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राज्यों से भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बढ़ते आंतरिक मतभेद खुलकर सामने आ रहे हैं. यह अब तक कांग्रेस (Congress) की विशेषता रही है. जैसे-जैसे बीजेपी की शक्ति बढ़ रही है वैसे ही पार्टी को कई राज्यों में गुटबाजी का सामना करना पड़ रहा है और उसके लिए हर एक गुट को संतुष्ट रखना भी कठिन होता जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी और कुछ मुख्यमंत्रियों की घटती पॉपुलैरिटी रेटिंग ने आंतरिक असहमतियों को तेज होने का मौका दिया है .हालांकि पीएम मोदी की पॉपुलैरिटी रेटिंग अभी भी विश्व में सबसे अधिक है तथा जब महामारी ने विकराल रूप लिया हो तब लोकप्रियता में कमी स्वभाविक है और वैश्विक स्तर पर ऐसा देखा जा रहा है.
कर्नाटक में मौजूदा मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा को हटाने की मांग बढ़ती जा रही है. त्रिपुरा में भी पार्टी विधायकों का एक गुट मुख्यमंत्री बिप्लव देव से नाखुश है. पश्चिम बंगाल में मुकुल रॉय के वापस TMC में 'घर वापसी' के बाद अलीपुरद्वार के बीजेपी जिलाध्यक्ष गंगा प्रसाद शर्मा भी टीएमसी में शामिल हो गए. ये वही जिला है, जहां बीजेपी ने सभी पांच सीटों पर कब्जा किया था. बताया जा रहा है कि कई और बीजेपी नेता भी टीएमसी में शामिल हो सकते हैं.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कथित सत्तावादी और पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण विधायकों के एक वर्ग के असंतोष के खबरों के बीच योगी ने हाल ही में दिल्ली में प्रधानमंत्री से मुलाकात की है.
कांग्रेस की अपेक्षा बीजेपी ज्यादा अनुशासित और कैडर आधारित पार्टी है. कांग्रेस से अलग यहां के कार्यकर्ता और नेता की प्रतिबद्धता उनके विचारधारा के प्रति मजबूत होती है. पार्टी ने अपने चार दशकों के इतिहास में बहुत कम फूट देखा है. उमा भारती और येदियुरप्पा ने अपनी पार्टी जरूर बनाई लेकिन वो वापस भी आ गए. दूसरी तरफ कई कांग्रेसी नेता पार्टी छोड़कर राज्य स्तर पर कद्दावर नेता बन गए हैं जैसे शरद पवार ,ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी.
इन सालों में बीजेपी ने उन क्षेत्रों में अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए दूसरे पार्टी के नेताओं का सहारा लिया है जहां वो मजबूत नहीं थी, खाता नहीं खोल पा रही थी या नॉर्थ-ईस्ट, बंगाल जैसे क्षेत्र जहां उसकी स्वीकृति नहीं थी. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल और अन्य राज्यों में भी चुनाव के तुरंत पहले अपनी दावेदारी को मजबूत करने के लिए बीजेपी ने दूसरे दलों के नेताओं को अपने पाले में लाने का काम किया है.
लेकिन इन नेताओं के बीजेपी में आने का कारण सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य है ना की विचारधारा. जब उन्हें बीजेपी में आने का फायदा उनके अनुमान के अनुसार नहीं मिलता है तब वह परेशान करना शुरू कर देते हैं. पार्टी को बंगाल और त्रिपुरा राज्य बीजेपी इकाई में जिस संकट का सामना करना पड़ रहा है वह इसका सटीक उदाहरण है.'बाहरी' कहे जाने वाले यह नेता पार्टी के पुराने वफादारों में भी असंतोष पैदा करते हैं.
विपक्ष भी बीजेपी के प्लेबुक से 'बगावत भड़काने' जैसा ट्रिक सीख रही है. TMC बीजेपी के विधायकों को सदन से इस्तीफा देने और दलबदल कानून के प्रावधानों से बचने के लिए TMC के टिकट पर फिर से निर्वाचित होने के लिए कह कर बीजेपी को उसी के खेल में हराने की धमकी दे रही है.
बीजेपी ने त्रिपुरा में TMC से पैदा हुए संकट को तो फिलहाल टाल दिया है, लेकिन सरकार के लिए खतरा बना हुआ है. संदीप रॉय बर्मन के खेमे को आश्वासन दिया गया है कि मुख्यमंत्री द्वारा उनके शिकायतों का समाधान किया जाएगा. बर्मन खुद को मुख्यमंत्री से बड़ा और योग्य नेता मानते हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि यह केवल कुछ समय की बात है जब बर्मन मुकुल रॉय और TMC की मदद से बीजेपी विधायक दल में विभाजन के लिए अपनी साजिशें शुरू कर देंगे.
हिंसा और डराने-धमकाने की राजनीति के कारण बंगाल में विपक्षी विधायक के रूप में बने रहना बहुत मुश्किल है .बीजेपी के लिए अपने नेतृत्व के साथ-साथ सपोर्ट बेस को बनाए रखना बहुत कठिन हो सकता है.
जॉन बारला, सौमित्रा खान समेत बीजेपी के कुछ सांसद राज्य के बंटवारे और उत्तर बंगाल को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग कर रहे हैं. यह क्षेत्र पार्टी का गढ़ है क्योंकि हाल ही में संपन्न राज्य चुनाव में यहां उसे बंपर जीत मिली है. इससे राज्य बीजेपी इकाई (नॉर्थ VS साउथ )में गुटबाजी के और अधिक बढ़ने की संभावना है क्योंकि यह एक संवेदनशील मुद्दा है और इसे बैक-डोर से सत्ता हासिल करने के प्रयास के रूप में देखा जाएगा. इस तरह का कोई भी निर्णय TMC के इस आरोप को और मजबूत करेगा कि बीजेपी 'बंगाली पहचान' का प्रतिनिधित्व नहीं करती है और इससे पार्टी के नेताओं के पलायन को और तेजी मिलेगी.
(लेखक एक स्वतंत्र राजनैतिक टिप्पणीकार हैं और @politicalbaaba पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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