भारतीय संविधान लागू होने के मात्र तीन साल बाद ही इसके मुख्य निर्माता बीआर अंबेडकर ने संसद में सबके सामने इसका परित्याग कर दिया था. राज्यसभा में 1953 में उनकी चौंकाने वाली स्वीकारोक्ति सामने आई:
महोदय, मेरे मित्र कहते हैं कि संविधान मैंने बनाया है. पर मैं यह कहने के लिए बिल्कुल तैयार हूं कि मैं इसे जलाकर राख करने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा. मैं इसे नहीं चाहता हूं. यह किसी के काम का नहीं है.बीआर अंबेडकर
![क्या था अंबेडकर का भारतीय संयुक्त राज्य?](https://images.thequint.com/quint-hindi%2F2015-11%2F61f4799d-6646-49a4-b1c5-3e307a5d8d83%2FB.R._Ambedkar_in_1950crop.jpg?auto=format%2Ccompress&fmt=webp&width=720)
अंबेडकर इस बात की वकालत करते थे कि राज्यपालों को राज्य सरकारों पर निगरानी की शक्ति देने के लिए संविधान में बदलाव किया जाए.
चार साल पूर्व मई 1949 में संविधान सभा में उनका तर्क इसके विपरीत था कि “जनता द्वारा चुने गए राज्यपाल और विधायिका के प्रति उत्तरदायी मुख्यमंत्री की एक साथ मौजूदगी से टकराव की स्थिति बन सकती है.”
पर अब, वह राज्यसभा में कह रहे थे:
हमें यह विचार विरासत में मिला है कि राज्यपाल को कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, कि वह रबर-स्टाम्प मात्र हो. यदि एक मंत्री, चाहे वह कितना भी धूर्त हो... राज्यपाल के समक्ष कोई प्रस्ताव पेश करता है, उन्हें उसको स्वीकृति देनी होगी. हमने देश में लोकतंत्र के बारे में इसी तरह की धारणा को विकसित किया है.बीआर अंबेडकर
“लेकिन आपने इसका पक्ष लिया था,” एक सदस्य ने कहा.
अंबेडकर ने पलटकर जवाब दिया, “हम वकील कई चीजों का बचाव करते हैं. लोग मुझसे हमेशा कहते हैं, ‘अरे! आप संविधान के निर्माता हैं.’ मेरा जवाब है कि मैं एक सामान्य लेखक था. मुझे जो करने को कहा गया, मैंने ज़्यादातर अपनी इच्छा के खिलाफ किया.”
सदस्य शांत नहीं हो रहे थे. एक ने पूछा, “आपने इस तरह अपने आकाओं की क्यों सुनी?
अंबेडकर ने गुस्से में जवाब दिया, “अपने दोषों के लिए आप मुझपर आरोप लगाना चाहते हैं? – मिसाल के तौर पर, मैं आपसे पूछ सकता हूं.” सदन में व्यवस्था स्थापित होने के साथ ही, राज्यपालों को वीटो पावर देने का अंबेडकर का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया गया.
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सच्चाई यह थी कि अंबेडकर के उत्कर्ष के दिन बीत चुके थे, और संविधान को लेकर उनकी चिंताएं कभी सामने नहीं आ पाईं. हिंदू कोड बिल पर मतभेदों को लेकर वह पहले ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे चुके थे, और फिर लोकसभा सांसद बनने के प्रयास में वे दो बार, 1952 और 1954 में, पराजित हुए. हालांकि, संसद के बाहर अंबेडकर ने अपनी आलोचना जारी रखी.
बीबीसी को 1953 में दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा:
लोकतंत्र (भारत में) सिर्फ इस कारण काम नहीं करेगा कि हमारा सामाजिक ढांचा संसदीय लोकतंत्र के बिल्कुल असंगत है.
उनका 1956 में निधन हो गया.
अंबेडकर को भारत द्वारा अपनाए गए संविधान में निहित बहुसंख्यकवाद से परेशानी थी. उन्हें लगता था कि एक स्थायी हिंदू बहुसंख्यक राष्ट्र के लिए बहुमत-मात्र की सरकार वाली व्यवस्था सही नहीं है. वास्तव में, उन्होंने संविधान सभा के समक्ष हमारे संसदीय प्रणाली पर आधारित संविधान की जगह एक बिल्कुल अलग तरह की व्यवस्था का प्रस्ताव रखा था.
अंबेडकर का भारतीय संयुक्त राज्य
अंबेडकर ने अपने प्रस्ताव को “भारतीय संयुक्त राज्य (USI)” का नाम दिया था. यह उनके प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में काम शुरू करने से मात्र सात महीने पहले संविधान सभा की मौलिक अधिकारों संबंधी उपसमिति को सौंपा गया था.
अंबेडकर का USI प्रस्ताव कई तरह से अमेरिकी सरकार की व्यवस्था के समान था. यह एक सचमुच का परिसंघ था जिसमें राज्यों को कहीं अधिक स्वतंत्रता दी गई थी. इसीलिए अंबेडकर ने राज्यपालों के विवेकाधीन अधिकारों की वकालत की थी. USI की कार्यपालिका एक स्थायी कार्यकाल के लिए संपूर्ण विधायिका द्वारा चुनी जानी थी. न्यायिक सत्ता एक पूरी तरह स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट को दी गई थी. और मौलिक अधिकारों की सूची अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स जैसी थी.
यहां तक कि अंबेडकर की भाषा भी अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा की याद दिलाती थी. उन्होंने लिखा, “ब्रिटिश जैसी कार्यपालिका अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी, आज़ादी और खुशहाली की कोशिशों के लिए खतरों से भरी होगी.”
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अंबेडकर की चिंता
अंबेडकर की मुख्य चिंता कार्यपालिका – बहुमत वाली पार्टी के नेता द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के तौर पर संचालित मंत्रिमंडल – को लेकर थी. उनके अनुसार इसकी संरचना महत्वपूर्ण थी न सिर्फ अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बल्कि सरकारों की स्थिरता के लिए भी.
उन्होंने आगाह किया,
यह स्पष्ट है कि यदि ब्रिटिश प्रणाली कॉपी की गई तो उसका परिणाम कार्यपालिका की शक्तियां स्थायी रूप से एक सांप्रदायिक बहुसंख्यक को सौंपे जाने के रूप में सामने आएगा.
और जहां तक स्थायित्व की बात है, उन्हें डर था कि “जातियों और पंथों के टकरावों को देखते हुए पार्टियों की भरमार होनी तय है. यदि ऐसा हुआ तो संभव है, या कहें कि तय है, कि संसदीय कार्यपालिका की प्रणाली के तहत भारत को अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है.”
यह पहला मौका नहीं था कि अंबेडकर ने भारतीय संविधान के बारे में इन विचारों को प्रस्तुत किया. भारत की बुनियादी समस्याओं पर 1945 में एक भाषण में उन्होंने घोषणा की: “बहुसंख्यक शासन सिद्धांतत: असमर्थनीय और व्यवहार्य में अनुचित है.”
उन्होंने उन सिद्धांतों को रेखांकित किया जिनपर कि भारत की सरकार की नींव होनी चाहिए:
- कार्यपालक शक्तियों का महत्व विधायी शक्तियों से बहुत ज़्यादा होता है;
- कार्यपालिका को बहुसंख्यक पार्टी की समिति मात्र नहीं होनी चाहिए; और
- कार्यपालिका को इस अर्थ में गैर-संसदीय होना चाहिए कि यह हटाए जाने वाली नहीं होगी.
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अंबेडकर इन सुझावों को ब्रितानियों तक भी लेकर गए थे. उन्होंने आजादी के मुकाबले, यदि आजादी का एकमात्र मतलब बहुसंख्यक-मात्र की सरकारें होती हो, ब्रिटिश शासन का असाधारण रूप से समर्थन किया.
ब्रिटिश वायसराय के साथ एक गुप्त बैठक में अंबेडकर ने स्पष्ट घोषणा की कि “संसदीय प्रणाली भारत में नहीं चलेगी.” वायसराय ने उनसे पूछा कि क्या वह ऐसा सार्वजनिक तौर पर कहेंगे, तो उन्होंने कहा कि वह “पूरा जोर देकर” ऐसा कहने के लिए तैयार हैं.
ये सब देखते हुए यह सवाल उठता है कि संविधान सभा के भीतर अंबेडकर ने क्यों सिर्फ बहुमत वाली संसदीय प्रकार की सरकारों का समर्थन किया. आखिरकार संविधान निर्माण करनेवाली सभा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समितियों में नेहरू के साथ वह भी थे, और अंतत: उनके ही प्रारूप को अपनाया गया था.
यह अनुमान मात्र है, पर लोग तीन कारणों की ओर संकेत करते हैं कि अंबेडकर क्यों संसदीय सरकारों के अपने पुराने विरोध को छोड़ इसका प्रधान समर्थक बन गए.
एक, वह संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी के समर्थन के कारण ही शामिल हो पाए थे. उन्होंने सभा के भीतर कांग्रेस के प्रस्तावों को आगे बढ़ाने के काम को अपने कर्तव्य के रूप में देखा. दो, उन्हें नेहरू ने मंत्रिमंडल में विधि मंत्री के पद की पेशकश की. उन्हें लगा कि इससे उन्हें अपने राष्ट्र की सेवा करने और अपनी प्रतिबद्धताओं पर काम करने का अवसर मिलेगा.
और तीन, अंबेडकर संविधान को अपने धुर-विरोधी गांधी के असर से दूर रखना चाहते थे. भारत की सरकार की बुनियाद में गांवों को जगह देने संबंधी गांधी के विचार आधे-अधूरे और बहुत अधिक प्रयोगात्मक थे.
सत्तर वर्षों के खराब शासन तथा बढ़ते जातीय एवं सांप्रदायिक तनावों के मद्देनज़र यह कहना निरापद है कि हमारे मौजूदा संविधान की अंबेडकर की आलोचनाएं वैध थीं. अब, हम भारतीयों को निर्णय करना होगा कि हम वोट के खातिर उनके अनुयायी होने का ढोंग करते रहें, या सचमुच में उनकी सलाह का पालन करें.
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(लेखक दिव्य हिमाचल ग्रुप के संस्थापक और सीईओ हैं तथा उन्होंने ‘व्हाइ इंडिया नीड्स द प्रेसिडेंशियल सिस्टम’ नामक किताब लिखी है. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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