी दखल के कारण चीन को अमेरिका और जापान के साथ युद्ध करना पड़ेगा, जिससे चीन की सैन्य योजना पटरी से उतर सकती है. दूसरे शब्दों में ताइवान पर हमला करने के लिए चीन को अमेरिका और जापान की क्षमताओं को बेअसर करना होगा, या फिर ये दोनों देश इस मामले में दखल देंगे और चीन को उसका खामियाजा उठाना पड़ेगा.

मोदी को शायद लगता है कि शी के साथ बातचीत करके वह अपनी उंगलियां जला चुके हैं. 2018 और 2019 के दो "अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों" को चीन-भारतीय संबंधों का एक नया दौर बताया गया था लेकिन फिर भी, 2020 में चीन ने लंबे समय से लागू समझौतों का उल्लंघन किया और बेहिचक होकर एलएसी पर सैनिकों का जमावड़ा लगाया. उसने उन इलाकों में भारतीय सैनिकों को गश्त लगाने से भी रोका जहां दोनों देश अपने स्वामित्व का दावा करते हैं.

दोनों नेताओं को कूटनीतिक मोर्चे पर कदम बढ़ाने की जरूरत है

पूर्वी लद्दाख के हादसों की संजीदगी पर परदा डाला गया. मीडिया को मैनेज किया गया. इस तरह मोदी को उस तीखी आलोचना का सामना नहीं करना पड़ा, जिसे 1959 के कोंगका ला कांड के बाद नेहरू ने झेला था. इसकी एक वजह यह भी थी कि घरेलू स्तर पर विनाशकारी कोविड संकट से निपटना था. वह संकट जिससे देश बेहाल था और लाखों लोगों की जानें गई थीं.

अब भी सरकार ने खुलासा नहीं किया है कि देपसांग क्षेत्र में भारतीय सेना को किस हद तक गश्त लगाने से रोका गया था. गलवान घटना के बारे में कुछ आधिकारिक जानकारी दी गई, खासकर उन सैनिकों की संख्या बताई गई है जिन्हें उस समय बंदी बनाया गया था और जिन परिस्थितियों में भारत ने 20 सैनिकों को गंवाया था.

सैन्य विरोधी और पड़ोसी होने के नाते भारत और चीन को वैसा ही रुख अख्तियार करना चाहिए जैसा बीजिंग और वाशिंगटन ने अपनाया है. यानी अपने संबंधों की हदें तय करनी चाहिए ताकि स्थितियों को काबू में रखा जा सके.

पिछले दो वर्षों में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों जयशंकर और वांग यी ने कूटनीतिक कदम उठाए हैं. इसलिए अब राष्ट्र प्रमुखों, मोदी और शी को भी आगे बढ़ना चाहिए और चीन-भारत रिश्तों से अपनी जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए.

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं)

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