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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्दों के पहले अक्षरों से नए शब्द गढ़ने के शौकीन हैं जिन्हें एक्रोनिम्ज कहा जाता है. उनके ऐसे शब्द वायरल हो जाते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि वह ऊर्जा से भरे हुए और अविश्वसनीय तरीके से उनका प्रचार करते हैं. इस समय आत्मनिर्भर भारत की चारों ओर चर्चा है जिसे कोई संरक्षणवाद बता रहा है, तो कोई स्वावलंबन का प्रतीक.
संरक्षणवाद की दुहाई देने वाले आलोचक पचास से सत्तर के दशक की याद दिलाते हैं- जब भारत एक गरीब देश था. यहां व्यापार करना आसान नहीं था, चूंकि भारत अपनी अक्षम अर्थव्यवस्था के कारण खुद पर भरोसा नहीं करता था.
सच्चाई क्या है? हम पचास के दशक की तरफ लौट रहे हैं या 2050 की ओर मजबूती से बढ़ रहे हैं
मेरे दोस्त, इसका जवाब देना बहुत आसान है. इसमें कोई शक नहीं कि आत्मनिर्भर भारत में नेहरू के दौर की आर्थिक सोच की गूंज सुनाई देती है:
लेकिन, मैं यहां कुछ बेजा बात कर रहा हूं. बेशक, दोनों मॉडल्स की सतह में संरक्षणवाद के बीज दबे हुए हैं, इसे लेकर नेहरू/इंदिरा की दलील रक्षात्मक थी. पचास के दशक में हमारा देश छोटा और कमजोर था. इसके विपरीत, मोदी/सीतारमण की मुद्रा आक्रामक है. आज हम मजबूत अर्थव्यवस्था हैं. इसलिए संरक्षणवाद का नतीजा एकदम अलग होने वाला है. जैसे स्टेरॉइड्ज किसी मरते हुए मरीज (पचास के दशक की अर्थव्यवस्था) को भले न बचा पाएं लेकिन एक ताकतवर पहलवान को ओलंपिक में मेडल दिलवा सकते हैं, जो कि हम आज हैं( जीडीपी 2.5 ट्रिलियन डॉलर और विदेशी मुद्रा भंडार 0.5 ट्रिलियन डॉलर).
शायद नहीं, क्योंकि एक संरक्षित अर्थव्यवस्था, लालफीता शाही और भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी, नौकरशाहों के संशय और विवेक के साथ कभी पनप नहीं सकती. उसे निशाना बनाना सबसे आसान है.
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आत्मनिर्भर भारत देश को महाशक्ति बनाए, जो कि उसकी नियति है.
एक बात सबसे जरूरी है- आत्मनिर्भर भारत को TRUST के साथ हाथ मिलाना होगा. ये TRUST क्या है- आइए, इस एक्रोनिम को समझें
भारत के नौकरशाह हमेशा रेगुलेटेड मार्केट पर संदेह करते रहे हैं. इसीलिए वे नतीजों को माइक्रो मैनेज करते रहे हैं. जानिए कि कैसे:
एक संस्था है, मुनाफाखोरी रोधी प्राधिकरण. इसका काम यह है कि नए जीएसटी रेजीम से होने वाले ‘सुपर प्रॉफिट्स’ को कॉरपोरेट्स से उलीचा जा सके. क्या आपको विश्वास होगा? क्या सरकारी अधिकारी एक फ्री मार्केट में व्यापार करने वाली कंपनियों के ‘सुपर प्रॉफिट्स’ को कैलकुलेट कर सकती हैं? इसलिए नतीजा क्या होता है-अजीबो गरीब किस्म के जुर्माने, लीगल फीस, वसूलियां और भ्रष्टाचार. दूसरी तरफ अगर आप सचमुच प्रतिस्पर्धी बाजार तैयार करना चाहते हैं तो ‘सुपर प्रॉफिट्स’ अपने आप गायब हो जाएंगे, पर यह हमारे नीति निर्धारक कब समझेंगे?
अब यह देखिए कि उन्होंने हमारी ई-कॉमर्स नीति में क्या गड़बड़झाला किया है. इसे ‘मार्केट प्लेस मॉडल’ कहा जाता है. इनके अंतर्गत अमेजन और वॉलमार्ट जैसी विदेशी कंपनियां उपभोक्ताओं को सीधे सामान नहीं बेच सकतीं. उन्हें ‘थर्ड पार्टी’ को ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म देना होता है जिसमें उनका इक्विटी स्टेक अधिकतम 26 परसेंट है. इसका मकसद विदेशी ‘शैतानी’ मंसूबों को काबू में करना है. इसके बावजूद कि ये कंपनियां बड़ी छूट और फ्रीबीज देती हैं.
यह मेरा पसंदीदा है- हम एनर्जी की फ्री प्राइसिंग करते हैं जिसमें तेल भी शामिल है लेकिन एंटरटेनमेंट टैरिफ पर नियंत्रण लगाते हैं. हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि फार्मा प्राइज फ्री हों, नियंत्रित, सीमित या कुछ और. कुछ जरूरी दवाओं पर ग्लोबल प्रोड्यूसर्स नियंत्रण रखते हैं.
हम पाबंदी, फिर से पाबंदी, एक बार फिर से पाबंदी लगाने के शौकीन हैं. नब्बे के दशक में अनलिस्टेड भारतीय कंपनियां दूसरे देशों में शेयर्स फ्लोट नहीं कर सकती थीं. 2000 की शुरुआत में उन्हें इसकी मंजूरी दी गई. फिर 2000 के मध्य में उन पर पाबंदी लगा दी गई. अब उन्हें फिर इसकी मंजूरी मिल जाएगी. इसी तरह विदेशी निवेशकों के लिए पुट/कॉल ऑप्शंस हैं. फिर डिविडेंड डिस्ट्रिब्यूशन टैक्स भी हैं. और लिस्टेड इक्विटी शेयरों पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स का मामला भी है.
ऐसे लाखों उदाहरण और हैं जो बताते हैं कि हमारे नीति निर्धारक कितने उलझे हुए या यूं कहें कि हास्यास्पद हैं.
हमने एक के बाद एक महत्वपूर्ण एसेट को दिवालिया होने दिया, जबकि हमें उन सभी को बचाना चाहिए था. यह आईएलएफसी के साथ शुरू हुआ लेकिन फिर डीएचएफएल, दूसरी रियल एस्टेट कंपनियों, जेट एयरवेज, पीएमसी तक पहुंच गया- आगे इस क्रम में कौन होगा, पता नहीं. मैं यह कब से लिखता और चेतावनी देता आ रहा हूं. तो, गलती करने वालों को सजा दें- एसेट को बचाइए.
व्यापार जगत का ‘क्रिमिनलाइजेशन’ इन दिनों बेहिसाब हो गया है. छोटी गलतियों पर लोगों को धरा जा रहा है. इसे रोका जाना चाहिए. सचमुच.
एजीआर (एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू) के जुर्माने पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश देखिए. पहले सरकार एक अस्पष्ट सा नियम बनाती है जिसके तहत टेलीकॉम कंपनी के शेयरेबल ऑपरेटिंग रेवेन्यू के कैलकुलेशन में नॉन ऑपरेटिंग इनकम जैसे किराए और विदेशी मुद्रा लाभ को जोड़ा जा सकता है. जब सुप्रीम कोर्ट इस नियम को बरकरार रखता है, 1.50 लाख करोड़ रुपए की वसूली की बात करता है और संकट ग्रस्त टेलीकॉम कंपनियों पर आर्थिक जोखिम मंडराता है तो सरकार अपनी गलतियों को दुरुस्त करने की बजाय चुप्पी साध लेती है.
आप ऋण पर चक्रवृद्धि ब्याज की वैधता पर भी सवाल कर सकते हैं, जो कि कोविड के कारण मोरेटोरियम के अंतर्गत आ गए थे.
इस पर काफी लिखा गया है- क्या कोई वोडाफोन और केयर्न के बारे में कुछ कह रहा है? ईमानदारी से कहूं तो मुझे सरकारी उत्पीड़न का कोई सबूत देने की जरूरत नहीं है.
अंत में, मोदी/सीतारमन को TRUST की नींव पर आत्मनिर्भर भारत की इमारत खड़ी करनी चाहिए. तभी भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन सकता है. वरना, सब माया है.
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