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मैं जानता हूं कि आज देश एक आर्थिक मंदी में है; लेकिन मैं 130 करोड़ देशवासियों को ये विश्वास दिलाता हूं कि हम जल्द ही इसे आर्थिक जोश में बदल देंगे!
मैं लाल किले की प्राचीर से ये शब्द सुनने के लिए बेताब था. मैं चाहता था कि अर्थव्यवस्था को सुकून देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी अपनी प्रसिद्ध भाषणकला और उम्मीद जगाने वाले कौशल का इस्तेमाल करें. लेकिन अफसोस, उन्होंने तो ये तक स्वीकार नहीं किया कि देश में मांग और निवेश में भारी मंदी है. इसकी बजाय उन्होंने अपना नुस्खा वही पुराना रखा, नयेपन के नाम पर बस उसमें घरेलू पर्यटकों का आह्वान था!
इसलिए मैं लाल किले से ‘गुलाबी’ किले की तरफ मुड़ गया...
मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि 2016-19 तक मैं मोदी-नॉमिक्स का मुखर आलोचक था. सबूत के लिए आप ये आर्टिकल्स पढ़ सकते हैं: मोदी राज यानी लिबरलाइजेशन के बाद सबसे ज्यादा दखल देने वाली सरकार और पार्ट 2: मोदीजी! अगर वापस आएं, तो इकनॉमी की 10 गड़बड़ी सुधार दें.
आज का भाषण सुनने के बाद, मैंने अपने आप को लगभग समझा लिया था कि मोदी-नॉमिक्स 2.0 में कुछ नहीं बदलेगा जब तक कि मेरी नजरें इस उद्धरण पर नहीं पड़ीं (12 अगस्त 2019 के इकोनॉमिक टाइम्स से) :
वेल्थ क्रिएटर्स को लगभग देवतुल्य मानने के आज के उनके बयान से ये मेल खाता है- जो इस बात की काफी हद तक स्वीकारोक्ति है कि उनका शासनकाल उन पर अभी तक बेहद सख्त रहा है. मुझे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था! क्या प्रधानमंत्री मोदी कुछ नया करने जा रहे हैं? अपने बाबुओं (अफसरशाहों) की ज्यादतियों को स्वीकार करने के इच्छुक हैं? ये मान रहे हैं कि शासन जरूरत से ज्यादा निगरानी करने और खतरनाक ज्यादतियों का दोषी था? क्या वो अंत में निजी उद्यम की वकालत करनेवालों पर भरोसा कर रहे हैं और “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” के अपने वादे पर लौट रहे हैं, जिसे बार-बार तोड़ा गया है?
इसलिए मैंने उनके 3 पन्नों के इंटरव्यू को गहराई से पढ़ा ताकि आज के भाषण में किसी कमी या उनकी चुप्पी की भरपाई हो सके. ये बेशकीमती बातचीत भारत की अर्थव्यवस्था के लिए “एक गुलाबी अखबार की प्राचीर” से स्वतंत्रता दिवस के किसी संबोधन से कम नहीं थी. उन्होंने कई जगहों पर वॉल स्ट्रीट की भाषा का इस्तेमाल किया था, जिनका मकसद बाजार को खुश करने का लगता था (जिन शब्दों पर नीचे जोर दिया गया है, वो किसी एमबीए 1.0 से खुलकर उधार लिए गए लगते हैं):
लेकिन अफसोस, अफसरशाही जिंदा है और पूरा जोर लगा रही है
जब मैंने इंटरव्यू को पूरे विस्तार से पढ़ा, मुझे अफसरशाही की वही पुरानी, डरावनी आदतें दिखने लगीं. वो शब्दावली जिसने मोदी-नॉमिक्स 1.0 को राज्य के नियंत्रण से बांधकर रखा था, वो एमबीए के समान गढ़े गए मोदी के वाक्यों में साफ-साफ छिपे थे.
मोदी: मैं अपने उद्योगपतियों को भारत की ग्रोथ स्टोरी और भारतीय बाजार की दीर्घकालिक संभावनाओं में भरोसा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता हूं.
मेरा जवाब: मोदी के नौकरशाहों ने उनके पहले कार्यकाल के पांच वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने में अपनी नाकामी को छिपाने के लिए भारत की “दीर्घकालिक संभावनाओं” का उपयोग किया था. और अब जबकि हम उनके दूसरे कार्यकाल की बिल्कुल शुरुआत में कहीं गहरे डर से घिर गए हैं, वो फिर से उसी पुरानी चाल में हमें फंसाना चाह रहे हैं कि “चीजें अभी गलत हैं, लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है, हम लंबी अवधि में इसे ठीक कर लेंगे”. मैं अपने आप को कीन्स का मुहावरा “लंबी अवधि में हम सभी मर जाते हैं” इस्तेमाल करने से नहीं रोक पा रहा, लेकिन इसका मतलब यही होगा कि मैं एक मुहावरे का इस्तेमाल दूसरे मुहावरे को काटने के लिए कर रहा हूं. सच्चाई ये है कि मोदी को अब व्यापक रूप से फैली आर्थिक मंदी को दूर करने के लिए “बिल्कुल छोटी अवधि” के बारे में सोचना चाहिए. मिसाल के लिए, जब ऑटो इंडस्ट्री चार साल पहले के उत्पादन-स्तर तक गिरने के खतरे में है, तो आपको “इस छोटी अवधि” के लिए कदम उठाने की जरूरत है, ना कि 2025 के किसी निराकार सपने के लिए.
मोदीः “बिजनेस करने में आसानी” के मामले में भारत की ‘ऐतिहासिक’ कामयाबी… “ये उल्लेखनीय है कि 4 साल की छोटी अवधि में 1.25 अरब से ज्यादा के देश ने 65 पायदान की उछाल लगाई है”.
मेरा जवाब: प्रिय प्रधानमंत्री, मैं जानता हूं कि आपने आज इसका विस्तार “जीवन जीने में आसानी” तक कर दिया, लेकिन कृपया आप अपनी गढ़ी हुई पौराणिक कथाओं पर विश्वास करने ना लग जाएं. हममें से ज्यादातर मान लेते हैं, नादानी में, कि वर्ल्ड बैंक का ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ इंडेक्स आर्थिक प्रदर्शन का गोल्ड स्टैंडर्ड है. वास्तव में ये एक कुछ नियम-कायदों का बेहद संकीर्ण, यहां तक कि भ्रामक, परिणाम है जो भारत की बड़ी आबादी के बहुत, बहुत छोटे हिस्से- पांच प्रतिशत से भी कम- के लिए मायने रखता हैः
*ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ मुंबई और दिल्ली के कुछ दर्जन विशेषज्ञों की व्यक्तिगत राय से निकाला जाता है. बस इतना ही!
* ज्यादातर सुधार केवल चार नियमों से आ गए जिन्हें आनन-फानन में “सिस्टम को तोड़ने-मरोड़ने” के रुख से बदल डाला गया:
इसलिए, मैं इसे दोबारा कहूंगा. बस इतना ही! और इस तथ्य पर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि तीन प्रमुख पैमानों-- टैक्स चुकाने, दिवालियापन का समाधान करने और कॉन्ट्रैक्ट्स को लागू कराने-- पर तो हम वास्तव में नीचे आए हैं.
सच पूछिए तो, मोदी-नॉमिक्स 2.0 के लिए ये बिल्कुल सही समय है कि वो ऐसी छोटी-मोटी चीजों का इस्तेमाल करना छोड़ दे, जो हमें केवल मूर्ख बनाती हैं कि “सब कुछ अच्छा है” जबकि कच्चे माल के बाजारों, या रुकी हुई परियोजनाओं, या जबरन टैक्स वसूली की नीतियों, या घुसपैठ की तरह छापों के मामलों में शायद ही कोई सुधार हुआ है, जो बिजनेस करने में मुश्किलों को कई गुना बढ़ाते हैं.
मोदी: क्षमता उपयोग के 75 फीसदी के पार जाने के साथ ही, हम आने वाले महीनों में प्राइवेट सेक्टर की तरफ से निवेश में बढ़ोतरी देखेंगे.
मेरा जवाब: आपको पता है निजी निवेश में कमजोरी के लिए हमने “75 फीसदी क्षमता उपयोग” का मुहावरा पहली बार कब सुना था? 2014 में. फिर 2015, 2016, 2017, 2018...और अब 2019 में. एक बार फिर, असली वजहों को छिपाने के लिए ये एक नौकरशाही धोखेबाजी है, और असली वजह हैं:
मैं आगे भी बोलता रह सकता हूं, लेकिन उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा. सच्चाई ये है कि प्रधानमंत्री मोदी ने, “गुलाबी” किले की प्राचीर से अपने संबोधन में, बाजार के लिए अनुकूल अर्थव्यवस्था का आह्वान तो किया; लेकिन रायसीना हिल के उनके नौकरशाह इसी जिद पर अड़े हैं कि सरकार ही नीतियों को सबसे अच्छा समझती है. इसमें बदलाव आना ही चाहिए. कैसे? इसे किसी और दिन के लिए रखते हैं.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं!
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Published: 16 Aug 2019,01:46 PM IST