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VISHNU या वैक्सीन इनवेस्टमेंट एंड स्ट्रेटेजिकली हाइटन्ड निर्माण अंडरटेकिंग का आह्वान ही भारत के नियंत्रण से बाहर होते कोविड 19 टीकाकरण अभियान को अपना आशीर्वाद देकर बचा सकता है.
मैं हैरान था जब भारत में वैक्सीन की कमी की आशंका जताने वाले लोगों के खिलाफ केंद्रीय सरकार के कई मंत्रियों ने अपने चिर परिचित आक्रामकता के साथ पटलवार किया. हैरान, उनकी गुस्से भरी भाषा (उम्मीद के मुताबिक ही) के लिए नहीं लेकिन उनके आत्मघाती गलती पर.
मैंने अविश्वास में अपनी आंखों को मला कि इस आंकड़े को बताकर भरोसा जताया जा रहा है, ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कमी नहीं है जबकि-
हम सिर्फ एक सुनिश्चित, साफ तौर पर दिखाई दे रहे 4.3 करोड़ वैक्सीन की ही पुष्टि कर सके जब देश को सुरक्षित होने के लिए दोगुनी तेजी से 150 करोड़ डोज की जरूरत है.
किसी को मैथ का अपना होमवर्क करना चाहिए था क्योंकि 4.3 करोड़ डोज का मतलब है 15 दिन से भी कम का वैक्सीन क्योंकि हम हर दिन करीब 30 लाख वैक्सीन लगा रहे हैं. इसकी तुलना में हम 74 दिनों का पेट्रोलियम रिजर्व, 18 महीनों की खाद्य आपूर्ति रखते हैं और हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 13 महीनों तक का आयात खरीद सकता है.
अब निश्चित तौर पर फिलहाल वैक्सीन खाद्य सामग्री/पेट्रोल/आयात के जितना ही महत्वपूर्ण है. ठीक ना? क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि अगर खाद्य सामग्री/पेट्रोल/आयात के भंडार 15 दिन से कम के रह जाएं तो इसे लेकर रायसीना हिल्स पर कितना हंगामा हुआ होता? तब “पीछे हटो तुम कयामत के दूतों, हमारे पास पंद्रह दिनों की वैक्सीन सप्लाई मौजूद है, समझे” को लेकर अति आत्मविश्वास, बल्कि आत्मसंतोष तक की गलत धारणा क्यों है?
और, इन सबसे ऊपर हमारे सप्लाई के बुनियादी ढांचे का खतरनाक रूप से कमजोर होना. हमारे वैक्सीन का 90 फीसदी हिस्सा पुणे में तैयार हो रहा है जो वायरस से बुरी तरह प्रभावित है. तो अपने मैथ होमवर्क के अलावा, क्या सरकार में किसी ने, खास कर “पंद्रह दिन की सप्लाई” पर घमंड करने वालों ने, आपदा की स्थिति और बैक अप प्लानिंग को लेकर सोचा है? भगवान न करे लेकिन क्या होगा अगर कोई अनहोनी हो जाए और इस उत्पादन केंद्र में काम रुक जाए (डराने के लिए नहीं लेकिन कई हफ्तों पहले एक इमारत में आग लग गई थी)? हमारी सप्लाई लाइन का 90 फीसदी हिस्सा खत्म हो जाएगा, चूंकि हमने दूसरे किसी को न तो इसे बनाने का लाइसेंस दिया है और न ही अनुमति (जब में ये लिख रहा हूं, हमने स्पुतनिक V को आपातकाल में इस्तेमाल के अनुमति दी है, अच्छा है, लेकिन ये काफी कम है और ये भी साफ नहीं है कि कितने डोज निर्यात किए जाएंगे और कितने का इस्तेमाल अपने देश में होगा).
हालांकि, ये गलत है, लेकिन में एक तरह से खुश हूं कि सरकारी अकर्मण्यता की हद पार हो गई. जून 1991 याद है? जब हमारा विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर के भी काफी नीचे आ गया था, मुश्किल से सिर्फ तीन हफ्ते की आयात की खरीद के लिए ही पैसे बचे थे? भारत अपने घुटने टेक चुका था, डिफाल्टर होने, पेट्रोल का स्टॉक खत्म होने, देश के अंधेरे में डूब जाने, अहम उत्पादक संयंत्रों के खत्म होने जैसे हालात नजर आ रहे थे. यथास्थिति बनाए रखने वाले हमारे नीति निर्माता ऐक्शन में आ गए थे. और जो फैसले हुए वो थमी हुई अर्थव्यवस्था में एक मुक्त बाजार की क्रांति थी. वैक्सीन संकट भी इसी स्तर का है और उम्मीद है कि असफल नीतियों में ये बड़ा बदलाव लाएगा.
शायद, प्रधान मंत्री मोदी VISHNU यानी वैक्सीन इनवेस्टमेंट एंड स्ट्रेटेजिकली हाइटंड निर्माण अंडरटेकिंग पर विचार करना चाहें. इस योजना में दम है नाम के मुताबिक है. आखिर कार, किस हिंदू श्रद्धालु ने भगवान विष्णु और बार-बार उनके आठवें अवतार भगवान राम, जो भारत में बहुत की बड़े स्तर पर पूजे जाते हैं, का आह्वान नहीं किया है? इसलिए इस कोशिश को शुरुआत से ही, सफलता की गारंटी का आशीर्वाद मिलेगा. इसके अलावा इसमें तीन (भगवान विष्णु की शुभ संख्या) घटक, वैक्सीन का उत्पादन, कीमत और वितरण शामिल है.
भारत को विश्व में मंजूर की गई सभी वैक्सीन के देश में उत्पादन के लिए कोशिश करनी चाहिए. (ठीक है, राष्ट्रवाद के नाम पर रियायत लेते हुए चीनी वैक्सीन को इससे बाहर रखते हैं). फाइजर, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन (J&J), के साथ दूसरे मंजूर वैक्सीन कोविशील्ड, कोवैक्सीन और स्पुतनिक V हमारे दवा की दुकानों में मौजूद होनी चाहिए.
जब भी संभव हो-निश्चित तौर पर कोवैक्सीन के लिए जो हमारे देश का है और जॉनसन एंड जॉनसन जिसका एक डोज टीकाकरण की प्रक्रिया को आधा कम कर सकता है- भारत सरकार को घरेलू उत्पादकों के लिए IPRs (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) खरीदना चाहिए. लाइसेंस को ‘जनहित’ में बदलना चाहिए यानी कोई भी अधिकृत स्थानीय निर्माता ‘1 रुपये’ में उत्पादन का अधिकार ‘खरीद’ सकता है और स्थानीय बाजार को वैक्सीन की शीशियों से भर देगा.
अंत में, वैक्सीन उत्पादन को सरकार के 9 लाख करोड़ के महत्वाकांक्षी PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव) योजना में मुख्य जगह दी जानी चाहिए. आखिरकार अगर हम टेलीविजन, टेलीफोन और सोलर प्लांट बनाने वालों को बहुत सारा कैश दे सकते हैं तो उसमें से वैक्सीन निर्माताओं को एक लाख करोड़ क्यों नहीं. याद रखिए, सीरम इंस्टीट्यूट अपने उत्पादन को दोगुना करने यानी एक महीने में 12 करोड़ डोज करने के लिए केवल इस फंड का 3 फीसदी या 3,000 करोड़ की ही मांग कर रहा है.
अगर भारत सरकार खाना, पानी जैसी जीवन की मूलभूत जरूरत की चीजों के लिए अलग-अलग कीमतों को अनुमति दे सकती है तो हम आज जान बचाने वाली तीसरी महत्वपूर्ण चीज कोविड 19 वैक्सीन के लिए ऐसा करने से क्यों बच रहे हैं? जिस तरह गरीब लोग उचित मूल्य की दुकान से दो रुपये किलो चावल खरीदते हैं और अमीर लोग खान मार्केट से 2000 रुपये प्रति किलो कैवियार (स्टर्जियन नामक मछली के अनिषेचित अंडों से बना खाना) खरीदते हैं, उसी तरह हम सरकारी टीकाकरण सेंटरों पर मुफ्त में वैक्सीन क्यों नहीं दे सकते और निजी सेंटरों पर अमीरों को भारी कीमत पर उनकी पसंद का वैक्सीन लेने की अनुमति क्यों नहीं दे सकते हैं?
जिस तरह हम चावल पर सब्सिडी के लिए कैवियार पर टैक्स लगाते हैं, उसी तरह हमें निजी अस्पतालों में दी जाने वाली जॉनसन एंड जॉनसन जैसी स्वतंत्र रूप से आयातित वैक्सीन की डोज पर सुपर टैक्स लगाना चाहिए.
सरकारी अस्पतालों (उचित मूल्य की दुकानों या मुफ्त पानी की सप्लाई) के लिए, सरकार को मोल-भाव कर कम से कम कीमत पर वैक्सीन की खरीद करनी चाहिए लेकिन उसी वैक्सीन को खुदरा और ऑनलाइन केमिस्ट सहित निजी अस्पतालों और डिस्ट्रीब्यूटर्स के जरिए उचित प्रॉफिट मार्जिन पर बेचने की अनुमति देनी चाहिए.
ये सबके लिए जीत की स्थिति होगी. सरकार गरीबों का मुफ्त में टीकाकरण करेगी. वैक्सीन निर्माताओं को अपने निवेश पर अच्छा लाभ होगा. और पैसे देने वाला ग्राहक अपनी पसंद की जगह पर अपने पसंद की वैक्सीन लगवा सकेंगे.
मुझ पर भरोसा कीजिए , भगवान VISHNU, सबसे ज्यादा खुश होंगे.
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