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भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने 23 सितंबर 2020 को जो ऑडिट रिपोर्ट पेश की है उसमें राफेल समझौते पर ये कहते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणियां की गई हैं कि फ्रांस की कंपनियों ने अपने ऑफसेट दायित्वों को पूरा नहीं किया है.
जाहिर है कि मीडिया में इसको लेकर कई तरह की खबरें चलीं जिसके कारण भ्रम की स्थिति बनी. मूल रूप से कहें तो भारतीय ऑफसेट स्कीम क्रियान्वयन की समस्या से जूझती रही हैं.
2005 और 2018 के बीच 66,427 करोड़ ($9 बिलियन) के ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट किए गए जिनमें से 19,233 करोड़ की योजनाएं 2018 तक पूरी हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत में दिसंबर 2018 तक केवल 5,457 करोड़ की योजनाएं ही पूरी हो सकी हैं और उन्हें मंजूरी मिली है.
ये कुल कीमत का सिर्फ 8.21 फीसदी ही है और जो क्रियान्वयन सुनिश्चित करने में वेंडर की अक्षमता या उनकी परेशानियों को सामने लाता है. समस्या मुख्य रूप से भारत सरकार की संबंधित एजेंसियों के साथ है जिन्हें ऑफसेट से जुड़े काम को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है.
7.78 बिलियन यूरो के राफेल समझौते पर 23 सितंबर 2016 को हस्ताक्षर हुए थे. इसी के साथ कई वेंडर ने ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट साइन किए थे और मुख्य कॉन्ट्रैक्ट साइन होने के सात साल के अंदर उनके लिए अपने ऑफसेट दायित्वों को पूरा करना आवश्यक था.
2005 में मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (MMRCA) पर मीटिंग देश के लिए उच्च तकनीक और निर्माण का फायदा उठाने के लिए ऑफसेट जरूरतों को 50 फीसदी करने की सिफारिश की गई. उस समय के रक्षा सचिव श्री शेखर दत्त ने इसे मान लिया और इसे लागू कर दिया.
राफेल ऑफसेट 30,000 करोड़ (करीब $4 बिलियन) का है और सात साल के अंदर इसे पूरा किया जाना है.
दसॉ एविएशन मुख्य एजेंसी है जो ऑफसेट दायित्वों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है जबकि ऑफसेट प्रतिबद्धता चार मुख्य एजेंसियां साझा करती हैं जो एयरक्राफ्ट के निर्माण में शामिल हैं. दसॉ एविएशन (DA) जो कि एयरक्राफ्ट के पूरे इंटीग्रेटर का काम करता है और कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक डिलिवरी के लिए जिम्मेदार है, साफरान, जिसकी जिम्मेदारी इंजन बनाने की है, थेल्स, जो इलेक्ट्रॉनिक्स, एविऑनिक्स और रडार और इलेक्ट्रेनिक युद्ध के सामान जैसे सिस्टम के लिए जिम्मेदार है और एमबीडीए जो हथियार और दूसरे संबंधित उपकरणों के लिए जिम्मेदार है.
इन चारों वेंडरों में हर एक के पास कई टियर वन पार्टनर हैं जो उनके सिस्टम के डिजाइन और मैन्यूफैक्चरिंग के मालिक हैं और इसलिए ऑफसेट में शामिल हैं.
ऑफसेट क्रियान्वयन, 2013 की डिफेंस ऑफसेट गाइडलाइंस के अनुपालन के तहत किया जाता है जो सेवाओं और संबंधित उत्पादों के निर्माण के साथ आउटसोर्सिंग के लिए भारतीय ऑफसेट पार्टनर द्वारा संयुक्त उपक्रम और दूसरे टाइ-अप के जरिए काम पूरा करने की रूप रेखा बताती हैं.
संयुक्त उपक्रम टाइ-अप क्रियान्वयन और यहां तक कि डायरेक्ट आउटसोर्सिंग को भी क्रियान्वित होने के लिए समय सीमा की जरूरत होती है और इसलिए ये पहले तीन साल के बाद ही होते हैं. हालांकि टीओटी और रिसर्च-डेवलमेंट का काम तुरंत शुरू हो सकता है. सीएजी ने इसी विषय को उजागर किया है. अगर कोई इसमें शामिल एजेंसियों की पिछली कोशिशों से जोड़े तो टिप्पणियां दिलचस्प हैं.
शुरुआती टिप्पणियां डीआरडीओ के कावेरी इंजिन डेवलपमेंट प्रोग्राम में सहायता के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर या इसमें लगातार आ रही कुछ परेशानियों को दूर करने से संबंधित है. यहां जो एजेंसी शामिल है वो है साफरान जो इंजिन से जुड़ा है और जिसमें इंजिन बनाने वाली स्नेकमा शामिल है. काम आगे न बढ़ने के मामले में एमबीडीए का भी जिक्र किया गया है.
साफरान की समस्या दो मुद्दों से जुड़ी लगती है, जिस तरह की टेक्नोलॉजी की मांग की जा रही है और उसकी कीमत. ये पहली बार नहीं है जब कावेरी इंजिन के मुद्दे पर साफरान और डीआरडीओ के बीच बात हो रही है. 2007 में डीआरडीओ और साफरान कावेरी इंजिन तैयार करने को लेकर एक समझौता पर पहुंचे थे.
हालांकि जब प्रस्ताव सामने आया तो ये महसूस किया गया कि साफरान से मदद लेने का मतलब था कि वो कावेरी इंजिन के मुख्य हिस्से को स्नेकमा इंजिन के मुख्य हिस्से से बदल देंगे, इसका ये अर्थ था कि कावेरी इंजिन पर पिछले 25 साल में किया गया काम पूरी तरह बेकार हो जाता. इसके अलावा, टेक्नोलॉजी में मदद, डिजाइन की जानकारी तक असली पहुंच की तुलना में एक मार्गदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं है. पिछले इतिहास को देखते हुए डीआरडीओ के साफरान से महत्वपूर्ण इंजिन टेक्नोलॉजी पाने की चाहत के पूरा होने की उम्मीद कम ही है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि राफेल ऑफसेट अनुपालन के लिए अब सिर्फ तीन साल ही बचे हैं, इसे समय पर पूरा करना एक बड़ी चुनौती होगी.
एयरोस्पेस के क्षेत्र में एयरोइंजिन टेक्नोलॉजी सबसे जटिल और टॉप-एंड टेक्नोलॉजी है. जिन देशों ने इसमें महारत हासिल किया है वो एक हाथ की पांच उंगलियों से ज्यादा नहीं हैं और फ्रांस उनमें से एक है.
ये देश अपनी महत्वपूर्ण टेक्नोलॉजी को को ऐसे ही किसी को नहीं दे देते जब तक कि कोई बड़ा समझौता और अच्छी तरह से सोच-समझकर तैयार ऑफसेट रणनीति उन्हें इसके लिए मजबूर नहीं करती. चीन, जिस पर पश्चिमी देश अक्सर अपनी कंपनियों की टेक्नोलॉजी बांटने के लिए विवश करने का आरोप लगाते रहे हैं, इस रणनीति का पर चलने वाला सबसे सफल देश रहा है. भारत के ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट सिर्फ 8.21 फीसदी ही पूरे हुए हैं ये इस बात की गवाही देता है कि हमारी ऑफसेट रणनीति की कार्यप्रणाली में ही कुछ समस्या है.
126 राफेल विमानों की खरीद का मूल टेंडर टेक्नोलॉजी खरीदने के उद्देश्य को लेकर स्पष्ट था. सरकार को ये देखने के लिए और अधिक विकल्पों की आवश्यकता है कि देश की टेक्नोलॉजी जरूरतों का अनुपालन कौन करेगा और इसलिए यही समय है कि हम न सिर्फ एल 1 या सिर्फ एक जी से जी बल्कि उन सभी से बात करें जो ऑपरेशनल आवश्यकताओं के बुनियादी चरण को पूरा करने में सक्षम हैं. रक्षा खरीद को राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा जाना चाहिए.
ऑफसेट नीति को रद्द करना कूड़े के साथ काम की चीज भी फेंकने जैसा होगा. सरकार को ऑफसेट नीति की कमियों को दूर करने के लिए इसे एक समग्र नीति के रूप में फिर से तैयार करने, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ऑफसेट को साथ मिलाने और इसे एक अच्छी तरह से तैयार की गई नेशनल टेक्नोलॉजी रणनीति से जोड़ने की जरूरत है.
भारत को अपनी डिफेंस टेक्नोलॉजी में महारत और संप्रभुता में तेजी लाने के लिए सहयोग, संयुक्त उपक्रम, संयुक्त रिसर्ज और रिस्क-शेयरिंग पार्टनरशिप के मामले में टेक्नोलॉजी इनपुट की जरूरत है. इसके सबसे महत्वपूर्ण तरीकों में से एक ये है कि हमारे बड़े कॉन्ट्रैक्ट का अच्छी तरह से सोच-समझ कर तैयार की गई ऑफसेट रणनीति के माध्यम से फायदा लिया जाए.
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