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राफेल डील: लोकतंत्र में सब कुछ राजनीतिक क्यों बन जाता है?

आप आम खाने में दिलचस्पी रखते हैं या गुठलियां गिनने में?

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
राफेल डील पर बढ़ा विवाद
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राफेल डील पर बढ़ा विवाद
(फोटोः द क्विंट)

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हमारे देश जैसे अधपके लोकतंत्र में सब कुछ राजनितिक बन जाता है. तो ये बात भी चौंकाने वाली नहीं हैं कि फ्रांस से राफेल मल्टीरोल फाइटर जेट का खरीदना भी राजनितिक बन जाएगा. इसमें दो बड़ी आलोचनाएं सामने आतीं हैं. पहली ये कि भारत ने इसके लिए जरूरत से ज्यादा खर्च कर दिया है. दूसरा कि इस काम में भारतीय क्षेत्र के मैन्यूफैक्चरिंग में क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ाया गया.

मैं इस काबिल नहीं हूं कि लड़ाकू विमान की कीमत और उसकी गुणवत्ता पर कुछ कह सकूं, लेकिन इसमें जो क्रोनी कैपिटलिज्म का जो मामला जुड़ा है उस पर यहां पूछना चाहता हूं: आप यह कैसे पहचानोगे कि ये काम सही है या गलत? क्या इसके लिए कुछ परीक्षण जरूरी है? या फिर जो एक कहावत है कि आप आम खाने में दिलचस्पी रखते हैं या गुठलियां गिनने में?

क्रोनी कैपिटलिज्म पर जो साहित्य है उसमें ये बुरा भी हो सकता है. कभी कम कभी ज्यादा, लेकिन बुरा जरूर होता है. हालांकि साहित्य ये भी बताता है कि क्रोनी कैपिटलिज्म एक देश को उतना ही हानि पहुंचाता है, जितना कि उसे फायदा देता है. लेकिन ये काम जरूर पूरा कर देता है.

जब किसी चीज के होने की संभावना आधी होती है, तो वह जनता के लिए खराब नहीं हो सकती. हालांकि अगर हम इस बात का करीब से आंकलन करें तो साहित्य बताता है कि हमारा ध्यान हमेशा खराब नतीजों पर ही रहता है. अच्छे नतीजों पर बहुत कम ही ध्यान दिया जाता है. जबकि आंकड़ों के हिसाब से उसके कारण काफी अच्छे बदलाव भी हो सकते हैं.

मेरे लिए सार्वभौमिक निंदा एक कट्टरवादी नजरिया ही है, जिस पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि मेरे हिसाब से उसमें कुछ न कुछ ऐसी सच्चाई जरूर होती है, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. इसलिए मुझे लगता है कि इस खोज का ध्यान अब इस बात में खामियां निकालने के साथ उसके अच्छे परिणामों पर भी जाना चाहिए. जब तक इस मुद्दे को सटीक तरीके से निपटाया जाता है, तब तक व्यर्थ की बातें होंगी और उंगलियां उठेंगी, लेकिन इससे कोई लाभ नहीं होगा.

एक सरल जांच

इसलिए मैं एक बहुत ही आसान जांच प्रस्तावित करता हूं: क्या ये क्रोनी कैपिटलिज्म, आप जैसा भी उसे समझते हैं, संसाधनों को खराब करता है? या फिर जैसा कि बोलचाल में कहा जाता है, इसके न होने से चीजें सही रहती हैं? निश्चित तौर पर मैं अभी सिर्फ इसी जांच को प्रस्तावित करुंगा. बाकी सब राजनीति, गुस्सा और कट्टरवाद है.

क्या वजह है कि सिर्फ यही जांच होनी चाहिए: संसाधनों के लिहाज से कमी वाली अर्थव्यवस्था में सिर्फ उन्हीं को इनके इस्तेमाल करने की इजाजत दी जानी चाहिए, जिन्हें उनका इस्तेमाल आता हो. ये ठीक वैसा ही है जैसे कि अगर एक गांव में एक नाई और एक दर्जी है, तो आप दर्जी को बाल काटने के लिए और नाई को कपड़े सिलने के लिए नहीं कह सकते.

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उदाहरण के तौर पर राफेल के मामले में सिर्फ एक मुद्दा है: क्या अंबानी के पास इस काम के लिए पैसे, तकनीक, प्रबंधन की क्षमता और जरूरी मैनपावर है? क्या कोई ऐसा है, जो यह काम उनसे बेहतर कर सके? आपको इन सवालों के जवाब के लिए सिर्फ उनके अब तक के रिकॉर्ड और क्षमता को परखने की जरूरत है.

इसके अलावा एक आर्थिक दृष्टिकोण से इस बात से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि दोनों भाइयों में से किसको ये सौंपा गया? या फिर ये सिर्फ कहने की बात है, जैसा कि दूसरे मामलों में देखा गया है.

इसलिए मुद्दा ये है कि विकासशील देशों में दिक्कतें सिर्फ अर्थ और तकनीक से ही नहीं, बल्कि प्रबंधकीय क्षमताओं से भी होती है. इसलिए जब आप अपने एक स्थापित उद्योगपति को एक बड़े प्रोजेक्ट को अंजाम देने के लिए कहते हैं, तो ये वैसा ही है जैसा कि आप अपनी बेटी की शादी में, जिसमें कि हजारों लोग मेहमान बनकर आने वाले हैं, उसमें पड़ोस के ढाबे वाले को कैटरिंग की जिम्मेदारी दे देते हैं.

आकार का महत्व

इसलिए आकार हमेशा ही अंतिम परिणाम को तय करता है. और सिर्फ इस वजह से कि विकासशील अर्थव्यवस्था में केवल कुछ के पास वो जरूरी आकार है. इसका नतीजा ये होता है कि बड़े अनुबंध उन्हीं के पास जाते हैं. लेकिन ये क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं कहलाता है.

क्रोनी कैपिटलिज्म वह होता है जब सरकार किसी ऐसे को अनुबंध दे देती है, जो उस काम के लिए सक्षम ही नहीं है और उसके बाद अपने हक में परिणाम लाने के लिए नियमों का उल्लंघन करती है. मैं तो कहूंगा कि पूरा का पूरा पब्लिक सेक्टर इसी कटेगरी में आता है.

इसका ये मतलब नहीं है कि प्रतिस्पर्धी बोली और पारदर्शिता नहीं होनी चाहिए. लेकिन मानव संसाधन के लिहाज से कमजोर इकनॉमी वाले देश में ये काम हमेशा संभव नहीं है.

इसके बाद निश्चित तौर पर यह जरूरी हो जाता है कि भ्रष्टाचार की बहुतायत और क्षमताओं की कमी के कारण कोई ऐसी-वैसी स्थिति न पैदा हो जाए, जिसमें कि गुणवत्ता और क्षमताओं के लिए कोई जगह ही न हो. लेकिन ये दूसरे दर्जे की समस्या है, जिसे संसदीय और मीडिया के लोग ठीक नहीं कर सकते तो कम-से-कम जागरूकता जरूर पैदा कर सकते हैं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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