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खत्म हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 'वाइटवॉश' ने उसके नेताओं तथा समर्थकों के सबसे बुरे डर को फिर से उभार दिया है: कि इस गांधी पीढ़ी में इस 'ग्रैंड ओल्ड पार्टी' के पुनरुत्थान को नेतृत्व देने की क्षमता नहीं है.
केरल में कांग्रेस का प्रदर्शन 5 साल पहले के प्रदर्शन से भी खराब रहा. असम में ,कागज पर असंभव लगने वाली गठबंधन करने के बावजूद, कांग्रेस बीजेपी के पकड़ पर कोई असर नहीं डाल पायी. तमिलनाडु में उसने अपना सीट शेयर तो बढ़ाया लेकिन सिर्फ DMK की लहर पर सवार हो,उसकी बहुत ज्यादा जूनियर पार्टनर बन कर.
राहुल गांधी का केरल के मछुआरों के साथ समुद्र में गोते लगाना, तमिलनाडु में पुशअप्स मारना और असम के बागानों के वर्करों के साथ प्रियंका गांधी 'वाड्रा' का डांस- यह सब तस्वीरों के लिए तो खूबसूरत रहा लेकिन इनका राजनैतिक फायदा खोखला साबित हुआ.
यह परिणाम भाई बहन के लिए व्यक्तिगत आघात है. इसके पहले शायद ही कभी उन्होंने इतना पहले और इतने विस्तार से योजना बनाई थी. उन्होंने अधिकतर अनुभवी नेताओं को बगल करके अपने विश्वस्त सहयोगियों की टीम के साथ बागडोर संभाला. यही कारण है कि यह हार ज्यादा झटके वाली है और आने वाले महीनों में उनकी पार्टी में पकड़ को कमजोर करेगी.
अन्य चुनाव के विपरीत ,जिसे कांग्रेस ने पीछे लड़ा है, इस बार राहुल और प्रियंका ने कमान संभालने और जल्दी शुरुआत करने का निर्णय लिया था. दरअसल इस दौर के चुनाव के लिए उन्होंने लगभग 1 साल पहले से योजना बनानी शुरू कर दी थी.
उन्होंने असम में संगठनात्मक मशीनरी को पुनर्जीवित करने के लिए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को साथ लिया. संगठन 6 साल पहले राज्य के कद्दावर नेता हिमंत बिस्वा सरमा के जाने से कमजोर हो गया था. सरमा ने अपना कौशल बीजेपी के साथ दिखाया और उसे राज्य में लगातार दो चुनाव में जीताने में मदद की.
केरल के लिए उन्होंने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मदद ली .उनकी राय भी बघेल के समान थी:एक चुनाव मशीनरी, अमित शाह से सीख लेते हुए ,'पन्ना प्रमुख' स्थापित करना--घर-घर प्रचार ,सोशल मीडिया टीम का प्रयोग इत्यादि .
लेकिन रणनीति का सबसे प्रमुख भाग था, तीनों राज्यों में गांधी 'स्टार पावर' को खुलकर सामने लाना .पहली बार प्रियंका ने उत्तर प्रदेश की 'लक्ष्मण रेखा' लांघते हुए असम और केरल में प्रचार किया. राहुल ने केरल और तमिलनाडु में अपना असाधारण ऊर्जा और समय झोंक दिया, जो कि उन्होंने इससे पहले सिर्फ उत्तर प्रदेश में किया था.
कांग्रेस समर्थकों के लिए सबसे बड़ा झटका है प्रियंका की असफलता .उन्हें असम कैंपेन के लिए अनौपचारिक रूप से जिम्मेदारी मिली थी और बघेल तथा गहलोत को संगठन में सुधार के लिए लाने का विचार उन्हीं का था. उनकी युक्ति का कोई भी फायदा नहीं निकला.
अधिकतर कांग्रेसी नेता और समर्थक गांधी परिवार के बिना भविष्य की कल्पना नहीं कर सकते ,पर इस घोर पराजय के बाद शायद दूसरे विकल्पों पर विचार करने का वक्त आ गया है.और शरद पवार तथा ममता बनर्जी जैसे पूर्व कांग्रेसी नेताओं को साथ लाने, जो यकीनन युवा गांधी भाई-बहन से ज्यादा राजनैतिक कौशल रखते हैं, और एक नया 'ओल्ड कांग्रेस' की स्थापना की सुगबुगाहट शुरू भी हो गयी है.
( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं .उनका ट्विटर हैंडल है @AratiJ.यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखिका के अपने विचार हैं .द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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