मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019पोलैंड में प्रदर्शन के बाद जीत गई जनता, भारत के लिए क्या सबक हैं?

पोलैंड में प्रदर्शन के बाद जीत गई जनता, भारत के लिए क्या सबक हैं?

इन प्रदर्शनों का नतीजा यह हुआ कि सरकार को झुकना पड़ा

माशा
नजरिया
Published:
(Photo Courtesy: Twitter/@AnonOpsSE)
i
null
(Photo Courtesy: Twitter/@AnonOpsSE)

advertisement

इस महीने की शुरुआत में पोलैंड की दक्षिणपंथी सरकार ने एक विवादास्पद अदालती फैसले को फिलहाल लागू न करने का ऐलान किया. इस फैसले के बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं. यह फैसला गर्भपात पर रोक लगाने से संबंधित था. वहां की अदालत ने फीटल अबनॉर्मिलिटी के आधार पर गर्भपात कराने के कानून को रद्द कर दिया था. पोलैंड में 99 परसेंट गर्भपात इसी आधार पर कराए जाते है. इस फैसले के खिलाफ देश भर में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए. वहां कम्युनिस्ट सरकार के हटने के बाद ये सबसे बड़े प्रदर्शन थे. इन प्रदर्शनों का नतीजा यह हुआ कि सरकार को झुकना पड़ा. पोलैंड ने दुनिया भर को यह सीख दी कि पॉपुलर प्रोटेस्ट कैसे काम करते हैं. सामूहिकता की क्या ताकत है.

जनता की ताकत सिर्फ वोट की ताकत नहीं

इस ताकत के बारे में कभी अमेरिकी सोशल रिफॉर्मर फ्रेडरिक डगलस ने कहा था- पावर कनसीड्स नथिंग विदआउट अ डिमांड. यानी ताकतवर से आपको अपने हक की मांग करनी ही पड़ती है. इलेक्टोरल डेमोक्रेसी में हमें अक्सर बताया जाता है कि जनता की एकमात्र ताकत वोट की ताकत है. हमारे देश में हर पांच साल के बाद चुनावों को लोकतंत्र का पर्व बताया जाता है. अमेरिका में बराक ओबामा जैसे नेता लोगों को सलाह देते हैं- डोंट बू, वोट! यानी प्रदर्शन करने की बजाय वोटिंग से बदलाव लाया जाए.

लेकिन जैसा कि पॉलिटिकल थ्योरिस्ट राजीव भार्गव कहते हैं, लोकतंत्र में लोग न सिर्फ राजनैतिक तरीके से, बल्कि दो चुनावों के बीच भी भागीदारी करते हैं. पॉपुलर प्रोटेस्ट यह विकल्प देते हैं.

भारत में सीएए के खिलाफ, और अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर के पक्ष में हुजूम के हुजूम सड़कों पर जमा हुए. दरअसल सार्वजनिक प्रदर्शन असंतोष की अभिव्यक्तियां तो होते ही हैं, इस बात को भी दर्शाते हैं कि नीतियों में तत्काल बदलाव की जरूरत है. पोलैंड का हाल का उदाहरण बताता है कि कैसे जनता की एकजुटता से नीतियों पर असर पड़ता है. तो, लोकतंत्र को बचाने के लिए भी जरूरी है कि इन सामूहिक स्वरों को दबने न दिया जाए.

सामाजिक आंदोलन, सांस्कृतिक आंदोलन में तब्दील

यूं इन्हें दबाने की पूरी कोशिश की जाती है. हर देश के भीतर और हर पॉलिटिकल सेटअप में. सीएटल में लैंडस्केप आर्किटेक्ट पढ़ाने वाले जेफ हओ की एक किताब है, सिटी अनसाइलेंस्ड. जेफ ने डिजाइन एक्टिविज्म और क्रॉस कल्चर लर्निंग पर बहुत काम किया है. इस किताब में उन्होंने कमजोर होती लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में पब्लिक स्पेस और शहरों में विरोध प्रदर्शनों पर अध्ययन किया है. इस किताब में कई देशों की अलग-अलग घटनाओं का जिक्र है, जैसे सैन फ्रांसिस्को का टेक बस प्रोटेस्ट, ब्राजील का फ्री फेयर मूवमेंट, हांगकांग का अंब्रेला मूवमेंट, ताइवान का सनफ्लावर मूवमेंट, वगैरह.

इन सभी में खास बात यह रही है कि लोगों ने एक जगह जमा होकर, विरोध प्रदर्शनों को सांस्कृतिक रूप दिया. प्लाजा या सड़कों को प्रदर्शनों का अड्डा बनाया गया तो वहां मोबाइल लाइब्रेरी शुरू हुईं. कलात्मक पोस्टर बनाए और लगाए गए. फूड स्टेशंस, डे केयर बनाए गए. संगीत और कला के प्रदर्शन किए जाने लगे. उत्सव सा माहौल हुआ. लोगों के बीच परस्पर दोस्ताना कायम हुआ. जाति, नस्ल, धर्म की दीवारें गिरने लगीं. कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी ने इन सामूहिक जमावड़ों में मदद की. लोग सोशल मीडिया के जरिए अपने आप प्रदर्शन वाली जगहों पर पहुंचने शुरू हो गए. क्या इन उदाहरणों में हमें शाहीन बाग के उस जमावड़े की खुशबू नहीं मिलती, जिसे शुरू तो चंद औरतों ने किया था, लेकिन धीरे-धीरे इसमें हर तबके के लोग शामिल हो गए.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

पब्लिक स्पेस को खत्म करने की कोशिश

यह दुखद रहा कि शाहीन बाग के धरना प्रदर्शन पर सुप्रीम कोर्ट ने विपरीत फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि सार्वजनिक स्थलों पर लोग बहुत लंबे समय तक कब्जा नहीं कर सकते. अदालत का जो भी फैसला हो, जेफ ने अपनी किताब में यह साफ लिखा है कि सार्वजनिक प्रदर्शन 'नियोलिबरल टेमिंग ऑफ पब्लिक लाइफ' पर चोट करते हैं. नियोलिबरलिज्म यानी नव उदारवादी सरकारें निजीकरण, डीरेगुलेशन और सरकारी खर्च में कमी की हिमायती हैं. पार्क और दूसरे पब्लिक स्पेस में निजी फंडिंग पर जोर देती हैं जिससे पब्लिक स्पेस का निजीकरण होता जाता है.

अधिकतर बड़े शहरों में शॉपिंग मॉल्स ने प्लाजा और खुली सड़कों की जगह ले ली है. इस तरह पब्लिक लाइफ और पब्लिक स्पेस को ‘टेम’ यानी नियंत्रित किया जाता है. क्या किसी मॉल में हम किसी राजनैतिक जमावड़े की उम्मीद कर सकते हैं. ऐसे में जब लोग एक साथ जमा हेते हैं तो हुक्मरानों को तकलीफ होती है. पर जनता खुश होती है. यह साथ की खुशी होती है. सब अलग होते हैं, फिर भी सब साथ होते हैं.

हिंसा नहीं, अहिंसक आंदोलन काम करते हैं

इसका असर कई दूसरी जगहों पर पड़ा है. 2020 में साठ के दशक के ब्लैक प्रोटेस्ट्स पर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में एक मूल्यांकन किया गया. इसमें कहा गया कि कैसे इन आंदोलनों ने इलीट वर्ग को प्रभावित किया. अधिकतर गैर हिंसक आंदोलनों ने लोगों की राय बदली और वोटिंग पैटर्न में भी बदलाव किए. इसी तरह 2019 में 1992 के लॉस एंजिलिस की हिंसा पर एक स्टडी की गई जिसमें कहा गया कि हिंसा के बाद लोगों ने मुद्दों के आधार पर वोटिंग की. इस सिलसिले में एक बात और पता चली. गैर हिंसात्मक आंदोलन और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन अधिक प्रभावशाली साबित होते हैं.

आंदोलनों में हिंसा अक्सर जनता के बीच नेगेटिव अधिकतर बड़े शहरों में शॉपिंग मॉल्स ने प्लाजा और खुली सड़कों की जगह ले ली है. इस तरह पब्लिक लाइफ और पब्लिक स्पेस को ‘टेम’ यानी नियंत्रित किया जाता है. क्या किसी मॉल में हम किसी राजनैतिक जमावड़े की उम्मीद कर सकते हैं. ऐसे में जब लोग एक साथ जमा हेते हैं तो हुक्मरानों को तकलीफ होती है. पर जनता खुश होती है. यह साथ की खुशी होती है. सब अलग होते हैं, फिर भी सब साथ होते हैं.

क्या पोलैंड से हम भी सीख लें

आखिर में, एक सवाल यह कि पॉपुलर प्रोटेस्ट क्यों जरूरी हैं? क्योंकि प्रोटेस्ट या विरोध करना मनुष्य के जीवित रहने की निशानी है. बेजान लोग, सिर उठाना नहीं जानते. और यह प्रोटेस्ट तब जरूरी होता है, जब खुद पर होने वाले अन्याय के खिलाफ किया जाए. जैसे पोलैंड में हुआ. लेकिन यह प्रोटेस्ट तब अपने सुंदरतम रूप में होता है, जब वह दूसरों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ किया जाए. जैसे जून में इजराइलियों ने यरुशलम में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की फिलिस्तीनी विरोधी नीतियों के खिलाफ किया. अमेरिका में व्हाइट लड़के लड़कियां नस्लीय हिंसा के खिलाफ बैनर लेकर प्रदर्शन करते रहे- व्हाइट साइसेंस, व्हाइट कनसेंट. भारत के कोने-कोने में हिंदू मुसलमानों पर होने वाले जुल्म का विरोध करते रहे. यह सच्चे इनसानी समाज का आधार है. फिलहाल पोलिश जनता की जीत खुशी देती है. यह भारत को आईना भी दिखाती है और सीख भी देती है.

(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. सात साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT