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चुनावी मुद्दे के रूप में कुछ महीनों से बाहुबली-राष्ट्रवाद की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है. बीते कुछ समय में सवाल था कि इसे कैसे परवान चढ़ाया जाए? क्या केंद्र इसे आतंकवादियों के खिलाफ एक और महत्वाकांक्षी हथियार के रूप में इस्तेमाल करे या बस यूं ही आम लोगों पर थोप दिया जाए?
पुलवामा में गुरुवार दोपहर बाद हुए आत्मघाती हमले में CRPF के 40 से ज्यादा जवानों ने अपनी जान गंवा दी. यह पक्का है कि इस पर केंद्र की प्रतिक्रिया चुनावी रंग में रंगी होगी.
आतंकी हमले के कुछ घंटे बाद चुनावी मैदान में कांग्रेस की नई ‘वाइल्ड कार्ड’ प्रियंका गांधी ने पहले से तय प्रेस कॉन्फ्रेंस कैंसिल कर दी. फिर भी उन्हें मीडिया की सुर्खियां मिलीं. उन्होंने आतंकवादी हमले पर दुख जताया और CRPF के शहीद हुए जवानों के शोक में मौन रखा. इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शुक्रवार दोपहर G-20 देशों के प्रमुखों के साथ लंच का कार्यक्रम कैंसिल कर दिया.
गौर करने वाली बात है कि उन्होंने यह भी कहा कि हर किसी को कश्मीर में मरने वालों की बढ़ती तादाद के बारे में सोचना चाहिए. उन्होंने कहा, ''हमारी मांग है कि केंद्र सरकार भविष्य में ऐसे आतंकी हमलों को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए.'' इतने भयानक आतंकी हमले के फौरन बाद इसे सबसे ठंडी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है, लेकिन यह 'ठंडी प्रतिक्रिया' केंद्र पर दबाव डालने के लिए काफी है.
प्रियंका गांधी के बयान का आखिरी वाक्य लगभग उसी समय सामने आया, जब वरिष्ठ मंत्री और प्रवक्ता जोरशोर से जवाबी कार्रवाई के वादे कर रहे थे. बीजेपी की आलोचना करने से कांग्रेस की यह कहकर आलोचना होती कि विपक्ष त्रासदी के दौरान शहीदों के शोक में डूबे परिवारों के साथ नहीं है. इस वजह से भी सरकार पर कार्रवाई का दबाव बढ़ गया है.
पार्टी के दूसरे नेता भी इसी सुर में बयान दे रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साफ कर दिया है कि वे मोदी सरकार को इस हमले का राजनीतिक फायदा नहीं उठाने देंगे.
हम शहीदों के परिजनों और सरकार के साथ हैं – यह कहकर उन्होंने मोदी को थोड़ा अचंभे में डाल दिया है. इस रणनीति का अगला कदम देखना दिलचस्प होगा. वे इस हमले के जवाब में सेना की संभावित सर्जिकल स्ट्राइक का पूरा राजनीतिक फायदा बीजेपी को उठाने से रोक सकते हैं.
कश्मीर में लगभग 3 दशकों के आतंकी हिंसा के दौर का यह सबसे भयानक हमला था. निश्चित रूप से इस हमले से पीएम मोदी की एक सख्त नेता की उस छवि को धक्का पहुंचा है, जो भारतीय सुरक्षाबलों पर आतंकी हमला बर्दाश्त नहीं कर सकता था. अब तक आधिकारिक रूप से पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का ओहदा छीन लिया गया है. मुमकिन है कि चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान को सबसे घृणित देश के रूप में प्रचारित किया जाए.
मोदी लंबे समय से दृढ़ता के साथ कहते आए हैं कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जाना चाहिए. यही बात उन्होंने 2008 में मुंबई में 26/11 हमले के तुरंत बाद कही थी.
उरी हमले के पांच दिनों बाद मोदी ने कोझीकोड़ में बीजेपी राष्ट्रीय परिषद के प्रतिनिधियों को संबोधित किया था. उस भाषण में वह कश्मीर पर पाकिस्तान की एक हजार साल तक लड़ाई (ये जुमला पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो का था) की चुनौती स्वीकार करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने.
सर्जिकल स्ट्राइक से सामरिक बढ़त हासिल करने के बजाए राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक फायदा ज्यादा हुआ था. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी को इस बढ़त का अच्छा फायदा मिला.
आज सर्जिकल स्ट्राइक का मुहावरा जन-जन की जुबान पर है और इसने पीएम मोदी को जोरदार फायदा पहुंचाया है. उरी हमले पर बनी फिल्म के प्रति दर्शकों का उत्साह और ‘militainment’ का उदय भारतीय सिनेमा का नया रूप है और किसी को भी सार्वजनिक जीवन में कट्टर राष्ट्रवाद से परहेज नहीं रह गया है.
भारी संख्या में भारतीयों को और विशेषकर युवाओं को ना तो भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास याद है, ना उसके बारे में जानने का समय है. बल्कि उनके दिलों में पाकिस्तान विरोधी भावनाएं रोपकर उनमें कट्टरवादी राष्ट्रीयता की सोच जगाई जाती है. ये एक बहुत बड़ा वोट बैंक है, जिसे मोदी किसी भी कीमत पर अपने साथ रखना चाहेंगे.
विपक्षी दलों के लिए यह स्थिति असमंजस भरी है. सर्जिकल स्ट्राइक का नतीजा वे देख चुके हैं. क्या वे पुलवामा हमले पर केंद्र की प्रतिक्रिया का विरोध करेंगे? उधर मोदी को उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में इस बात के लिए विपक्ष की आलोचना याद करने की आवश्यकता है कि विपक्ष ने उरी हमले पर सरकार की प्रतिक्रिया का विरोध किया था. इस मुद्दे पर नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने लगातार विपक्ष की आलोचना की थी, और उनके तर्कों को काफी हद तक इस सोच के रूप में सफलता भी मिली थी कि सुरक्षा और रक्षा के मामलों या आतंकवादी हिंसा पर सरकार की प्रतिक्रिया का विरोध देशद्रोह के अलावा कुछ भी नहीं.
बीजेपी कभी नहीं चाहेगी कि सैन्य कार्रवाई के उत्साह से जुड़ा यह सवालिया जुमला उनके नेता और उनकी पार्टी पर उल्टा पड़े. हो सकता है कि इस बार जवाबी कार्रवाई उरी के बाद सरकार को मिली वाहवाही के बराबर ना हो. लेकिन अगर इस मुद्दे पर चुप्पी साधी गई तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है, जो पीएम मोदी कभी नहीं चाहेंगे. साफ है कि एक तरफ उन्हें कुछ करने की कीमत की पूरी जानकारी है, दूसरी ओर वह कुछ कर डालने के नतीजों से अनजान हैं.
यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या पुलवामा आतंकी हमले की जवाबी कार्रवाई चुनावी प्रक्रिया के साथ चलती है या चुनाव प्रचार के दौरान उछाली जाती है? जो भी हो, इस बार के चुनाव पर बाहुबली और बदले की भावना वाला राष्ट्रवाद का पूरा बोलबाला होगा.
(लेखक दिल्ली के पत्रकार हैं. वह ‘The Demolition: India at the Crossroads’ और ‘Narendra Modi: The Man, The Times’ के लेखक हैं. ट्विटर पर उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और क्विंट का उससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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