advertisement
महाराष्ट्र में 80 घंटे लंबा राजनीतिक संकट खत्म होते ही मेरे पास दो विकल्प थे. मैं पन्ने-दर-पन्ने राजनीतिक विश्लेषकों की ज्ञान भरी विवेचनाओं में गोते लगाता, या फिर मैं गणेश (मैंने गोपनीयता के ख्याल से उसे एक काल्पनिक नाम दिया है, लेकिन वो असल में है) को कॉल करता. मैंने गणेश को कॉल करने का फैसला लिया– लेकिन इससे पहले कि आपको बताऊं कि उसने मुझसे क्या कहा, यहां जल्दी से उसकी पृष्ठभूमि बता देता हूं.
मुंबई के मेरे पसंदीदा होटल में हमेशा मुस्कुराते रहने वाला गणेश हाउसकीपर का काम करता है. मैं हर साल वहां करीब 50 दिन गुजारता हूं, और संयोग से, इनमें से 40 दिन शाम को मेरा कमरा ठीक करने की जिम्मेदारी गणेश पर ही होती है. (मुझे लगता है इसकी वजह मुझसे मिलने वाली मोटी बख्शीश हो सकती है, क्योंकि गणेश इतना होशियार तो है कि अपने हिसाब से रोस्टर लगवा ले– लेकिन हां, हर किसी को अपनी आमदनी ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ाने का हक तो है ही, है कि नहीं?)
गणेश करीब 30-35 साल का नाटा, हट्टा-कट्टा, आकर्षक युवक है, बिलकुल मराठी मानुष जैसा. हैरानी की बात नहीं है कि वह मोदी का बड़ा प्रशंसक भी है. हालांकि वह नोटबंदी की वजह से हुई मुश्किलों को कोसता है, पांच-सितारों होटलों के खर्च बढ़ाने और नौकरियां बर्बाद करने के लिए GST की जमकर आलोचना करता है, अनाज/प्याज के आसमान छूते दाम के लिए सरकार को खरी-खोटी सुनाता है, लेकिन जब भी उससे पूछता हूं ‘तुम तो मोदीजी के फैन हो?’ वह बिजली की रफ्तार से जवाब देता है: ‘अरे साहब, मोदीजी तो दबंग हैं. देखो पाकिस्तान को हिलाकर रख दिया है’
मैं आखिरी बार गणेश से तब मिला जब बीजेपी-शिवसेना के रिश्ते पूरी तरह बिगड़ चुके थे, और उद्धव ठाकरे ने शरद पवार के साथ अब तक के सबसे अविश्वसनीय सियासी गठबंधन के लिए साठगांठ शुरू कर दी थी. मैंने गणेश से उसकी राय जाननी चाही.
गणेश: ‘साहब, ये मोदीजी कुछ ठीक नहीं कर रहे हैं. दूसरों को भी चांस देना चाहिए. अगर उद्धव जी 50-50 (फॉर्मूले से) मुख्यमंत्री बन जाते हैं तो क्या बुराई है? मोदीजी को तो बस सब कुछ अपने कंट्रोल में रखना है’.
उसकी बेचैनी पर अपनी खुशी को बिना छिपाए मैंने पलट कर जवाब दिया, ‘अरे भाई, मगर तुम तो मोदीजी के फैन हो?’
गणेश: ‘यह बात भी सही है. मोदीजी हैं तो दबंग, लेकिन...’
यह करीब एक पखवाड़ा पहले की बात थी. मैंने अब संपर्क कर गणेश की आखिरी राय जाननी चाही: ‘साहब, यह तो ठीक ही हो गया. लेकिन सबको इसके बाद सबक लेना चाहिए’
इसी बात ने मुझे सोचने पर मजबूर किया. क्यों ना हम इस असामान्य राजनीतिक घटना में निहित सबक को समझने की कोशिश करें. कम-से-कम अगली बार गणेश जब शाम को मेरा कमरा ठीक करने आए तो मेरे पास उसे बताने के लिए कोई बुद्धिमानी भरी बात तो हो. यह लीजिए.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के लिए: दुर्भाग्य से उन्होंने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों से बड़ा समझौता किया है. उन्हें 25/26 जून, 1975 की रात की गई पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की उस भूल को याद करना चाहिए, जब श्रीमती इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी की घोषणा पर उन्होंने बिना कैबिनेट की मंजूरी के हस्ताक्षर कर दिए थे. तब एक जवान राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से रामनाथ कोविंद ने, मुझे यकीन है, जरूर अपने पार्टी नेताओं के साथ मिलकर उस संवैधानिक त्रासदी की भर्त्सना की होगी.
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के लिए: दुख की बात है कि उनका रवैया पूरी तरह पक्षपातपूर्ण था. वह हर तरह से अपने पुराने राजनीतिक आकाओं के इशारों पर काम करते नजर आए. उन्हें याद करना चाहिए कैसे तब पूर्व राज्यपाल बूटा सिंह की जमकर आलोचना हुई, जब उन्होंने 2005 में मनमाने तरीके से बिहार विधानसभा को भंग कर दिया था, वह भी सिर्फ इसलिए कि केंद्र में यूपीए सरकार के ताकतवर मंत्री लालू प्रसाद यादव ऐसा चाहते थे.
एक बार फिर, मुझे यकीन है तब कोश्यारी ने भी उस निंदनीय काम के खिलाफ आवाज उठाई होगी. शायद अब उन्हें नैतिकता के आधार अपना पद छोड़ देना चाहिए, ताकि उनकी कुर्सी की गरिमा बनी रहे.
बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के लिए: इस घटना के बाद मोदी सरकार को हर हाल में प्रजातांत्रिक संस्थानों और परंपराओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए. राजनीति, ‘संभावनाओं का खेल’, का ऐसा भी हश्र नहीं होना चाहिए कि सिर्फ अंजाम ही मायने रखने लगें चाहे उनको हासिल करने के माध्यम पर सवाल क्यों ना खड़े हों. सच तो यह है कि शालीनता से हार मान लेना आपकी ताकत होती है; इससे आपका राजनीतिक कद घटता नहीं बढ़ता है.
वैसे ट्वीट करना सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. आमतौर पर चौकस रहने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने तब भारी राजनीतिक भूल कर दी जब, सुबह-सुबह के तख्तापलट के मिनट भर के अंदर, उन्होंने ट्वीट कर देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार को बधाई दे दी. इस तत्परता ने दरअसल लोगों की नजर में उन्हें इस पूरे ऑपरेशन का रचयिता बना दिया. सच कहूं तो मैं बड़ा हैरान था कि एक परिपक्व और धैर्यवान प्रधानमंत्री सत्ता पर काबिज होने की ऐसी अपरिपक्व और अनिश्चित योजना पर अपनी मुहर लगाने को बेताब थे.
कांग्रेस और सोनिया गांधी के लिए: ज्यादातर लड़ाइयां पहले आप दिमागी तौर पर हारते हैं, लेकिन देखिए कैसे कांग्रेस, जो कि अभियान से पहले ही हाथ खड़े कर चुकी थी, आज महाराष्ट्र की सरकार में शामिल है. इसके अलावा, उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के चार दूसरे शक्तिशाली राज्यों में उसकी सरकार है. इसका श्रेय पार्टी से कुछ हद तक विरक्त हुए अनुभवी नेताओं के ‘कभी हार नहीं मानने वाले हौसले’ को जाता है.
एक दूसरे से मिलो, बात करो, भरोसा करो और ऐसे तरीके निकालो कि आज की बुनियाद पर एक मजबूत इमारत खड़ी हो. इसके अलावा अपनी पार्टी के दिग्गजों की भी ताकत बढ़ाओ. यह जो रफ्तार बनी है वो टूटनी नहीं चाहिए.
शरद पवार के लिए: यह पार्टी के पितामह के लिए अद्भुत शरद ऋतु है. वो विपक्ष की राजनीति के भीष्म पितामह (मतलब महाभारत के सबसे बुद्धिमान राजनीतिज्ञ जैसे) बनकर उभरे हैं.
उन्होंने जोर दिया कि उद्धव ठाकरे पांच साल तक सरकार का नेतृत्व करें. ऐसा कर पवार ने यह साबित किया कि एक सफल नेता के लिए अहंकार कोई मायने नहीं रखता. उन्होंने कांग्रेस को सरकार में शामिल होने के लिए राजी कर गठबंधन को मजबूती दी. अपनी भटकी राजनीतिक संतान अजित पवार को वापस बुलाकर यह दिखाया कि सुलह की ताकत और संयम के बूते कैसे हार के मुहाने से युद्ध में जीत हासिल की जाती है. वह दृढ़ थे, नाराज नहीं थे.
उनके सामने चुनौतियां पूरी तरह साफ हैं – उन्हें विपक्षी पार्टियों की एकजुटता का आधार बनकर मोदी के नेतृत्व वाली ताकतवर बीजेपी का सामना करना चाहिए, ताकि साल 2024 में नतीजे चाहे जो भी हों, भारत में ज्यादा संतुलित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रजातंत्र स्थापित हो. अब मैं मुंबई में अपने गणेश से मिलने के लिए तैयार हूं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 28 Nov 2019,10:38 AM IST