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मैंने पिछले हफ्ते वैक्सीन ले ली!
वाह, क्या मेरी बात से ऐसा लग रहा है कि मैंने अभी-अभी ही उद्यमिता के लिए नोबेल प्राइज जीता है जबकि इसके लिए वो मिलता भी नहीं है. लेकिन, क्यों नहीं, क्योंकि एक साल की डरावनी कैद, संदेह के साथ हर चीज छूने, हर सर्दी या छींक पर गुस्सा होने के बाद मुझे वो एंटीबॉडीज मिली हैं जो मुझे और इस दुनिया को इस डर से जल्द ही छुटकारा दिला सकती है.
2020 में कोविड 19 संक्रमण और मौतों का ग्राफ जिस तरह ऊपर जा रहा था उससे मैं पूरी तरह लाचार महसूस कर रहा था. शॉर्ट्स और टी शर्ट में अपने स्टडी रूम जाने, कंप्यूटर स्क्रीन को घूरते या उस पर जोर से चिल्लाते हुए दिन बिताने, शाम में थक-हार कर वहां से उठने, पैदल लिविंग एरिया में वापस जाने, नियम के मुताबिक नेटफ्लिक्स और कुछ ड्रिंक्स के हर दिन के डोज, रात में उस नींद की तलाश करने जो गायब हो गई थी, के अलावा मैं और ज्यादा कुछ नहीं कर सकता था.
लेकिन नए साल के 16वें दिन भाग्य ने पलटी मारी. भारत में वैक्सीनेशन शुरू हो गया. बावजूद इसके मेरा उत्साह जल्द ही ठंडा पड़ गया. हमारी सर्वशक्तिशाली सरकार ने पूरी तरह से इस कार्यक्रम पर एकाधिकार जमाया हुआ था. सरकार फैसला कर रही थी कि कहां, कौन, कब और कैसे हर फ्रंटलाइन वर्कर को टीका दिया जाएगा. अजीब बात ये थी कि सरकार ने निजी हेल्थ फैसिलिटीज पर अपने संकट में फंसे हेल्थ वर्कर को भी वैक्सीन देने पर पाबंदी लगा दी थी जिन्हें सरकारी स्वास्थ्य सेंटर्स पर जाकर टीका लेना पड़ा.
हम भी वायरस के बढ़ते प्रकोप के आसान शिकार बन जाते. इससे भी बुरा, इस बात का अनुमान लगाया जा रहा था कि इस सुस्त रफ्तार के कारण वैक्सीन के लाखों डोज एक्सपायर होने वाले थे, किसी ने भी इस आशंका का जोरदार खंडन भी नहीं किया. ऐसे समय में जब दुनिया गंभीर कमी से जूझ रही थी, ये स्थिति दुखद से परे थी.
भारत की खुद अपने ऊपर थोपी गई असफलता, एक सरकार-निर्मित लंबी लड़ाई का संभावित संकेत, दर्दनाक था.
मैं आशाहीनता की ओर और बढ़ने ही वाला था.. जब अचानक सरकार ने एक बड़ा यू टर्न (आत्मसमपर्ण) लेते हुए हार मान ली. “नहीं, तुम नहीं कर सकते” की सख्ती के बाद सरकार ने 48 घंटे के अंदर निजी क्षेत्र के लिए सब कुछ खोल दिया! मैं मजाक नहीं कर रहा. शुक्रवार की रात तक हम एक ऐसे शासन के तहत थे जिसमें हर चीज पर रोक थी और सोमवार को खुल जा सिमसिम हो गया, सब कुछ एक छोटे वीकेंड के दौरान.
अब सबसे ज्यादा खतरे में आने वाले श्रेणी का कोई भी व्यक्ति अपने फोटो पहचान पत्र का इस्तेमाल करते हुए कहीं भी टीका ले सकता था- कोई पाबंदी नहीं, अफसरशाही वाला कोई अगर-मगर नहीं, सिर्फ जाकर वैक्सीन लेने की इच्छा होनी चाहिए थी. अधिकतम कीमत भी आश्चर्यजनक रूप से 250 रुपये प्रति डोज तय की गई, जिससे लाभार्थियों की आंखों में कृतज्ञता के आंसू आ गए और वैक्सीन बनाने वाले गुस्से में आ गए (चलिए, मानवता के लिए न चाहते हुए भी इसे स्वीकार कर लीजिए).
सरकार के पीछे हटने के इस बड़े कदम ने मुझे थोड़ा हैरान कर दिया. क्या मुझे पहले जाकर टीका लगवाने चाहिए और बाद में सोचना चाहिए, या कुछ दिन और इंतजार करना चाहिए? अभी मैं तक इस उलझन में था जब मेरी साहसी बहन ने फेसबुक पर एक तस्वीर पोस्ट की. वो आराम से टहलते हुए बांद्रा के एक बीएमसी फैसिलिटी सेंटर गईं और टीका लगवा लिया.
मैंने भी अपना मन बना लिया था. चूंकि तकनीक के मामले में मैं थोड़ा कमजोर हूं, इसलिए मुझे अपनी पत्नी की बेहतरीन योग्यता का सहारा लेना पड़ा. उन्होंने विशेषज्ञ की तरह www.cowin.gov.in. में लॉग इन किया. उन्होंने मेरा मोबाइल नंबर टाइप किया और इससे पहले कि मैं कोविड बोल पाता, एक वन-टाइम-पासवर्ड (ओटीपी) मेरे मोबाइल में आ गया. मुझे आज तक ठीक से समझ नहीं आया कि हम ओटीपी को लेकर इतने घबरा क्यों जाते हैं? ये 10 मिनट तक मान्य रहते हैं, लेकिन हम हड़बड़ी में ऐसा व्यवहार करते हैं कि ये 10 सेकेंड में ही गायब हो जाएंगे.
चाहे जैसे भी, मैंने उन 10 सेकेंड में ओटीपी बता दिया जिसे उन्होंने फिर से स्क्रीन पर टाइप कर दिया. और देखते ही देखते रजिस्ट्रेशन पेज खुल गया.
अपॉइंटमेंट की पुष्टि के लिए हमें एक मैसेज आना था लेकिन वो कभी नहीं आया (इस समय तक ये पहली गड़बड़ी थी जिसका सामना हमें करना पड़ा था). लेकिन वेबसाइट ने हमें सभी जरूरी अपॉइंटमेंट की जानकारी के साथ पीडीएफ शीट डाउनलोड करने देकर इस एक गड़बड़ी की भरपाई कर दी थी.
वैक्सीनेशन के दिन की शुरुआत ताजगी भरी हुई. वैक्सीन के बारे में सोचते हुए मेरी रात बेकरारी में बीती. इसकी जरूरत नहीं थी. सब कुछ बिना किसी रुकावट के हो गया (स्वीकारोक्ति-कई खास “दक्षिणी दिल्ली वालों की तरह” हमने एक रेकी करने और हमारा काम आसान करने के लिए पहले एक व्यक्ति को भेजा था.) हमने अपना टोकन नंबर कलेक्ट किया और वेटिंग रूम पहुंच गए जहां एक दर्जन दूसरे लोग भी टीका लेने का इंतजार कर रहे थे. नर्स ने एक-एक कर सबको बाहर बुलाया, हमारा टेंपरेचर, ऑक्सीजन लेवल और ब्लड प्रेशर चेक किया. सब कुछ एक क्रम के मुताबिक हो रहा था. इसके बाद हमें “जैब रूम” में बुलाया गया जहां एक खुशदिल महिला ने हमारा आधार पहचान पत्र मांगा (उस सुबह तीसरी बार), अपने कंप्यूटर में कई जानकारी नोट की और वैक्सीन लेने के लिए जाने दिया.
वहां से हमें एक दूसरे डेस्क पर ले जाया गया, जहां एक और बार आधार की जरूरत थी. उस नर्स ने हमसे कहा “अगर आपकी सांस फूलती है, मिचली आती है, बुखार होता है या पेट खराब होता है तो 500 मिलीग्राम का क्रोसिन टैबलेट लें. अगर इसके बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो यहां आने की जरूरत नहीं है, लेकिन करीब के किसी भी अस्पताल में जाएं तो आज के टीका लेने की बात बताएं. वो आपकी समस्या दूर करेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है. ”
अंत में, हम एक छोटे कमरे में दूसरे आधे दर्जन मरीजों के साथ करीब आधे घंटे तक इंतजार करते रहे. एक एसएमएस आया जिसमें टीकाकरण का पहला डोज लेने की बात प्रमाणित की गई लेकिन बाकी के दो कभी नहीं आए (एक और गड़बड़ी लेकिन फिर हमें मिसिंग सर्टिफिकेट अस्पताल से मिल गया.) उसके बाद हमें जाने दिया गया. वैक्सीनेशन पूरा हुआ.
बाद में उस रात मुझे थोड़ा बुखार और शरीर में दर्द हुआ, लेकिन 48 घंटे के अंदर मैं पूरी तरह फिट था.
अब जब मैं वैक्सीन की दूसरी डोज के लिए चार हफ्ते का इंतजार कर रहा हूं, मैं एक अस्तित्व से जुड़ा सवाल पूछ रहा हूं जो ढाई करोड़ (और तेजी से बढ़ता हुआ) भारतीय और दुनिया के कुछ करोड़ लोग कुछ दिन में पूछेंगे: तो, अब जब हमें एंटीबॉडीज मिल गई है, क्या हम सामान्य जीवन की ओर लौट सकते हैं, प्लीज? नहीं तो इन सब का क्या फायदा? अगर हम ऐसा नहीं करें तो ये एक बड़ा मौका गंवाना होगा, ठीक?
इसलिए, मेरी प्रिय भारत सरकार (और अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और अन्य) उन सभी लोगों ने, जिन्होंने वैक्सीन की दोनों डोज ले ली है उन्हें प्लीज एक वैक्सीनेशन पासपोर्ट दें. हमें यात्रा करने, लोगों से मिलने, खेलने, जिम जाने, स्विम करने, फिजियो के पास जाने और बाकी चीजें भी करने की अनुमति दीजिए.
हां, हम सुरक्षा के सभी प्रोटोकॉल पालन करने का वादा करते हैं. लेकिन प्लीज हमें आजाद कर दें. वैश्विक अर्थव्यवस्था और हमारी भलाई के लिए, हमें अनुचित पाबंदियों और प्रतिबंधों की बेड़ियों में नहीं जकड़ें.
हमने वैक्सीन ले ली है. अब हमें हमारा वैक्सीन पासपोर्ट दीजिए. हमारी आजादी दीजिए.
(राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं-'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050")
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