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चीन विस्तारवादी और भारत शांतिप्रिय क्यों है? इतिहास में है जवाब

दोनों देशों ने जो उपनिवेशीय यातनाएं झेलीं उनसे चीन और भारत को समझा जा सकता है

राघव बहल
नजरिया
Updated:
चीन विस्तारवादी क्यों है इसका जवाब इतिहास में मिलता है
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चीन विस्तारवादी क्यों है इसका जवाब इतिहास में मिलता है
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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चीन विस्तारवादी क्यों है? और भारत अपेक्षाकृत शांतिप्रिय क्यों है? इसका जवाब कुछ हद तक दोनों देशों ने जो उपनिवेशीय यातनाएं झेलीं, जो कि असाधारण रूप से एकदम अलग-अलग थीं, उनमें मिलता है. लेख के पहले हिस्से में हम उपनिवेशीय इतिहास की शुरुआत से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक की बात करेंगे. दूसरे हिस्से में भारत और चीन की आजादी से पहले यानी उपनिवेशीय शासन के आखिरी 100 सालों की बात करेंगे.

31 दिसंबर 1600: उपनिवेशीय दमन का शून्य दिवस

31 दिसंबर 1600 को लंदन के कारोबारियों के एक समूह ने साथ मिलकर एक कंपनी तैयार की, नाम अजीबोगरीब था: गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ लंदन ट्रेडिंग इनटू द ईस्ट इंडीज. एक शाही घोषणापत्र से कंपनी को एशिया के इस हिस्से में कारोबार करने के सारे विशेषाधिकार मिल गए थे. इन सज्जनों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनकी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (जो कि शॉर्टहैंड के लिए लोकप्रिय नाम था) का असर 300 साल बाद भी दुनिया भर में महसूस किया जाएगा. यह कंपनी एक सामान्य गर्भ था जिससे दो सौतेले बच्चों ने जन्म लिया, ब्रिटिश भारत और उपनिवेशीय चीन, और दोनों बिलकुल अलग तरह के एशियाई दिग्गज बन गए.

भारत और चीन में ईस्ट इंडिया कंपनी की 'समस्याएं'

चीन और भारत के साथ कारोबार शुरू करते ही कंपनी को एक दुविधा का सामना करना पड़ा. एशिया में ब्रिटिश कपड़ों और दूसरे यूरोपीय सामानों के खरीदार बहुत कम थे, लेकिन यूरोप में पूर्व की चाय, रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तनों के खरीदार बड़ी तादाद में थे. कंपनी को जल्द ही ये समझ आ गया कि पुर्तगाली प्रतिद्वंद्वियों को बाहर निकालने और भारतीय निवासियों से कारोबार की शर्तों को नियंत्रित करने के लिए उसे राजनीतिक शक्ति की जरूरत होगी.

चीन में इसे दूसरी परेशानी का सामना करना पड़ा; चीनी कारोबारी तब तक सामान बेचने के लिए तैयार नहीं थे जब तक उन्हें कीमत चांदी में ना चुकाई जाए. सोने और चांदी की इस कमी को पूरा करने के लिए ब्रिटिश कारोबारियों को शैतानी गति से दौड़-भाग करनी पड़ती थी. फिर उन्होंने विस्तार से एक कुटिल साजिश रची और कलकत्ता से निलामी में अफीम खरीदकर, उसमें तंबाकू मिलाकर समंदर के रास्ते चीन में तस्करी शुरू कर दी. फिर इस अवैध कमाई का उपयोग चीन के विशिष्ट सामनों की कीमत चुकाने में किया.

चीन के ‘राष्ट्रीय अपमान’ की शुरुआत

चीन में अफीम के आयात पर पाबंदी थी, इसलिए सम्राट डोगुआंग ने इस पर रानी विक्टोरिया से पूरी विनम्रता से भरा एक पत्र लिखा. दुर्भाग्य से, चिट्ठी को बीच में ही गायब कर दिया गया और वो रानी तक नहीं पहुंची; अगर ये चिट्ठी रानी को मिल जाती है और उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गैर-कानूनी इरादों पर चाबुक चला दिया होता तो आज इतिहास कुछ अलग हो सकता था.

एक दशक तक अफीम के खिलाफ अपनी मुहिम में नाकाम होने के बाद, 1839 में चीनी शासक ने धैर्य खो दिया. उन्होंने अफीम की 20,000 पेटियों को जब्त कर उसे नष्ट कर दिया और पूरे विदेशी समुदाय को हिरासत में ले लिया. इस घटना के बाद किंग वंश और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच नशीले पदार्थों पर विश्व की पहली जंग – जिसे प्रथम अफीम युद्ध (1839-42) कहा जाता है – छिड़ गई.

चीन को पराजित कर उनका दमन किया गया और उन्हें असमान संधियों की श्रृंखला में पहली संधि पर दस्तखत करने पर मजबूर किया गया, ये संधियां आज भी लोगों को झकझोर कर रख देती हैं.

1842 की नानजिंग संधि में कंपनी को क्षतिपूर्ति के तौर पर 21 मिलियन डॉलर और कई सहूलियतें

1842 की नानजिंग संधि

इस असमान संधि में कैंटन, अमॉय, फूचो, निंग्पो और शंघाई के बंदरगाहों को अफीम आयात के लिए खोल दिया गया. सीमा-शुक्ल को 5 फीसदी तक कम कर दिया गया और ब्रिटिश नागरिकों पर चीन में कानूनी कार्रवाई नहीं किए की छूट दी गई; पहले क्रूर हिंसा और जानवरों जैसे दुर्व्यवहार के लिए ब्रिटिश नाविकों को चीन के कानून के तहत सख्त जुर्माना देना होता था, लेकिन अब चीनी कानून इन विदेशी नागरिकों पर लागू नहीं होते थे, उन पर कर नहीं लगाया जा सकता था, ना ही उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था और ना ही चीनी अधिकारी उन पर कोई कार्रवाई कर सकते थे.

फ्रांस, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका भी इसमें कूद पड़े और दीन-हीन हालत में आ चुके चीन पर और वार किए गए. 1858 में इन देशों ने मिलकर टियांजिन में चीन को ब्रिटिश कंपनी जैसी असमान संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया, बंदरगाहों के इस्तेमाल के अधिकार छीने, देश के अंदरूनी इलाकों में पहुंच बनाई और कम सीमा शुल्क तय कर लिया. आज भी, चीन इसके बाद की सदी को ‘राष्ट्रीय अपमान’ से भरा बताता है.

हिमालय की दूसरी तरफ, भारत में हिंसा के बल पर ‘चेरी’ तोड़े गए

हैरानी की बात ये है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में उपनिवेशीय शासन की बिलकुल अलग कहानी लिखी. शायद दोनों देशों के हालात भी एक जैसे नहीं थे. चीन में पूरे देश पर एक वंश का राज था, इसलिए उपनिवेशीय ताकतों में तश्तरी में मौजूद इकलौते फल पर कब्जा करने की होड़ लगी थी. भारत की तस्वीर उससे उलट थी: ग्रेट ब्रिटेन अकेला एक उपनिवेशीय ताकत था, लेकिन भारत सैकड़ों साजिशों से भरे, कमजोर ‘साम्राज्यों’ से बना था.

यह एक हरा-भरा लेकिन बिना रक्षक वाला पके ‘चेरी’ का बाग था, जिसे बेहद आसानी से तोड़कर मजबूत राजनीतिक टोकरी में रखा जा सकता था.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में भारत के पश्चिमी तट पर सूरत में अपना पहला कारोबारी केन्द्र स्थापित किया था. हालांकि मुख्य तौर पर वो जिन ब्रिटिश कपड़ों को बेचना चाहते थे, उसका कोई खरीदार भारत में नहीं था, इसके विपरीत ग्रेट ब्रिटेन में भारत के सामन बेचे जाने का कारोबार बहुत फायेदमंद साबित हुआ.

इत्तेफाक से, 1707 में बादशाह औरंगजेब की मौत के बाद भारत में शक्तिशाली मुगलों का पतन शुरू हो गया था

एक अज्ञात कलाकार की बनाई गई पेंटिंग (फोटो: Wikipediaa)
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रॉबर्ट क्लाइव 'लूट' काल

अगली शताब्दी में, छोटी-छोटी राजशाही से बनाया गया मुगलों का ये कमजोर महासंघ टूटकर झगड़ालू स्थानीय ‘रजवाड़ों’ में बदल गया. कंपनी ने इस मौके का फायदा उठाकर अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाई और भारतीय निवासियों से कारोबार की शर्तों पर अपनी पकड़ मजबूत की. इसे पहली जीत भारत के पूर्वी तट पर बंगाल में हासिल हुई. फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों के बहकावे में आकर, बंगाल के नवाब, सिराज-उद-दौला, ने मूर्खतापूर्ण तरीके से कलकत्ता के फोर्ट विलियम में ब्रिटिश बस्ती पर हमला कर दिया. उसकी भिड़ंत रॉबर्ट क्लाइव की धूर्त राजनीतिक प्रबंधन से हुई.

कंपनी के तेजतर्रार अधिकारी क्लाइव ने 1757 के प्लासी के युद्ध के दौरान मीर जाफर को लालच देकर सिराज को अपनी तरफ मिला लिया (जिसके बाद ‘मीर जाफर’ कई भारतीय भाषाओं में ‘पीठ में खंजर भोंकने वाले’ का पर्याय बन गया). रॉबर्ट क्लाइव ने सिराज को हराया और मीर जाफर को बंगाल में अपना कठपुतली शासक बना दिया.

UK में ‘क्लाइव ऑफ इंडिया’ का स्टैचू(फोटो: Change.org)

क्लाइव ने खुद को बंगाल का गवर्नर घोषित कर पहला ‘चेरी’ तोड़ लिया. विडंबना यह थी कि प्लासी में क्लाइव के 2,900 सैनिकों में दो-तिहाई से ज्यादा भारतीय मूल के थे, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के 'सिपाही' कहे जाते थे. क्लाइव ने लंदन में अपने निदेशकों को लिखा:

‘मैं पूरे यकीन के साथ यह दावा कर सकता हूं कि इस समृद्ध और खुशहाल साम्राज्य को सिर्फ दो हजार यूरोपीय सेना की मदद से पूरी तरह वश में किया जा सकता है. (ये भारतीय) आलसी, विलासी, अज्ञानी हैं. (वो) ताकत के बजाय सब कुछ विश्वासघात से हासिल करने की कोशिश करते हैं.’

जीत से उत्साहित कंपनी ने कमजोर मुगल बादशाह से इलाहाबाद की संधि कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर प्रशासनिक नियंत्रण हासिल कर लिया. इसने 2

करोड़ से ज्यादा लोगों पर कर लगाकर हर साल 20 लाख स्टर्लिंग कमाने का अधिकार हासिल कर लिया. कंपनी ने अब तक खून चख लिया था; इसने अंदाजा लगा लिया था कि विदेशी वस्तुओं के कारोबार की तुलना में ‘सरकार का व्यापार’ कहीं ज्यादा फायदेमंद है. रॉबर्ट क्लाइव ने ‘बेरहमी से बंगाल को लूटना’ शुरू कर दिया, जिसके भयानक परिणाम 1770 के अकाल में दिखे.

1770 का महा-बंगाल अकाल

इस अकाल में बंगाल और बिहार के करीब 1 करोड़ लोग मर गए. इसे प्रोफेसर अमर्त्य सेन 'मानव निर्मित अकाल' कहते हैं. किसानों ने सिर्फ सूखे और चावल पैदा न होने का दंश नहीं झेला बल्कि युद्ध और ईस्ट इंडिया कंपनी की टैक्स नीतियों को भी भुगता

भारत के संभ्रात वर्ग पर सॉफ्ट पावर से कब्जा

रॉबर्ट क्लाइव की जगह उदारवादी वारेन हेस्टिंग्स को लाया गया, जिन्हें भारतीय संस्कृति पसंद थी और धाराप्रवाह फारसी और हिंदी बोलते थे. उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर’ की संस्था की स्थापना की, एक ऐसा अधिकारी जो न्यायिक और कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग करता था (यह नौकरी आज भी बची है, और युवा, शिक्षित भारतीयों में इसकी मांग है).

यह एक अनुकूल समय था जिस दौरान एक मिश्रित समाज का उदय हुआ, खास कर बंगाल में. जैसे कि, जेम्स स्किनर एक स्कॉट्समैन और एक राजपूत राजकुमारी की संतान थे. उनकी कम से कम सात पत्नियां और लगभग अस्सी बच्चे थे, उन्होंने फर्स्ट स्किनर हॉर्स और थर्ड स्किनर हार्स नाम के दो घुड़सवार रेजिमेंट तैयार किए और सेंट जेम्स चर्च की स्थापना भी की. एक हजार मील दूर दक्षिण भारत में, कर्नल किर्कपैट्रिक ने एक राजा के दरबारी की बेटी खैर-उन-निसा से शादी की – वो अपनी दाढ़ी रंगते थे और एक रईस मुस्लिम की तरह पेश आते थे.

जैसे-जैसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने और ‘चेरी’ तोड़ने शुरू किए, कई दूसरे इलाकों और छोटी रियासतों पर कब्जा करना शुरू किया, अंग्रेजी सत्ता की भाषा बन गई. 1774 में फारसी के बदले अंग्रेजी सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक भाषा बना दी गई. इसके बावजूद, अंग्रेजी सत्तासीन ब्रिटिश संभ्रांतों और कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास के कुछ अंग्रेजी स्कूलों तक ही सीमित थी. एक अलग कानूनी प्रणाली बनाई गई, जिस पर मुहर भारतीय शासक (1800) ने लगाई: यूरोपीय लोग जहां भी बसे या कारखाने तैयार किए, वो बस्तियां ‘काल्पनिक भूगोल' बन गईं, जहां ब्रिटिश राज और ईस्ट इंडिया कंपनी के बनाए गए कानून चलते थे.

... बाकी अगले हिस्से में

(सोर्स - 2010 में पेंग्विन एलेन लेन से छपी राघव बहल की किताब -Superpower? The Amazing Race Between China’s Hare and India’s Tortoise)

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Published: 09 Jul 2020,10:50 PM IST

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