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स्वतंत्रता दिवस पर PM मोदी का भाषण: मध्यम वर्ग के लिए चिंता की वजह

आजादी के बाद से सरकारों ने जैसे अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तय की, उनमें मोदी का नजरिया अर्थव्यवस्था का तीसरा चरण है.

ऑनिंद्यो चक्रवर्ती
नजरिया
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प्रधानमंत्री के आत्ममुग्ध भाषण से साफ है कि सरकार आर्थिक विकास को बिलकुल अलग नजरिये से देख रही है.
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प्रधानमंत्री के आत्ममुग्ध भाषण से साफ है कि सरकार आर्थिक विकास को बिलकुल अलग नजरिये से देख रही है.
फोटो: द क्विंट 

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एक आशंका भयानक रूप से सता रही है- मंदी की आशंका. लेकिन अगर आप स्वतंत्रता दिवस 2019 पर पीएम मोदी के भाषण के नजरिये से भारत की अर्थव्यवस्था को आंकेंगे, तो आपको ये आशंका कहीं दिखेगी. भाषण में कहीं भी इस आशंका पर कुछ भी नहीं कहा गया.

सिर्फ एक वक्त आया, जब अनजाने में सच्चाई जुबान से फिसल गई. 90 मिनट के भाषण में करीब एक घंटे बाद वो वक्त आया. उन्होंने बड़ी सहजता के साथ कह डाला, जिसे मैं कीन्स का आर्थिक सिद्धांत कहूंगा – “हमारे अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स बहुत ही मजबूर हैं.” हालांकि फौरन उन्होंने अपनी गलती सुधारी और मजबूर को मजबूत में बदल डाला.

जहां तक भारत की अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स का सवाल है, तो शायद जुबान की वो फिसलन ज्यादा सटीक है. मुख्यधारा के आर्थिक विज्ञान, मसलन, GDP, IIP, कॉरपोरेट लाभ, रोजगार, कर्ज में बढ़ोत्तरी, निर्यात में बढ़ोत्तरी जैसे मानकों की बात करें, तो वो जुबानी फिसलन ही सही है.

प्रधानमंत्री के आत्ममुग्ध भाषण से साफ है कि सरकार आर्थिक विकास को बिल्कुल अलग नजरिये से देख रही है.

भारत की 10% आबादी पर अर्थव्यवस्था का असर?

आजादी के बाद से सरकारों ने जिस प्रकार अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तय की, उनमें मोदी का नजरिया अर्थव्यवस्था का तीसरा चरण है. पहला चरण नेहरू का ‘State Capitalism’ था. इस चरण में सरकार का अर्थव्यवस्था पर सबसे ज्यादा अधिकार था. इस चरण में भारी उद्योग, बिजली, ढांचागत विकास जैसे मदों में निवेश किये गए. इंदिरा गांधी के समय तो सरकार ने पूरे वित्तीय क्षेत्र पर नियंत्रण रखा. पूंजी पर नियंत्रण और करों के माध्यम से सरकार ने ‘आयात के विकल्पों’ को बढ़ावा दिया, जिससे भारत के नवोदित निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन मिला.

आजादी के बाद से सरकारों ने जिस प्रकार अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तय की, उनमें मोदी का नजरिया अर्थव्यवस्था का तीसरा चरण है.फोटो:iStock

दूसरा चरण अर्थव्यवस्था और संसाधनों का निजीकरण था, जिसकी शुरुआत 80 के दशक के शुरू में इंदिरा गांधी के दोबारा सत्ता में लौटने के बाद हुई. उनके बेटे राजीव ने इस प्रक्रिया को तेज किया. 1990 के दशक में राव-मनमोहन की अगुवाई में उदारीकरण अपने चरम पर पहुंच गया. अब तक इंडिया इंक वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए पूरी तरह मजबूत हो चुका था और पूंजी के विकास पर ध्यान दिया गया. कर में छूट दी गई और विशेषकर वित्त-पूंजी क्षेत्र में विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिये गए.

वैश्वीकरण और उदारीकरण ने कई दूसरी प्रक्रियाओं को भी जन्म दिया: इसने कॉरपोरेट सेक्टर एग्जेक्यूटिव्स, निर्यातकों, व्यापारियों और छोटे उद्यमियों को जन्म दिया, जिन्होंने जमकर कमाई की.
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इनके साथ ही अकादमिक जगत में एक नया वर्ग विकसित हुआ – पत्रकारों, अकादमिक बुद्धिजीवियों, वकीलों, लेखकों, कलाकारों ने खुले बाजार और निजी उद्यमों की मौजूदगी का लाभ उठाया और जन धारणा विकसित करने में मदद की. ये वर्ग प्रभावशाली बनता गया. पिछले लगभग 25 सालों से भारत की करीब 10 प्रतिशत आबादी वाला ये वर्ग ही तय करता था, कि देश की अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा क्या होनी चाहिए.

मोदी का ‘तीसरे चरण’ की अर्थव्यवस्था

नरेंद्र मोदी ने एक तीसरा चरण शुरू किया है. भारत में करीब 90 करोड़ वोटर हैं और केवल 40 करोड़ मजदूर हैं. अगर इनमें काम करने में असमर्थ वृद्धों को गिनती से बाहर रखा जाए, तो भी करीब 30 करोड़ मजदूर बचते हैं. इस वर्ग को सभी समय काम नहीं मिलता. वो सरकारी अनुदानों पर निर्भर हैं. GDP, विकास, औद्योगिक उत्पादन, पूंजी का निर्माण और यहां तक कि विमुद्रीकरण का उनपर कोई असर नहीं पड़ता. मोदी की अर्थव्यवस्था में इसी वर्ग को निशाना बनाया जा रहा है. उन्हें रोजगार नहीं दिया जाता है, बल्कि उन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाता है.

मोदी की अर्थव्यवस्था(फोटो: iStock)

मोदी के पहले कार्यकाल में हम पहले ही इसकी झलक देख चुके हैं, जिसमें गरीब तबके को सरकार के सम्पर्क में आने के ‘contact-points’ दिये जाते थे. इसका बंपर चुनावी फायदा मिला. इस स्वतंत्रता दिवस पर पीएम मोदी का भाषण उसी नजरिये पर आधारित था.

मकसद है विभिन्न प्रकार के सम्पर्क माध्यमों का विस्तार – बिजली, आवास, गैस, बैंकिंग, प्रत्यक्ष आर्थिक मदद, और अब पीने का पानी.

ये एक लंबी योजना है, जिसका मकसद भारी संख्या में ऐसे लोग (या वोटर) तैयार करने हैं, जो सीधे तौर पर सरकारी योजनाओं से जुड़े हों.

जिन 3 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार नहीं मिल रहा, उनका क्या होगा?

उन 3 करोड़ लोगों का क्या होगा, जो रोजगार तलाश रहे हैं, लेकिन रोजगार का दूर-दूर तक अता-पता नहीं? उन मध्यम क्रम के एग्जेक्यूटिव्स का क्या होगा जिनकी पगार नहीं बढ़ रही, या जिनकी नौकरी जाने का खतरा है? भारत के छोटे, मध्यम और बड़े उद्यमों का क्या भविष्य है, जिनकी रफ्तार धीमी पड़ गई है?

उन 3 करोड़ लोगों का क्या होगा, जो रोजगार तलाश रहे हैं (फोटो: iStock)
एक प्रकार से पीएम नरेंद्र मोदी ने ऐसे तमाम सवालों पर चुप्पी साध ली.

साफ है, सरकार मानती है कि मध्यम वर्ग के उपभोग पर आधारित विकास के दिन पूरे हो चुके हैं. लगता है कि जिन लोगों में उपभोग की क्षमता है, सरकार उनके पर कतरने की तैयारी में है. अगर कार और घरों की बिक्री नहीं होती, तो सरकार को कोई परवाह नहीं. देश की उस 10 फीसदी आबादी के लिए सरकार के पास कुछ भी नहीं, जो हमारे उत्पादों के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. इसके बजाय वो चाहती है कि ये वर्ग खुद को गरीब वर्ग के समीप पाए.

स्वतंत्रता दिवस के भाषण में पीएम ने “उच्च और मध्यम वर्ग” से कह डाला कि वो अपनी विदेश यात्राएं और टूरिस्ट स्पॉट में छुट्टियां मनाने के ख्वाब देखने बंद कर दें.

उन्होंने कहा कि वो टूरिस्ट स्पॉट जैसी जगहों पर छुट्टियां बिताने का ख्याल छोड़ दें ताकि उनके बच्चों को तकलीफ झेलने की आदत हो जाए और वो समझ जाएं कि “यही हमारा देश है.” ये बयान धनी वर्ग के लिए साफ संकेत है.

पीएम ने धनवानों के प्रति आम लोगों के गुस्से को भी संबोधित किया और उनसे कहा कि वो धनी लोगों के प्रति हीन भावना त्याग दें.

राष्ट्रीय गौरव को ‘लगातार’ प्रोत्साहन

ये कोशिश सरकार, समाज और अर्थव्यवस्था के रिश्तों को फिर से परिभाषित करने की नई योजना है. अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी राष्ट्रीय गौरव को ‘लगातार’ प्रोत्साहन देना चाहते हैं, जिसमें एकीकृत और समरूप लोग हों. धनी वर्ग से अपील है कि वो राष्ट्र-सरकार और घरेलू अर्थव्यवस्था के बीच मजबूत सामंजस्य स्थापित करने के ख्वाब देखना छोड़ दें. भारत में बने स्थानीय सामानों की खरीद की अपील यही कहती है – “भाग्यशाली बनना है, तो स्थानीय सामान खरीदें.”

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी राष्ट्रीय गौरव को ‘लगातार’ प्रोत्साहन देना चाहते हैंफोटो:ANI
ये राष्ट्रीय उद्योगों को समर्थन देने के लिए कीमत और गुणवत्ता का ध्यान त्यागने की भावुक अपील है.

इस सोच को आसानी से खारिज किया जा सकता है, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें ख़ासकर अधिकारवादी समाज में ऐसे ‘राष्ट्रवादी उपभोक्तावाद’ को आम जनता के बीच भारी समर्थन मिलता रहा है. चीन में 2016 में यही हुआ, जब द हेग ने दक्षिणी चीन सागर पर चीन का दावा खारिज कर दिया. लोगों ने अमेरिकी सामानों का बहिष्कार किया, जिनमें आईफोन और केएफसी भी शामिल थे, क्योंकि इस फैसले के पीछे अमेरिका का हाथ होने की आशंका जताई जा रही थी. लड़ाई के बाद जापान में भी ऐसा ही हुआ था.

सवाल है कि क्या भारतीय मध्यम वर्ग अपनी उम्मीदों और व्यवहारों पर लगाम कसने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गया है?

इन उम्मीदों को परवान चढ़ने में लगभग तीन दशक लगे और अब ये मध्यम वर्ग के मनोविज्ञान का अभिन्न हिस्सा हैं. इस वर्ग ने चरम राष्ट्रवाद को समर्थन दिया, लेकिन अगर इसी प्रकार उनकी जेब में सेंध लगती रही, तो उनके लिए मोदी के दूसरे कार्यकाल को समर्थन देना मुश्किल हो जाएगा.

(अनिन्द्यो चक्रवर्ती NDTV के हिन्दी और बिजनेस न्यूज चैनल के सीनियर मैनेजिंग एडिटर थे. अब वो NDTV इंडिया पर समाचार एंकर हैं. उन्हें @AunindyoC पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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