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मोदीजी, लुटियंस दिल्ली आपको PM बना सकती है, तो हटा भी सकती है

राघव बहल के मुताबिक: ‘लुटियंस दिल्ली’ ने ही मोदी को पीएमओ तक पहुंचाया और शायद वो ही उन्हें सत्ता से बाहर कर दें

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नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने हुए करीब 56 महीने हो गए हैं. इस बीच आपने कितनी बार उन्हें यह कहते सुना है कि हां, मुझसे यह गलती हो गई या मैंने फलां काम किया तो उसमें कुछ कमी रह गई? ईमानदारी से कहूं तो इसकी गिनती आपके दायें हाथ की आधी या उससे भी कम अंगुलियों पर खत्म हो जाएगी. अगर उन्होंने कोई गलती मानी भी है तो खुद को निगेटिव कॉम्प्लीमेंट देते हुए. नए साल के पहले दिन उनके 95 मिनट के गढ़े हुए इंटरव्यू (इसमें सवाल-जवाब कम और एकतरफा भाषण अधिक था) के आखिरी सवाल से आपको इसका अंदाजा हो जाएगा.

अपने साढ़े चार साल के प्रधानमंत्री कार्यकाल में आपको किसी काम को लेकर कोई अफसोस है?

प्रधानमंत्री मोदीः जो एक लुटियंस दुनिया मानते हैं, उसे न मैं अपने में ला सका हूं और न अपना बना सका हूं. मैं अपने में तो लाना चाहता नहीं था क्योंकि मेरा बैकग्राउंड अलग है. मैं एक ‘नॉन एलीट’ वाली दुनिया का प्रतिनिधी हूं तो उनको (लुटिंयस दिल्ली) मैं जीत नहीं पाया हूं. कोशिश तो कर रहा हूं कि ऐसे जो तत्व हैं उनको कैसे जीत पाऊं.

कौन या क्या है ‘लुटियंस दिल्ली?’

आखिर ये एलीट ‘लुटियंस दिल्ली’ (एलडी) कौन सी चिड़िया है, जिसे मोदी नहीं जीत पाए? लुटियंस क्लब के मिथक के बारे में एक दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग दो धारणाएं हैं:

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  • पहले में, एलडी का मतलब आर्म्स डीलरों, कमर्शियल लॉबिंग करने वालों, हनीट्रैप फिक्सरों, बिजनेसमैन, पत्रकारों, नौकरशाहों और नेताओं (इनमें से एक ही शख्स इनमें से तीन या उससे भी ज्यादा भूमिका में हो, तो चौंकिएगा मत) की मिलीभगत है. साल 2,000 में तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में इसे बड़े ही करीब से दिखाया गया था. यह आसानी से पैसा बनाने वालों, स्कॉच पीने वालों, गॉसिप करने वालों की फूहड़ दुनिया है. मोदी दावा करते हैं कि उन्होंने इसे खत्म कर दिया है इसलिए वो शायद जिस एलडी की बात कर रहे हैं, वह यह नहीं होगी. आखिर मोदी ऐसी ‘ताकतों को जीतने की कोशिश क्यों करेंगे?’

  • इसकी एक और परिभाषा है, जिसकी तरफ मोदी इशारा कर रहे हैं. एलडी यानी लुटियंस दिल्ली का मतलब यहां ‘असहनीय’ चिंतक और अंग्रेजी बोलने वाले ऐसे लोग हैं, जो सामाजिक-सांस्कृतिक उदारवाद, धार्मिक-लैंगिंक समानता, छोटे सरकारी तंत्र, कारोबार की आजादी और कुछ असरदार कल्याणकारी योजनाओं (बीजेपी की संकीर्ण सोच में ये जेएनयू टाइप या झोलावाले हैं) में यकीन और उनकी वकालत करते हैं. मोदी मुस्कुराते हुए और बिना किसी पछतावे के भाव के साथ इंटरव्यू में ‘अफसोस’ जताते हैं कि ‘न वो इसे अपने में ला सके हैं, न अपना बने सके हैं.’


और ये रहा मेरा दांव: एलडी के प्रति यह अदावत मोदी की सबसे गंभीर राजनीतिक गलती है. अगर इसे छोड़ दें तो वो देश के सक्षम प्रधानमंत्री (या पद पर आने के बाद जिनकी सोच बदल गई) रहे हैं और उन्होंने इस पद पर एक चतुराई भरी पारी खेली है.

मैं तो यह कहूंगा कि लुटियंस दिल्ली (या एलडी) ने मोदी को पीएमओ तक पहुंचाने में किसी अन्य समूह या सपोर्ट ग्रुप से बड़ी भूमिका निभाई. यह भी सच है कि गुजरात दंगों के बाद (2002-09) इस ग्रुप ने मोदी का विरोध किया था, लेकिन 2013-14 में इसी एलडी ने मोदी की खुलकर वकालत की और उनका समर्थन किया.

इसे साबित करने के लिए मैं कुछ ‘लुटियंस आइकॉन’(मोदी के शब्दों में) की उन बातों का यहां जिक्र कर रहा हूं, जो प्रकाशित हुई थीं.

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मई 2014 के पहले

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  • पालखीवाला लेक्चर में अरुण शौरी (18 अक्टूबर 2013): जब ताकत हो तो बेड़ियां टूट जाती हैं और आप जो भी करते हैं, वह आगे की तरफ बढ़ा कदम होता है. एक शब्द में कहूं तो हमें नरेंद्र मोदी की जरूरत है.
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  • शेखर गुप्ता ( 16 नवंबर 2013): वोटरों को पता है कि कांग्रेस पार्टी एक सूत्री कैंपेन मोदी को गब्बर की तरह पेश करना है, लेकिन यह काम नहीं कर रहा है.
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  • स्वामी अय्यर (13 अप्रैल 2013): दूसरे नेताओं के उलट मोदी ने अपनी जेब नहीं भरी है. 2011-12 में गुजरात के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले मुसलमानों में गरीबी दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे कम थी. राज्य में गरीब मुसलमानों की संख्या (11.4 पर्सेंट), हिंदुओं की तुलना में (17.6 पर्सेंट) कम है.
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  • तवलीन सिंह (9 मार्च 2014): हालिया सर्वे से पता चला है कि राहुल गांधी की तुलना में मोदी की लोकप्रियता दोगुनी है. उसकी वजह यह है कि देश को लग रहा है कि लंबे समय तक उसे कोई लीडर नहीं मिला है.

मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद

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  • प्रताप भानु मेहता (17 मई 2014): नरेंद्र मोदी ने आजाद भारत के इतिहास की सबसे शानदार में से एक राजनीतिक जीत हासिल की है. मोदी ऐसी राजनीतिक परिघटना हैं, जिसे देश ने पहले कभी नहीं देखा था. लोकतांत्रिक राजनीति में ऐसी कहानियां बहुत कम हैं. बिहार जाकर जातीय राजनीति से ऊपर उठने, ऐसी बात कहने का हौसला, जिसके जिक्र की हिम्मत देश में धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले किसी शख्स ने नहीं दिखाई. यह कहना कि गरीबी का कोई मजहब नहीं होता, देश के विकास को बढ़ाने का ख्वाब, रोजगार की बात करना और कुछ कर दिखाने की बेचैनी उनमें है.
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  • शेखर गुप्ता (17 मई 2014): नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ध्रुवीकरण की कोशिश नहीं की या किसी समुदाय को उन्होंने निशाना नहीं बनाया. आर्थिक सुधार के वादे पर उन्होंने यह जीत हासिल की है, जो देश में पहली बार हुआ है.

  • तवलीन सिंह (18 मई 2014): यह चुनाव सही अर्थों में कुछ नया करने, बदलाव और उम्मीद का था. वो इसलिए क्योंकि मोदी वोटरों को यह समझाने में सफल रहे हैं कि उनकी असल लड़ाई गरीबी से है, न कि एक दूसरे से.

  • टी एन नायनन (26 सितंबर 2014): मोदी में गजब का आत्मविश्वास है. उनके पिटारे में कभी एक्रोनिम खत्म नहीं होते. वो प्रधानमंत्री पद और लोकप्रियता को एंजॉय कर रहे हैं और क्यों न करें? अमेरिका में जब वो अपने 747 (प्रधानमंत्री का विशेष विमान) की सीढ़ियां चढ़ रहे थे तो वो भागते हुए ऊपर पहुंचे (ओबामा की तरह). यह कमाल की बात है क्योंकि 64 साल के मोदी का वजन कम नहीं है.


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  • अरुण शौरी (19 मई 2014): सब चर्चा करते हैं, एक नतीजे पर पहुंचते हैं और फैसला हो जाता है. फाइल वापस भेजी जाती है और 15 दिन के अंदर सभी उस पर रिपोर्ट देते हैं. यह मोदी के काम करने का अंदाज है. यहां काम तेजी से होते हैं. फैसले कम समय में लिए जाते हैं और मोदी फॉलो-अप भी नहीं भूलते.
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लेकिन उसके बाद हवा का रुख बदलने लगा...

मोदी के बढ़ा-चढ़ाकर किए गए वादे कोरे वादे साबित होने लगे. उनसे राजनीतिक और प्रशासनिक गलतियां होने लगीं तो लुटियंस दिल्ली का नजरिया भी बदला. उसकी वजह यह है कि ये बुद्धिमान और निष्पक्ष लोग हैं. वे दरबारी नहीं हैं. बेवजह किसी का समर्थन नहीं करते या उन्हें किसी से बैर भी नहीं है. अंग्रेजी भाषी यह वर्ग भले ही छोटा हो, लेकिन वह बड़ी बारीकी से हर चीज की पड़ताल करता है. वह देश में बहस-मुबाहिसे की अगुवाई करता है, जिससे एक पॉलिटिकल नैरेटिव तैयार होता है.

मुझे जिंदगी में दूसरी बार सबक सिखाया गया है. मोदी का समर्थन करना मेरी जिंदगी की दूसरी सबसे बड़ी भूल थी. कई बार आप मौजूदा सरकार से इतने त्रस्त हो जाते हैं कि किसी का भी समर्थन कर देते हैं. राजीव गांधी के समय भी यही हुआ था, जब हमने वी पी सिंह का समर्थन किया था. अब मोदी के समर्थन की गलती हुई है.
अरुण शौरी

आखिर में...

जब लुटियंस दिल्ली (यानी एलडी) ने सरकार जिन मुद्दों की अनदेखी कर रही थी, उनकी या प्रधानमंत्री ने जो गलतियां की थीं, उन्हें लेकर उनकी आलोचना शुरू की तो मोदी की अपराजेय छवि टूट गई. वो चुनाव हारने लगे. आपमें से कुछ लोग कहेंगे कि चुनाव हारने के बाद लुटियंस दिल्ली ने मोदी की आलोचना शुरू की और मेरा सिर फिर गया है. आप गलत हैं.

मैं साबित कर सकता हूं कि लुटियंस दिल्ली की राय बदलने के बाद मोदी की चुनावी हार शुरू हुई. मैं यह भी साबित कर सकता हूं कि लुटियंस दिल्ली के मिजाज से आप देश के चुनावी नतीजों का अंदाजा लगा सकते हैं. जिस घोड़े पर ये लोग सवार होते हैं, वो अक्सर रेस जीतता है.

दशकों से यही होता आ रहा है. इसलिए, प्रधानमंत्री अगर चुनावी जीत के लुटियंस इंडेक्स की अनदेखी करेंगे तो उसमें उनका ही नुकसान है. मैं ये बातें इस कॉलम की अगली कड़ी में साबित करूंगा. आप नजर बनाए रखिएगा!

इस आर्टिकल को इंग्लिश में पढ़ने और वीडियो देखने के लिए क्लिक करें.

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