advertisement
इतिहास दोहराया गया है. जब लग रहा था कि भारत, पाकिस्तान (Pakistan) और उसकी तमाम करतूतों को नजरंदाज कर रहा है, तो दो घटनाएं एक के बाद एक घटीं. पहली, सेना के ट्रक पर आतंकियों ने पुंछ (Poonch Terrorist Attack) में हमला किया. इस हमले की जिम्मेदारी पीपुल्स एंटी-फासिस्ट्स फ्रंट (PAFF) ने ली है, जिसे भारत ने बैन किया था, क्योंकि यह जैश-ए-मोहम्मद से जुड़ा हुआ है.
दूसरा, पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने अगले महीने गोवा में जी20 देशों की बैठक में आने का न्योता मंजूर कर लिया है. उन्हें भारत ने यह न्यौता दिया था. यानी हम एक कदम आगे बढ़े हैं, तो एक कदम पीछे भी लौटे हैं. पिछले कुछ दशकों से यही कहानी दोहराई जा रही है. बेशक, कुछ हालात नहीं बदल सकते, लेकिन कुछ मामलों में अनुमान से भी परे जाकर, हादसे होते हैं.
सबसे पहले, पुंछ के हमले में कुछ आग लगाने वाले हथियारों का इस्तेमाल किया गया था, शायद ग्रेनेड्स और इसमें कम से कम चार आतंकी शामिल थे, जिन्होंने जलती हुई गाड़ी में गोलीबारी की थी. इसके मायने यह है कि यह एक अनुभवी आतंकी समूह था, जो शायद हमले से कुछ हफ्ते पहले घने जंगलों वाले इलाके में मौजूद था.
इसके बाद उस गुट ने एक प्रौपेगेंडा वीडियो जारी किया,जिसमें उसने अपने संगठन के बारे में बताया था और कहा था कि उसके काम करने का तरीका लश्कर ए तैयबा (एलईटी) से मिलता जुलता है. आतंकियों के लिए अब यह आम बात है कि अपने संगठनों को नया नाम दे दें, जैसे कि घाटी में इस समय एक और समूह सक्रिय है जिसका नाम है, 'टेरेरिस्ट रेजिस्टेंस फ्रंट'.
साफ बात है, पाकिस्तान में उनके खैरख्वाह, घबराए हुए हैं. वे नहीं चाहते कि यह मामला ठंडा पड़े. बेशक, पाकिस्तान से साठ-गांठ और दशकों पुरानी जंग की भावना ने 1990 के दशक के नेरेटिव को फिर से जिंदा किया है. ऐसा हो रहा हो, या ऐसा करने की मर्जी हो, दोनों ही स्थितियों में उन्हें हथियार और असला और पैसा भी पाकिस्तान की तरफ से ही मिल रहा है. लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती.
पांच जवानों की जान न केवल उनके परिवारों के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए अनमोल है, और एक ऐसी सरकार के लिए भी, जिसने यह साफ कर दिया है कि वह चुपचाप बैठने वाली नहीं है. यह अजब इत्तेफाक है कि पुंछ हमले से कुछ ही घंटों पहले यह घोषणा की गई कि विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने के लिए पहुंच रहे हैं.
एक स्तर पर, यह दो अलग-अलग मकसदों की तरफ इशारा करता है. एक पाकिस्तान सरकार का है, दूसरा आतंकियों का. लेकिन यह पहली थ्योरी है. यानी यह कदम जानबूझकर उठाया गया है. ऐसा लगता है कि यह भुट्टो के खुद के हमलावर रुख का नतीजा है, इसके अलावा एससीओ बैठकों में पाकिस्तान के दौरों से भी यह महसूस होता है कि वह अपने रवैये से तनिक भी पीछे हटने को तैयार नहीं है.
फिर पिछले साल संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रधानमंत्री पर बिलावल ने विवादित टिप्पणी की, और गैर कूटनीतिक वार भी. यह उनकी निजी राय हो सकती थी, या फिर उस इस्टैबलिशमेंट को खुश करने की कोशिश, जिसे वहां का अस्थिर गठबंधन समय-समय पर संतुष्ट करता रहता है. लिहाजा इस्लामाबाद का तनाव कम करने का कोई इरादा नहीं है.
इस थ्योरी को साबित करने के लिए दो हकीकत सामने हैं. एक अल अरबिया टेलीविजन के साथ प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का इंटरव्यू जिसमें उन्होंने कहा था कि, "पाकिस्तान ने अपने सबक सीखे हैं," और उस युद्ध ने पाकिस्तान के रिसोर्सेज को बर्बाद कर दिया था. उन्होंने कश्मीर और अनुच्छेद 370, और 'प्रमुख मानवाधिकारों के उल्लंघन' का भी जिक्र किया था. लेकिन अगले ही दिन वह अपने बयान से मुकर गए.
अगले दिन प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से कहा गया कि "... [पाकिस्तानी] प्रधानमंत्री ने बार-बार रिकॉर्ड पर कहा है कि भारत ने 5 अगस्त 2019 के दिन, जो गैर कानूनी फैसला किया था, उसे वापस ले. उसके बाद ही दोनों पक्षों के बीच बातचीत हो सकती है.
बयान में कहा गया है, "कश्मीर विवाद का समाधान संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों और जम्मू-कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं के अनुसार होना चाहिए." लेकिन इसके अलावा भी एक विचार है. हामिद मीर ने खुलासा किया कि परदे के पीछे से युद्ध विराम की कोशिशें की जा रही हैं. फिर संयुक्त अरब अमीरात के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पुष्टि की कि दोनों ही पक्ष तनाव कम करने की कोशिशों में लगे हुए थे.
लेकिन यह 2021 की बात है. हाई वोल्टेज बयानों के बावजूद असल में यह बातचीत शांतिपूर्ण तरीके से की गई थी, और उसका नतीजा भी अच्छा था. यहां तक कि जनरल (सेवानिवृत्त) बाजवा ने पत्रकारों से कहा कि पाकिस्तान के पास भारत से लड़ने की क्षमता नहीं है- न ही उसके पास पर्याप्त तेल है. यह इसे और विश्वसनीय बनाता है.
पाकिस्तान में भारत के उप उच्चायुक्त सुरेश कुमार ने मार्च 2023 में लाहौर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एलसीसीआई) में कहा था कि "भारत हमेशा पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध चाहता है क्योंकि हम अपना भूगोल नहीं बदल सकते हैं." कुछ मिलाकर, यह रिश्तों में दरार को भरने की कोशिश थी, और यह कोशिश जारी है.
जैसा कि नवाज शरीफ ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान कहा था, हर बार जब भी संवाद की कोशिश की जाती है, आतंकी हमला निश्चित होता है. इसका मतलब है कि 'इस्टैबलिशमेंट' नहीं चाहता कि ऐसा हो, और वह भी अपने फायदे के लिए. फिलहाल किसी को भी इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि वर्तमान सीओएएस जनरल सैयद असीम मुनीर भारत के साथ अपने संबंधों के बारे में क्या सोचते हैं. इस बीच, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था शायद ही ऐसी हिम्मत दिखाने की इजाजत देती हो. यह भी एक सच्चाई ही है. पहले के उदाहरण लीजिए और राजनीति की सभी चालबाजियों के बारे में सोचिए तो यह काफी स्वाभाविक सा महसूस होता है.
तीसरी थ्योरी भी है. वह ये कि बागडोर किसी के हाथ में है ही नहीं. देश में जो सियासी घमासान मचा है, उससे भी यही समझ में आता है. न्यायपालिका सरकार को संवैधानिक रूप से चुनाव कराने को मजबूर कर रही है- पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा में.
मुख्य न्यायाधीश को तीन घंटे की ब्रीफिंग में सरकार ने देश की सुरक्षा का हवाला दिया था और बताया था कि इमरान खान को सत्ता से बाहर रखना क्यों जरूरी है. डॉन ने बताया था कि इस ब्रीफिंग में सरकार ने साफ कहा था कि सीमा पार आतंकवाद, देश में अस्थिरता, टीटीपी से खतरा, कई देशों से पाकिस्तान लौटने वाले आईएस लड़ाके, भारतीय जासूसी एजेंसी रॉ के बुरे इरादे और यहां तक कि पड़ोसी देश के साथ चौतरफा युद्ध- इन सभी वजहों से चुनाव कराना मुनासिब नहीं होगा. लेकिन अगर सरकार चुनते समय चुनाव कराए जाते हैं, तो संभवतः यह सब चमत्कारिक रूप से गायब हो जाएगा.
भारत के लिए, किसी भी स्तर पर, इनमें से किसी भी थ्योरी का कोई मायने नहीं है. तीनों परिदृश्यों में पाकिस्तान अपराधी है. कोई नेता, किसी दूसरे नेता से मिलता है या नहीं, यह भी बेमायने है क्योंकि हर हमले में दर्जनों जाने जाती हैं. और इस बारे में कोई नहीं सोचता. हमारे जवान एक कायरतापूर्ण हमले में मारे गए और भारत को किसी न किसी तरह का मुआवजा मांगना चाहिए और वह मांग सकता है. लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान के विदेश मंत्री को कहा जाए कि वे भारत न आएं? शायद नहीं.
यह एक बहुपक्षीय व्यवस्था है और भारत के पास इसकी अध्यक्षता है. एससीओ द्विपक्षीय विवादों पर चर्चा करने का मंच नहीं है- हालांकि पाकिस्तान ने बेतुके नक्शे के साथ, ऐसा करने की कोशिश की थी. लेकिन एससीओ में आतंकवाद पर चर्चा की जाती है, और अगर भारत के पास पर्याप्त सबूत हैं, तो वह इसे उचित मंच पर पेश कर सकता है. इसके अलावा पिछली कुछ मिसालें भी हैं.
उदाहरण के लिए, चीनी विदेश मंत्री वांग यी ताइवान ने आसियान बैठक में गाला डिनर से वॉकआउट करते हुए ताइवान में हाउस स्पीकर नैन्सी पेलोसी की यात्रा पर नाखुशी जाहिर की थी. यह घुड़की है, और इससे व्यावहारिक स्तर पर कोई फर्क न पड़े, पर जनता जरूर खुश हो सकती है, जो इस बात का इंतजार कर रही है कि सरकार कड़ा रुख अपनाएगी, और यह अपने आप में कुछ हद तक सही भी है.
अभी तक विदेश मंत्रालय ने बिलावल की यात्रा के संदर्भ में बस यही कहा है कि, 'किसी एक देश की भागीदारी पर ध्यान देना उचित नहीं होगा. उसने पाकिस्तान पर कोई खास आरोप भी नहीं लगाया गया है, यूं इस हमले को लश्कर का हमला बताना, भी असल में एक ही बात है. भारत पहले की तरह पाकिस्तान से विशिष्ट खुफिया जानकारी की जांच करने और डेटा के साथ एससीओ में वापस आने के लिए कह सकता है.
इस तरह यह इस्लामाबाद की जिम्मेदारी होगी कि वह इस बहुपक्षीय संगठन को जवाब दे. पाकिस्तान ने मुंबई हमले की जांच की, लेकिन मास्टरमाइंड को गिरफ्तार करने से पीछे हट गया. इस्लामाबाद के पास इस बार मुस्तैदी से जवाब देने का मौका है. हर आपदा में एक मौका छिपा होता है. लेकिन हम ऐसी उम्मीद नहीं करते.
आखिरकार, हम पाकिस्तान की बात कर रहे हैं. सच्चाई यह है कि ऐसी थ्योरीज़ से ही साबित होता है कि पाकिस्तान कितना डगमगाया हुआ है. उसके भीतर कितने विभाजन हैं, कितनी कट्टरता जिसने इस्लामी दुनिया में एक अलग ही टोली बना ली है. आतंकी हमला कभी आईएसआई की साजिशों का नतीजा हुआ करते थे. अब उसके सैकड़ों टुकड़े बिखरे हुए हैं, दलदल फैल रहा है, जिसमें खुद पाकिस्तान धंसता जा रहा है. अपने अंतर्विरोधों के साथ.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined