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मैं एक हैरान करने वाला आर्थिक सपना देख रहा था....
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे महत्वाकांक्षी हेल्थकेयर इंश्योरेंस स्कीम" लॉन्च कर दी थी, जिसे बड़े गर्व के साथ मोदीकेयर का नाम दिया गया था. इस स्कीम के तहत भारत के सभी 26 करोड़ घरों/परिवारों को हर साल इलाज पर हुए 5 लाख तक के खर्च का भुगतान किया जाना था. इस ऐलान पर दी जा रही बधाइयों का शोर अभी संसद में चल ही रहा था कि अचानक देश में एक महामारी फैल गई. किसी साइंस फिक्शन फिल्म की तरह देशभर में 26 करोड़ भारतीय बीमार पड़ गए, यानी हरेक परिवार में एक-एक.
मोदी ने अपना सुपरमैन वाला लबादा पहना और उड़ते हुए सारे देश में घूमने लगे, ताकि हर मरीज को 5 लाख रुपये जरूर मिल जाएं. दुर्भाग्य से सभी 26 करोड़ बीमार लोगों की मौत हो गई, लेकिन भारतीय अस्पतालों की आमदनी में सीधे-सीधे 130 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हो गया.
तभी मैं सपने के दूसरे सीक्वेंस में जा पहुंचा....
प्रधानमंत्री मोदी एक जाने-पहचाने स्टेडियम में नजर आ रहे थे, जो कुछ न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वॉयर गार्डन जैसा और थोड़ा लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल जैसा दिख रहा था. वो एक मंत्रमुग्ध करने वाला भाषण दे रहे थे:
सपने अविश्वसनीय तेजी के साथ बदल सकते हैं...
आप पलक झपकाए बिना ही एक असंभव स्थिति से दूसरी असंभव स्थिति में पहुंच सकते हैं... तो मैं भी हिचकोले खाता एक गुजरे जमाने में जा पहुंचा. वो 18 मार्च 1968 की तारीख थी, जब सीनेटर बॉबी कैनेडी यूनिवर्सिटी ऑफ कैनसस में अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे :
"हमारे ग्रॉस नेशनल प्रोडक्ट में वायु प्रदूषण और सिगरेट के विज्ञापनों का भी योगदान होता है, और उन एंबुलेंस का भी, जो हमारे राजमार्गों पर मौत का तांडव मचने के बाद उसे फिर से चालू करने के काम आती हैं. बम बनाने में इस्तेमाल होने वाली पेट्रोलियम जेली और मिसाइलों के सिरों पर लगाए जाने वाले परमाणु बमों को भी इसमें जगह दी जाती है.....इसमें चार्ल्स व्हिटमैन और रिचर्ड स्पेक जैसे नरसंहार करने वाले खूनी दरिंदों की राइफल और छुरे के लिए भी जगह है और उन टीवी कार्यक्रमों के लिए भी, जो हमारे बच्चों को खिलौने बेचने के लिए हिंसा को महिमामंडित करते हैं. लेकिन उनकी शिक्षा के स्तर या खेलकूद के आनंद के लिए इसमें कोई जगह नहीं है. हमारी कविताओं का सौंदर्य या विवाह की मजबूती इसमें शामिल नहीं हैं और न ही सार्वजनिक बहसों में झलकने वाली हमारी समझदारी या हमारे सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी के लिए इसमें कोई स्थान है. इसमें न तो हमारे हास्यबोध को शामिल किया जाता है और न ही हमारे साहस, विवेक या सीखने की क्षमता को. अपने देश के प्रति हमारे प्रेम और समर्पण की भी इसमें कोई गणना नहीं होती. संक्षेप में कहें, तो इसमें हमारे जीवन को सचमुच में समृद्ध बनाने वाली चीजों के अलावा, बाकी तमाम चीजों को जोड़ा जाता है."
मेरे सपने में मोदी और कैनेडी के भाषणों पर बजी तालियों की गड़गड़हाट आपस में गड्डमड्ड होकर और भी तेज हो गई. और जैसा कि अक्सर होता है, नींद में सुनाई दे रहा वो शोर, धीरे-धीरे टीवी से आती तालियों की असली गड़गड़ाहट में घुल-मिल गया...मेरी आंख खुली और मैं नींद की दुनिया से असली दुनिया में आ पहुंचा....
इस असली दुनिया में प्रधानमंत्री मोदी साक्षात मौजूद थे, अपना एक और नाटकीय भाषण देते हुए. मौका था मंगलवार (26 जून 2018) को मुंबई में हो रही एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक की सालाना आम बैठक का :
आप जैसे ही इन कड़वी सच्चाइयों पर गौर फरमाना शुरू करेंगे, आपको GDP पर मोदी के जोशीले भाषण का खुशनुमा गुलाबी रंग, गुस्से और खतरे के लाल रंग में बदलता दिखने लगेगा.
ऊपर दी गई दलीलों से आप अब तक ये समझ गए होंगे कि GDP किसी देश की आर्थिक सेहत का सही और सटीक पैमाना नहीं है. ये एक ऐसा पैमाना है, जिसमें हमेशा "बेहतर" की बजाय "ज्यादा" पर जोर रहता है.
अब मैं आपको इस बारे में सबसे चौंकाने वाले और अकाट्य आंकड़े बताता हूं. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो कौन से पांच साल रहे होंगे, जब अमेरिका के GDP ने 75 फीसदी, ब्रिटेन के GDP ने 27 फीसदी और जर्मनी के GDP ने 21 फीसदी से ज्यादा की छलांग लगाई थी? ये वक्त था सन 1938 से 1943 का, जब दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तबाही के क्रूरतम दौर ने धरती को अपनी चपेट में लिया हुआ था. दसियों लाख लोग मारे गए थे, बमबारी ने शहरों को मलबों के ढेर में बदल दिया था, समंदर में जहाज डुबोए जा रहे थे, विमान क्रैश हो रहे थे.... लेकिन अगर GDP ही सब कुछ है, तब तो इन हालात में जश्न मनाना चाहिए, क्योंकि युद्ध में शामिल देशों के GDP तेजी से बढ़ रहे थे (साथ ही उनका खून में सना झूठा घमंड भी).
चलते-चलते: मुझे गलत न समझें. मैं GDP ग्रोथ का विरोधी बिलकुल भी नहीं हूं. मैं तो मानता हूं कि GDP ग्रोथ का ज्यादातर हिस्सा आमतौर पर लोगों के जीवन स्तर में वास्तविक सुधार आने का ही संकेत होता है. दरअसल मैं GDP में तेजी से सुधार लाए जाने का बड़ा समर्थक हूं. लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है कि प्रधानमंत्री मोदी 2019 में सत्ता में वापसी करने के लिए समृद्धि का जो हसीन सपना दिखा रहे हैं, वो असल में "ग्रॉस इकनॉमिक जुमला" साबित हो सकता है.
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Published: 30 Jun 2018,12:46 PM IST