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क्‍या देश के गवर्नेंस सिस्टम में बदलाव जरूरी हो चला है?

केंद्र और राज्य के संबंधों को देखते हुए देश के गवर्नेंस सिस्टम में तब्दीली लानी चाहिए?

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
क्षेत्रीय पार्टियां फिर से उभार पर हैं.
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क्षेत्रीय पार्टियां फिर से उभार पर हैं.
(फोटो: द क्विंट)

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पिछले दो दशक से क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र की सरकार में अपनी जो ताकत दिखा रही थीं, 2014 आम चुनाव के बाद उस पर ब्रेक लग गया, जब बीजेपी ने अपने दम पर सरकार बनाई. अगले लोकसभा चुनाव के बाद जो सरकार बनेगी, तो मुमकिन है कि उसमें राज्यों की चले, क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां फिर से उभार पर हैं.

केंद्र और राज्य के संबंधों में समय के साथ जिस तरह का बदलाव आया है, क्या उसे देखते हुए देश के गवर्नेंस सिस्टम में तब्दीली लानी चाहिए?

मुझे लगता है कि हमारा गवर्नेंस सिस्टम जिस बुनियाद पर काम करता है, उसकी समीक्षा करनी चाहिए. मजबूत केंद्र की धुरी पर यह सिस्टम टिका हुआ है, लेकिन सवाल यह है कि हम किन क्षेत्रों में केंद्र को मजबूत देखना चाहते हैं?

रक्षा, संचार और करेंसी के मामलों में कोई समझौता नहीं हो सकता. इसमें संविधान के साथ कुछ और चीजें भी हैं. हालांकि इसमें ऐसी भी चीजें हैं, जिनकी संदर्भ बदलने की वजह से अब जरूरत नहीं रह गई है. इसलिए अगली सरकार को इसकी समीक्षा करके लिस्ट को छोटा करना चाहिए. इसमें से अधिक से अधिक चीजों को हटाकर उन्हें राज्यों की लिस्ट में डाला जा सकता है. राज्यों को अधिक ममलों में फैसले का अधिकार देना चाहिए.

जब संविधान बना था, तब यह डर था कि एक या अधिक राज्य स्वतंत्र होने की कोशिश कर सकते हैं. हालांकि यह आशंका 40 साल पहले ही खत्म हो गई. उसकी वजह यह है कि केंद्र के साथ बने रहने पर जो आर्थिक फायदे मिलते हैं, वे अलग होने के बाद खत्म हो जाएंगे. इसलिए कश्मीर घाटी के लोग भी भारत से अलग नहीं होना चाहते.

दरअसल, कोई भी केंद्र से मिलने वाली ‘मलाई’ गंवाना नहीं चाहता. इसे देखते हुए यह सवाल किया जा सकता है कि केंद्र को कितना ताकतवर होना चाहिए? और आज पावरफुल होने का क्या मतलब है?

मेरे हिसाब से कानूनी, आर्थिक जानकारों के साथ नेताओं की एक समिति बनानी चाहिए, जो इसकी समीक्षा करे. इस समिति से हर हाल में पूर्व नौकरशाहों को बाहर रखना होगा, क्योंकि वे ऐसे हर बदलाव को रोकने की कोशिश करेंगे, जो उनके पेशेवर हितों के खिलाफ होगा.

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मैं जो बात कह रहा हूं, उसकी अवधारणा सुप्रीम कोर्ट ने 1960 के दशक की शुरुआत में रखी थी. उसने कहा था कि भारत अमेरिका या कनाडा की तरह फेडरेशन नहीं है, बल्कि यह ‘राज्यों का संघ’ है.

पहले माना जाता था कि राज्यों को बहुत आजादी देना ठीक नहीं होगा और उन्हें सही रास्ते पर रखने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. इसे अच्छी तरह से समझने के लिए आपको पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखी चिट्ठियों को पढ़ना चाहिए. नेहरू ने इनमें उन्हें बताया है कि शासन किस तरह से करना चाहिए.

हालांकि धीरे-धीरे सब बड़े हो जाते हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा और गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं. केंद्र की कुर्सी हासिल करने की लाइन में कुछ और मुख्यमंत्री शामिल हैं. राज्यों की मेच्योरिटी की यह सच्चाई संविधान में भी दिखनी चाहिए, नहीं तो केंद्र अप्रासंगिक हो जाएगा.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के साथ देश ने इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है. राजनीतिक तौर पर भी भारत गवर्नेंस के सामान्य तौर-तरीकों की तरफ लौट रहा है. यह एक आधुनिक किस्म की मनसबदारी है, जिसमें घोड़े पर सवार सैनिकों के बजाय पैसे वाले विधायकों की अहमियत है. संविधान इस सच्चाई को भी नहीं दिखाता.

हालांकि वह कई बार प्रोसेस को पावर मानने की गलती कर बैठता है. भारत का संविधान दुनिया का शायद इकलौता संविधान है, जिसमें प्रोसेस पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है. इसमें कई चीजें अच्छी हैं, लेकिन जैसा कि आर्टिकल 311 से साबित होता है कि इनमें से कुछ से फायदे के बजाय नुकसान हो रहा है.

जब संविधान बन रहा था, तब बचाव के ये उपाय जरूरी थे, लेकिन अब इनमें से कुछ की समीक्षा करने का समय आ गया है. आज गवर्नेंस के केंद्र में यही सबसे बड़ा सवाल है.

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