Home Voices Opinion लुटियंस दिल्ली ने इंदिरा से मोदी तक का खेल बनाया और बिगाड़ा है
लुटियंस दिल्ली ने इंदिरा से मोदी तक का खेल बनाया और बिगाड़ा है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह कई प्रधानमंत्री ये शिकायत कर चुके हैं कि लुटियंस दिल्ली ने उन्हें निशाना बनाया.
राघव बहल
नजरिया
Updated:
i
null
(फोटो: कामरान अख्तर/ क्विंट हिंदी)
✕
advertisement
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वही गलती कर रहे हैं, जो उनसे पहले इस गद्दी पर बैठने वाले कई लोग कर चुके हैं. उन लोगों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. पिछले प्रधानमंत्रियों की तरह मोदी भी ‘लुटियंस दिल्ली’ (एलडी) के पॉलिटिकल नैरेटिव यानी राजनीतिक विमर्श गढ़ने की ताकत को कम मानने की भूल कर रहे हैं, जिस पर वोटर यकीन करते आए हैं.
इस कॉलम की पिछली कड़ी में मैंने बताया था कि लुटियंस दिल्ली के पास प्रधानमंत्री बनाने और उन्हें कुर्सी से बेदखल करने की ताकत है. मैंने यह भी बताया था कि लुटियंस दिल्ली किसे कहते हैं. यह अंग्रेजी बोलने वाले जहीन चिंतकों-लेखकों का ग्रुप है (जिसे ताकतवर नेता बर्दाश्त नहीं कर पाते), जो सामाजिक-सांस्कृतिक उदारवाद, मानवाधिकार, धार्मिक-लैंगिक समानता, सरकार के छोटे साइज, संवैधानिक मान्यताओं, कारोबारी आजादी और असरदार कल्याणकारी योजनाओं का हिमायती है.
कई प्रधानमंत्री शिकायत कर चुके हैं कि लुटियंस दिल्ली ने उन्हें निशाना बनाया. उन्हें लगता है कि ये साजिश करने वाले लोग हैं, जिनकी ‘आदतन बहुमत से अलग राय’ होती है. ये ‘स्टाइलिश एयर कंडीशंड केबिनों’ में बैठते हैं. अनजानी भाषा में जहर उगलते हैं. उन्हें ‘एक आम गांव वाले’ की मुश्किल जिंदगी के बारे में कुछ पता नहीं होता. उनके कहने का मतलब है कि लुटियंस दिल्ली नाम के ‘कुर्सी तोड़ने वाले बुद्धिजीवियों’ को इग्नोर किया जा सकता है. यह सोच गलत, सचाई से कोसों दूर और खतरनाक है.
लुटियंस दिल्ली भले ही अंग्रेजी में लिखती है, लेकिन वह देशभक्त और पूरी तरह भारतीय है
बेशक लुटियंस दिल्ली अंग्रेजी में लिखती और सोचती है. यही उसकी कुदरती भारतीय भाषा है. उसकी पढ़ाई-लिखाई इसी भाषा में हुई है. इसे 250 साल के ब्रिटिश राज की देन भी कह सकते हैं. इस ‘अभिजात्य वर्ग’ (यह‘तमगा’ प्रधानमंत्री मोदी का दिया हुआ है) ने अपने मन से या सोच-समझकर अंग्रेजी भाषा को नहीं चुना है. और इस वजह से वे ‘दूसरे ग्रह के जीव’ या एलियंस नहीं हो जाते. वे उतने ही भारतीय और देशभक्त हैं, जितना कोई हिंदी या कन्नड़ या बंगाली या तमिल या किसी अन्य भारतीय भाषा में सोचने वाला.
वे ‘इंग्लिश मीडियम’ हैं, सिर्फ इसलिए उनकी समझ या ताकत को झुठलाना नादानी होगी. ये लेखक देश के जहीन दिमाग लोग हैं. लुटियंस दिल्ली की तर्कों और आलोचनाओं में दम होता है. वे समझदार हैं. उन्हें पता है कि देश की सूरत-ए-हाल बदलने के लिए क्या करना चाहिए. अगर कोई नेता उनकी बातों पर ध्यान दे तो वह अपनी ताकत बढ़ा सकता है. वो कहते हैं ना कि एक समझदार इंसान अपने मुखर आलोचकों को हमेशा करीब रखता है या शायद उसे ऐसा ही करना चाहिए.
अब मैं अपनी बात साबित करने के लिए इतिहास की कुछ बातें आपके सामने रखता हूं. मैंने इसके लिए 1969 से 1989 के दो उथलपुथल वाले दौर को चुना है, जब देश एक पार्टी के शासन से कई दलों वाले लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा था. इसमें एक दूसरे से होड़ करने वाले सामाजिक गठबंधन शामिल थे, जो अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में बात करते थे.
इंदिरा गांधी का उदय और इंडियन नेशनल कांग्रेस का टूटना (1969)
मिलेनियल्स को शायद यकीन न हो, पर इंदिरा गांधी ने सत्ता के बंधे-बंधाए ढर्रे के विरोध के साथ शुरुआत की थी. उन्होंने पहले अपनी पार्टी में राइटविंग झुकाव रखने वाले नेताओं को किनारे किया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके समाजवाद के प्रति अपना प्रेम दिखाया. राजसी विशेषाधिकार खत्म किए. सुप्रीम कोर्ट को उदारवादी वामपंथियों से भर दिया. 1971 में पाकिस्तान को हराकर जब उन्होंने बांग्लादेश को आजाद किया, तब वह लोकप्रियता के शिखर पर थीं. मैं गिरिलाल जैन के संपादकीय से कुछ लाइनें यहां दे रहा हूं. जैन इंदिरा गांधी के शुरुआती प्रशंसकों में से थे और शायद उस वक्त लुटियंस दिल्ली की सबसे प्रभावशाली आवाज माने जाते थे.
गिरिलाल जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक)
9 दिसंबर 1970: अगर कोई संकेत दे रहा है कि मिसेज गांधी साम्यवाद की राह तैयार कर रही हैं या देश की विदेश नीति को सोवियत संघ का पिछलग्गू बना रही हैं तो वह बेवकूफी है.
12 जुलाई 1972 (पाकिस्तान के साथ शिमला समझौते पर, जब 1971 युद्ध में जीते गए 5,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र लौटाने पर मिसेज गांधी पर कमजोर होने का आरोप लगा): वह न सिर्फ उपमहाद्वीप की अनिवार्य एकता की घोषणा कर रही हैं बल्कि अपने सामर्थ्य के हिसाब से बाहरी दखलंदाजी रोकने के हालात बनाने की भी कोशिश कर रही हैं.
23 अगस्त 1972 (जब भारत में महंगाई और विरोध बढ़ रहा था): झूठी उग्रता दिखाने की होड़ देश के लिए घातक साबित हो सकती है.
6 नवंबर 1974 (जब जयप्रकाश नारायण के नव निर्माण आंदोलन को दबाने के लिए मिसेज गांधी तानाशाही की तरफ बढ़ रही थीं): हालात इतने बुरे नहीं होने चाहिए थे.
20 नवंबर 1975 (इमरजेंसी के दौरान जब जुल्म बढ़ गया था): 16 नवंबर के राष्ट्रपति आदेश को काला कानून के अलावा और कुछ मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
इन संपादकीय में ‘छद्म उग्रता’ से ‘काले कानून’ जैसे शब्दों के जरिये सरकार के प्रति ज्यों-ज्यों आलोचना बढ़ती जा रही थी, उसी तरह से इंदिरा गांधी का राजनीतिक ग्राफ भी नीचे जा रहा था. यह ग्राफ सीधे लुटियंस दिल्ली की आलोचनाओं से जुड़ा था. 1977 में आननफानन में बनी जनता पार्टी के हाथों आखिर में उनकी हार हुई. अब जनता पार्टी लुटियंस दिल्ली की नई डार्लिंग बन गई थी:
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
जनता पार्टी का उदय और पतन (1977-79)
विद्या सुब्रमण्यम: रामलीला मैदान की रैली निजी तौर पर मेरे लिए सबसे अधिक खुशी का लम्हा था. रैली विपक्ष की थी और स्टार वक्ता जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी थे. उन्होंने धीमी गति से पॉज लेकर चुटीला भाषण दिया, जिससे लोग हंसते-हंसते लोटपोट हो गए. मैं इस हसरत के साथ घर लौटी कि वाजपेयी को अगला प्रधानमंत्री बनना चाहिए...हमारी अनुमान से कहीं बड़ी हार हुई. इंदिरा गांधी, उनके बेटे संजय और सरकार में उनके दरबारी धूल चाटते रह गए. खुद पर यकीन नहीं हो रहा. यह क्रांति है. यह अहंकारी तानाशाह के मुंह पर लोगों का करारा थप्पड़ है.
लेकिन जल्द ही जनता पार्टी अंदरूनी साजिश का शिकार हो गई और तब लुटियंस दिल्ली ने उसकी भी खबर ली. यहां मैं कुलदीप नैय्यर का लिखा हुआ आपके सामने रख रहा हूं. इमरजेंसी में उन्हें जेल में डाला गया था और वह जनता पार्टी के समर्थक थे, जो बाद में उसके सख्त आलोचक बने:
संजय गांधी के जाने के बाद हमें कांति देसाई मिले हैं, जो (प्रधानमंत्री) मोरारजी के बेटे हैं. वे संजय गांधी जितने ही निरंकुश हैं और उनकी ईमानदारी संदिग्ध है. मोरारजी ने मुझे फोन करके चेतावनी दी कि मैं जो लिख रहा हूं, उसकी वजह से मुझे जेल में डाला जा सकता है.
कुलदीप नैय्यर
(फोटो: कामरान अख्तर/ द क्विंट)
लुटियंस के एक और जाने-माने नाम बी जी वर्गीज ने यह लिखा था (15 मई 1979):
बदलाव की सोच नहीं दिख रही है. इसके बजाय एक राजनीतिक जड़ता है, जो धीरे-धीरे टूटने पर आमादा है.
बी जी वर्गीज
राजीव गांधी और वी पी सिंह का उदय और पतन (1985-90)
इस तरह से जनता पार्टी का पतन हो गया और मिसेज गांधी की 1980 में सत्ता में वापसी हुई. इससे पहले कि वह आलोचकों के निशाने पर आतीं, 1984 में अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी. उनके बेटे राजीव गांधी ऐतिहासिक जनादेश के साथ सत्ता में आए और लुटियंस दिल्ली ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत कियाः
विद्या सुब्रमण्यमः मीडिया राजीव की जीत के नशे में चूर है. द इंडियन एक्सप्रेस के मालिक और ताउम्र नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी रहे रामनाथ गोयनका ने कभी न भूलने वाली बात कही कि अब वह चैन से मर सकते हैं क्योंकि देश राजीव के सुरक्षित हाथों में है.
(फोटो: कामरान अख्तर/ द क्विंट)
इंदर मल्होत्राः वह युवा हैं. इस वजह से वह वे जरूरी बदलाव लाएंगे, जिनकी जरूरत है. संजय गांधी के उलट वह तमीजदार हैं. उनकी छवि साफ-सुथरी है. वह लोकप्रिय हैं. वह टेक्नोलॉजी के मुरीद और देश को 21वीं सदी में ले जाने को बेताब हैं. जनता, खासतौर पर युवा उनकी इस सोच की तारीफ कर रही है.
(फोटो: कामरान अख्तर/ द क्विंट)
राजीव ने जब गलतियां की, तो लुटियंस दिल्ली ने उन्हें भी आगाह किया. खैर, दोस्त से राजनीतिक दुश्मन बने वी पी सिंह के हाथों 1989 में राजीव की हार हुई. अब यूपी के ठाकुर लुटियंस दिल्ली के चहेते बन गए थेः
मेरे मन में जिस काल्पनिक हीरो की छवि है, वी पी सिंह उसके सबसे करीब थे. वह ईमानदार हैं. उन्हें भ्रष्ट नहीं बनाया जा सकता. सिंह का शपथग्रहण दिल्ली के ज्यादातर पत्रकारों के लिए जश्न जैसा था. लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों को लेकर उनकी सरकार एक तूफान में फंस गई है.
विद्या सुब्रमण्यम
मैंने चंद्रशेखर के सावधान करने के बावजूद वी पी सिंह का समर्थन किया था. चंद्रशेखर ने चो रामास्वामी से कहा था, ‘आप अपने दोस्त (मुझसे) से कहिए कि वह सिंह का समर्थन कर रहे हैं, जो बहुत खतरनाक इंसान हैं. उनका कोई ईमान नहीं है.’ तब द इंडियन एक्सप्रेस पर कई केस दर्ज थे, इसलिए मैंने चो से कहा कि जब अपने घर में आग लगी हो, तब गंगाजल का इंतजार नहीं किया जा सकता. चो ने मुझसे कहा था, क्या आप श्योर हैं कि यह पानी नहीं पेट्रोल है. आखिर में यह पेट्रोल ही निकला.
अरुण शौरी
वी पी सिंह सत्ता में कुछ ही महीने रहे. हमेशा की तरह लुटियंस दिल्ली का उनसे भी हनीमून बीच में खत्म हो गया. एक बार फिर लुटियंस दिल्ली ने सिर्फ कलम की ताकत से एक प्रधानमंत्री को कुर्सी से हटने पर मजबूर कर दिया.
इसलिए, देश के अगले मिस्टर/मिस प्रधानमंत्री...
लुटियंस दिल्ली की सुनिए. उनके कॉलम और संपादकीय खुद पढ़िए. अपने सहयोगियों और बीच के लोगों को उनका एक हिस्सा या अंश भेजने से मना करिए. उनकी तल्ख आलोचनाओं से बेचैन होना छोड़ दीजिए. उनसे सीखिए, समझिए और उन्हें दुश्मन मत मानिए.
मेरा यकीन करिए, आपके ऑफिस में बने रहने के यही सबसे बड़े गारंटर हैं.
पोस्ट स्क्रिप्ट: मैंने यहां चुनिंदा लेखो का ही जिक्र किया है. लेकिन यकीम मानिए ये लुटियंस दिल्ली के सोच को बताता है.
इस आर्टिकल को English में पढ़ने के लिए नीचे क्लिक करें