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संयुक्त राष्ट्र की महासभा के सालाना सत्र में प्रधानमंत्री मोदी का भाषण काफी कुछ अनापत्तिजनक था. उन्होंने उपलब्धियों की बात की, शिकायतें रखीं और अगले साल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता से जुड़े वादे किए. और उन्होंने भारत के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के लिए जमीन तैयार की.
दुनिया में हुए कई युद्ध और आतंकवादी हमलों के लिए संयुक्त राष्ट्र को जिम्मेदार ठहराने का पीएम का आरोप सही है. आखिरकार संयुक्त राष्ट्र की स्थापना युद्धों को रोकने के लिए ही की गई थी और इसकी सुरक्षा परिषद को उनसे निपटने के लिए अभूतपूर्व अधिकार दिए गए थे. लेकिन चाहे जितनी भी कमियां हों, संयुक्त राष्ट्र की जगह कोई और नहीं ले सकता.
जैसा कि निकी हैली ने 2017 में कहा था जब वो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत थीं, संयुक्त राष्ट्र में भारत के शामिल होने के लिए जरूरी है कि “वीटो पावर से उसे दूर ही रहना होगा.” दूसरे शब्दों में कहें तो संयुक्त राष्ट्र में सुधार के बाद भी भारत को दूसरे दर्जे की स्थिति से ही संतुष्ट होना होगा.
दरअसल ज्यादातर पर्यवेक्षक मानते हैं कि दुनिया की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की कोई संभावना नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी निडर होने का दिखावा कर रहे हैं.
पिछले कुछ समय में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की विफलता साफ तौर दिखाई दी है और कोविड-19 संकट पर स्पष्ट वैश्विक रणनीति की कमी ने इसे और भी तेजी से सबके सामने ला दिया है जैसा कि मोदी ने इशारा किया. लेकिन क्या भारत के कोविड 19 से प्रभावति देशों की सूची में दूसरे नंबर पर होने से कोई फर्क पड़ेगा ये दूसरी बात है.
प्राकृतिक तौर पर एक बड़ा देश होने के अधिकार से अलग, मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि भारत में हो रहे “परिवर्तनकारी बदलाव” के लिए उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. दरअसल जिस बात पर दुनिया के जोर देने की संभावना है वो “परिवर्तनकारी” देश नहीं बल्कि एक पूरी तरह से बदला देश है.
न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है बल्कि भारतीय गणतंत्र का उदार लोकतांत्रिक आधार भी कमजोर हो रहा है, उन राजनीतिक ताकतों की मदद से जिन्होंने मोदी को सत्ता में लाया है.
मोदी ने जो परिवर्तनकारी बदलाव गिनाएं हैं उनमें से कुछ पूरी तरह से सरकार के मन में ही हैं. लोग पढ़ते भी हैं और उनके पास आंखें भी हैं जो सबकुछ देख सकती हैं. पीएम “पिछले 4-5 साल में 6 करोड़ लोगों को खुले में शौच से मुक्ति दिलाने” का जो श्रेय ले रहे हैं लोग उससे तुरंत प्रभावित हो जाएंगे.
सीएजी की हाल की रिपोर्ट कुछ और ही बात कहती है. केंद्र सरकार की सार्वजनिक कंपनियों ने हाल के वर्षों में सरकारी स्कूलों में एक लाख चालीस हजार शौचालय बनाने का दावा किया, लेकिन जिन शौचालयों का सर्वेक्षण किया गया उनमें से 40 फीसदी या तो बनी ही नहीं थी, आधी बनी थी या ऐसी थी जिनका इस्तेमाल ही नहीं किया जा रहा था.
इसलिए मोदी संयुक्त राष्ट्र के सामने जो दावे कर रहे हैं कि भारत अपने नागरिकों को डिजिटल एक्सेस मुहैया करा रहा है, 15 करोड़ लोगों को पाइपलाइन से पानी पहुंचा रहा है, ब्रॉडबैंड फाइबर ऑप्टिक्स से छह लाख गांवों को जोड़ा जा रहा है, उन्हें मानने से पहले हमें सतर्क रहने की जरूरत है. या फिर पिछले 2-3 साल में 5 करोड़ लोगों को मुफ्त इलाज मुहैया कराने का दावा. सरकार के दावे और प्रदर्शन के बीच बहुत अंतर है.
संयुक्त राष्ट्र में काफी आंकड़े दिए गए लेकिन उनके वास्तविक क्रियान्वयन और कार्यों की जानकारी जानकारी न तो जनता और यहां तक कि संसद को भी नहीं दी जा रही है. दरअसल अपारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार हाल ही में खत्म हुए संसद के छोटे सत्र में खुद को भी पार कर गई.
देश में लॉकडाउन लागू करने और एक करोड़ लोगों को तेज गर्मी के मौसम में सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपने घर जाने को मजबूर करने में सरकार के प्रदर्शन की अक्षमता और बेरुखी की बराबरी कोई नहीं कर सकता.
पीएम का ये संबोधन ऐसे समय पर हुआ जब भारत के बड़े वैक्सीन उत्पादक सेरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के अदार पूनावाला ने इस बात को लेकर उत्सुकता जताई कि क्या केंद्र सरकार के पास अगले एक साल के अंदर वैक्सीन की खरीद और वितरण के लिए 80,000 रुपये होंगे.
ये समझने के लिए आपको प्रतिभाशाली होने की जरूरत नहीं है कि जब तक पैसे नहीं दिए जाते और अभी नहीं दिए जाते वैक्सीन नहीं आ पाएगी, यहां तक कि अगले साल भी नहीं.
कोई व्यक्ति इस बात को लेकर हैरान हो सकता है कि क्या मोदी सरकार को ये जानकारी है भी कि नहीं कि ये संकट असल में कितना बड़ा है. मीडिया को प्रचार-प्रसार के लिए मजबूर करने के बाद, संकट के पैमाने को कम बताते हुए सरकार अब अपने ही छल में फंस रही है.
वैक्सीन की आवश्यकताओं में कुछ जटिल हैं, उनकी प्रभावशीलता को सुनिश्चित करने के लिए कुछ के कई खुराक की जरूरत होती है, दूसरों को कम तापमान, साधारण नहीं काफी कम तापमान पर रखने की जरूरत होती है. गवर्नेंस की जो क्षमता मोदी सरकार ने दिखाई है उससे इस मामले में बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं रखी जा सकती.
टाइम मैगजीन में छपे हाल ही में एक आर्टिकल में कहा गया था कि मोदी ने भारत पर ऐसे राज किया है कि जिसमें लंबे समय से चली आ रही देश की धार्मिक सहिष्णुता और विविधता की अनदेखी हुई है. महामारी संकट की घड़ी असहमति को दबाने के लिए एक बहाना बन गई. और दुनिया का सबसे जीवंत लोकतंत्र अंधेरे में और गहरा डूब गया.
ऐशले टेलिस जैसे भारत के लंबे समय के दोस्त के दोहराए गए कड़े शब्द जिन्होंने कहा कि कई उदारवादी देशों ने भारत के उदय में मदद की और उसकी प्रगति का “व्यापक तौर पर स्वागत हुआ”. लेकिन “हाल की कुछ नीतियों से इस विश्वास में कमी आई है जिसे बहुत से लोग उदार नहीं मानते .” अगर भारत अपने उदारवादी चरित्र से दूर हो जाएगा तो पश्चिमी देशों की भारत के साथ साझेदारी की उत्सुकता भी कम हो जाएगी.
मोदी के सलाहकारों ने शायद उन्हें भारत की मजबूत स्थिति और महत्वपूर्ण होने को लेकर मना लिया होगा. लेकिन असलियत यही है कि हम व्यापार और वाणिज्य के मामले में न तो अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, रूस और न ही चीन के लिए महत्वपूर्ण हैं. सुरक्षा के मामले में भी भारत की घरेलू मजबूरियां- कई हमने बनाई हैं -ऐसी हैं कि वो भारत को क्षेत्र से बाहर जाकर एक अहम भूमिका अदा करने से रोकती हैं.
देश में बहस को चालाकी से बदलने और पश्चिमी देशों में जनमत को संदेश देने की किसी भी कोशिश के काम आने की उम्मीद नहीं है. दुनिया उस फैसले को करने से पहले आपका महत्व देखेगी न कि प्रचार.
(लेखक Observer Research Foundation, New Delhi में एक Distinguished Fellow हैं. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और इनसे द क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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