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हमारे संविधान निर्माण में अद्भुत योगदान पर कृतज्ञ राष्ट्र हर साल बीआर अंबेडकर को उनके जन्मदिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करता है. भारत की संविधान सभा में संसदीय शासन प्रणाली के लिए उनकी पैरवी उत्कृष्ट थी और इसे अब भी लाजवाब माना जाता है. लेकिन यह देखते हुए कि हमारी संसद ने कितना कमजोर प्रदर्शन किया है, देश को उनके तर्कों पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि हम समझ सकें कि क्या गलत हो रहा है और क्यों?
अंबेडकर का मूल तर्क 4 नवंबर 1948 को सभा में दिए गए उनके प्रसिद्ध संबोधन 'स्थायित्व बनाम उत्तरदायित्व' में सामने आया था. इस समय तक संविधान बनते लगभग दो साल हो गए थे, और सभा द्वारा संसदीय प्रणाली अपनाने के लिए 'संघटन संविधान समिति' की अनुशंसा स्वीकार किए लगभग डेढ़ साल बीत चुका था.
अंबेडकर की सबसे बड़ी दलील वह प्रक्रिया थी, जिससे इन प्रणालियों में सरकार से जवाबदेही ली जाती है. ''गैर-संसदीय प्रणाली के अंतर्गत... कार्यपालिका के उत्तरदायित्व का मूल्यांकन समय-समय पर होता है. यह दो साल में एक बार होता है. यह मतदाताओं द्वारा किया जाता है. इंग्लैंड में कार्यपालिका की जवाबदेही का मूल्यांकन दैनिक और समय अनुसार, दोनों प्रकार से है. दैनिक मूल्यांकन सांसदों के प्रश्रों, रेजोल्यूशनों, अविश्वास प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों और संबोधनों पर चर्चाओं के माध्यम से किया जाता है. समय आधारित मूल्यांकन मतदाता चुनाव के समय करते हैं, जो हर पांच वर्ष में या उससे पहले हो सकते हैं.'' अंबेडकर ने निष्कर्ष निकाला कि ''उत्तरदायित्व का दैनिक मूल्यांकन जो अमरीकी प्रणाली के तहत उपलब्ध नहीं है, यह लगता है कि सामयिक मूल्यांकन से कहीं अधिक प्रभावी है और भारत जैसे देश के लिए कहीं ज्यादा आवश्यक.''
संक्षेप में, अंबेडकर ने संसदीय प्रणाली के पक्ष में तर्क दिया कि यह अधिक उत्तरदायी सरकारें प्रदान करती है. उनका दावा था कि ऐसा इस प्रणाली में इसलिए है, क्योंकि संसद द्वारा दैनिक मूल्यांकन के आधार पर संसदीय सरकारें किसी भी समय बर्खास्त की जा सकती हैं।.
इसी में अंबेडकर के तर्क का मौलिक दोष निहित है. वह यह कि एक संसदीय सरकार हटा दिए जाने के डर से उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार करती है, और यह डर उनके द्वारा हटाए जाने का है जिन्होंने पहले स्वयं ही सरकार बनाई थी. यह एक अव्यवहारिक प्रस्ताव है. यह एक सरकार की अपनी पार्टी के सदस्यों द्वारा अपनी ही सरकार को हटाने, और निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा उनका अपना ही सदन भंग करने पर निर्भर है! उन्हीं सांसदों, जिन्होंने एक सरकार के लिए बहुमत प्रदान किया, उनसे प्रधानमंत्री समेत कैबिनेट में शामिल उनके अपने ही नेताओं के खिलाफ हो जाने की अपेक्षा की जाती है. यही नहीं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे एक और आम चुनाव का जोखिम उठाते हुए स्वयं को ही सत्ता से बाहर कर देंगे.
तथ्य भी पुष्टि करते हैं कि बहुमत सरकारें लगभग कभी भी हटाई नहीं गईं. इंग्लैंड में एक शताब्दी से भी अधिक समय में केवल अल्पमत सरकारें अविश्वास प्रस्ताव में हारी हैं. 1900 से अब तक तीनों सफल अविश्वास प्रस्ताव- दो 1924 और एक 1979 में अल्पमत सरकारों के खिलाफ थे. ऐसा उदाहरण ढूंढने के लिए कि बहुमत की सरकार को हटाया गया हो आपको सन 1885 में जाना होगा. भारत में भी केवल एक सरकार ने अविश्वास प्रस्ताव हारने पर इस्तीफा दिया है.1990 में वी.पी सिंह और वह भी अल्पमत की सरकार थी.
अंबेडकर केवल इसमें ही गलत नहीं थे कि कैसे बहुमत सरकारें कभी हटाई नहीं जातीं. सरकारी उत्तरदायित्व के दैनिक मूल्यांकन पर उनका जोर देना भी कमजोर आधार था. उन्होंने मतदाताओं द्वारा एक अधिक मजबूत सामयिक चुनावी नियंत्रण के बजाय दैनिक नियंत्रण को तरजीह दी और वह भी सरकारी स्थायित्व की कीमत पर. दैनिक मूल्यांकन की अव्यवहारिकताओं के चलते यह एक अच्छा चयन नहीं था.
संसद में उठाए जाने वाले प्रश्र, संकल्प और स्थगन प्रस्ताव केवल विरोध के तरीके हैं. वे सरकार को किसी कार्यक्रम पर काम करने से नहीं रोकते, क्योंकि एक संसदीय सरकार को सुनिश्चित बहुमत प्राप्त है. सांसद संसद में सरकार पर नियंत्रण के तौर पर प्रश्र नहीं उठाते या भाषण नहीं देते, बल्कि वे ऐसा संसद से बाहर अपने मतदाताओं को संबोधित करने के लिए करते हैं. बतौर सांसद शशि थरूर ने 2017 में लिखा, ''यह धारणा कि भारतीय संसद 'उत्तरदायित्व का दैनिक मूल्यांकन' उपलब्ध करवाती है, इस पर हंसी आएगी- अगर पिछली संसद के तमाम अवरोधों और स्थगनों पर गौर किया जाए अगर ऐसे उत्तरदायित्व की आवश्यकता इतनी तीव्र न होती.''
अंत में, संसद के दैनिक मूल्यांकन के लिए अंबेडकर की पैरवी में जो भी थोड़ा-बहुत व्यावहारिक या मूल्यवान था, वह भी तब समाप्त हो गया जब भारत ने दलबदल विरोधी कानून अंगीकार कर लिए. वर्ष 1985 के संविधान संशोधन ने सांसद के लिए पार्टी के फरमान के खिलाफ वोट देना अवैध बना दिया. अब अगर बहुमत पार्टी का सांसद अपनी सरकार के विरुद्ध वोट देना भी चाहे, तो उसे कानून द्वारा रोक दिया गया है. संवैधानिक विशेषज्ञ एजी नूरानी ने लिखा कि दलबदल विरोधी कानून में ''विधायिका सदस्यों को गुलाम बना दिया है.''
इस सबने भारत की संसद को नए जंतर मंतर में बदल दिया है. अब यह मात्र विरोध प्रदर्शनों का एक स्थान है, वास्तविक बहसों या निर्णयों का नहीं. भारत के लिए अब संसद की असफलताओं के लिए जिम्मेदार मूल कारणों को संबोधित करने का समय आ गया है.
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Published: 13 Apr 2019,08:12 AM IST