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बूंद-बूंद 'उधार की दवाई', ऐसे तो दूर न होगी इकनॉमी की रुसवाई

एक और लोन गारंटी पैकेज: इसे प्रोत्साहन नहीं राहत पैकेज कहना चाहिए

राघव बहल
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>Raghavs Take</p></div>
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Raghavs Take

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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कोरोना वायरस संकट के अब तक के 15 महीनों में मोदी सरकार ने निरंतरता दिखाते हुए चौथा स्टिम्युलस पैकेज जारी कर दिया है. ईमानदारी से कहें तो इसे राहत पैकेज कहा जाना चाहिए. ऐसा इसलिए क्यों कि हर बार की तरह इस बार भी पैकेज का फोकस कर्जदारों को डूबने से बचाने पर है. बजाए इसके कि इकनॉमी को बूस्ट देने के लिए डिमांड बढ़ाने, खर्च करने पर.

मुझे गलत ना लें. मैं पूरी तरह से कारोबारियों के हित में लिए गए इस फैसले का स्वागत करता हूं, वो कारोबारी जिनकी कमाई गिर गई है. मैं बस इसके लिए एक ज्यादा वैज्ञानिक शब्दावली चाहता हूं. इसे बूस्टर डोज की जगह राहत पैकेज कहना चाहिए.

हेडलाइन में बताया गया कि सरकार ने 6.29 लाख करोड़ का स्टिम्युलस (प्रोत्साहन) पैकेज दिया है. इसमें से आधी रकम का इस्तेमाल बैंकों को गारंटी देने के लिए किया गया है, जिससे कि वो संघर्ष कर रहे कारोबार और छोटे कारोबारियों को रिस्की लोन दे सकें, या उनकी री-स्ट्रक्चरिंग कर सकें. बाकी की रकम लॉन्ग टर्म को ध्यान में रखते हुए खर्च की गई है, जिनका शॉर्ट टर्म में शायद ही कोई असर दिखे. जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए PLI स्कीम की अवधि बढ़ाना, गांव में ब्रॉडबैंड पहुंचाने की योजना या फिर बिजली आपूर्ति से जुड़े सुधार. ये एक सकारात्मक सुधार है लेकिन ये स्टिम्युलस या कुछ मामलों में तो राहत भी कहे जाने चाहिए. इनमें से कुछ जैसे खाद्यान्न वितरण या फिर शहरी रोजगार गारंटी योजना से लोगों को तत्काल राहत जरूर पहुंचेगी, लेकिन इससे सुस्त पड़ चुकी मांग पर ज्यादा असर नहीं होगा.

तो साफ है कि सरकार का ज्यादातर खर्च नॉन कैश पुश पर है. सरकारी खजाने से पैसा तभी जाएगा जब कुछ महीनों और सालों में कर्ज लेने वाले औंधे मुंह गिर जाएंगे. लेकिन खून पसीने से तैयार किए गए कारोबार के लिए लोग संघर्ष करेंगे, सरेंडर नहीं. तो ज्यादा उम्मीद यही है कि सरकार को लोन गारंटी का छोटा सा हिस्सा ही चुकाना पड़े.

इसलिए ये योजना सरकार और कारोबारियों दोनों के लिए फायदे का सौदा है. जैसे कि ज्यादातर बिजनेस को बचा लिया जाए और बैंकों को इनका कर्ज राइट ऑफ नहीं करना होगा और हो सकता है कि सरकार पर आखिर में सिर्फ 50,000 करोड़ रुपये का बोझ आए, न कि योजना के पूरे 3 लाख करोड़ रुपये का..और वो भी कई सालों के अंतराल में.

तो जरूर ये चतुर नीति है. लेकिन विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने हजार बार कहा है कि ये काफी नहीं है. ये सीधे कैश के रूप में मदद नहीं है. इसके बूते कम डिमांड-कम निवेश वाले गर्त से इकनॉमी नहीं निकल पाएगी.

आदर्श रूप से ये तीन हिस्सों में किया जाना चाहिए था, जैसे कि 2 लाख करोड़ इंफ्रा निवेश पर खर्च किए जाते, 2 लाख करोड़ टैक्स छूट पर और 2 लाख करोड़ डायरेक्ट इनकम ट्रांसफर में डाले जाते. इससे इकनॉमी तेजी से पटरी पर लौट सकती थी.

लेकिन फिर भी मोदी सरकार इस तरह के डायरेक्ट स्टिम्युलस पर यकीन नहीं करती है. अंत में यही कह सकते हैं कि ये उनका राजनीतिक फैसला है. ये एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार है जिसकी अर्थव्यवस्था-राजनीति पर अपनी नीतियां हैं, जो कि साफ रूप से गलत हैं. और अगर वो कर्ज की बूंदों से भारत की जीडीपी को सींचना चाहते हैं यही सही. उन्होंने फैसला किया है, नतीजे भी वही भुगतेंगे.

लोकतंत्र में ऐसा ही तो होता है.

AAP पहले पंजाब को समझिए

मनमौजी राजनीतिक आर्थिक विकल्पों के साथ रहते हुए एक बार फिर AAP 'सभी के लिए 200 यूनिट मुफ्त बिजली' का वादा लेकर आई है, इस बार पंजाब में. निश्चित तौर पर ये पार्टी का अपना सियासी फैसला है और नतीजे जो भी आएं, उन्हें वो भी स्वीकार करना होगा. लेकिन ये मुद्दा गैस फैक्ट्री में माचिस की तीली जलाने जैसा है.

किसानों को मुफ्त बिजली का नतीजा ये हुआ है कि पंजाब में भूजल स्तर गिरा है और इसका असर इकोलॉजी पर पड़ा है.धान की खेती की तरफ झुका हुआ न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और मुफ्त बिजली ने पंजाब मिश्रित फसल की परंपरा को खराब किया है.

दिल्ली में स्थिति इसके विपरीत है. जहां मजबूत बजट और ज्यादा प्रति व्यक्ति आय है. यहां का प्रति व्यक्ति आय पंजाब से करीब तीन गुना है.

वहीं पंजाब कर्ज से कराह रहा है जो अगले पांच सालों में दोगुना हो सकता है. ऐसे में अगर दिल्ली अपनी आर्थिक स्थिति को नुकसान पहुंचाए बगैर मुफ्त बिजली दे सकती है. ऐसा ही पंजाब के लिए सोचना दुस्साहस और करीब-करीब घातक हो सकता है.
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लेकिन राजनेता कब इस तरह के छोटे-छोटे विवरण पर ध्यान देते हैं, खासकर तब जब वो ये मानते हैं कि एक बार अपनाए गए 'मुफ्त' वाले वादे से दोबारा जीत हासिल की जा सकती है?

सत्ता बदली, दस्तूर नहीं

असहमति का एक और विषय-खुद को नुकसान पहुंचाने वाली एक और राजनीतिक-आर्थिक नीति. मोदी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे प्रतिष्ठित कंपनियों के बोर्डों को "उसी क्षेत्र की जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ स्वतंत्र निदेशकों" के बदले खुले तौर पर राजनीतिक व्यक्तियों से भर दिया है. मंत्र आसान है - अगर आप चुनाव हार गए हैं, तो चिंता मत कीजिए, खुश रहिए, क्योंकि एक महारत्न या नवरत्न पीएसयू खुशी-खुशी आपको बोर्ड में शामिल कर लेगा, सभी सामान, कार, मुफ्त हवाई यात्रा, गेस्टहाउस, टेंडर/ कॉन्ट्रैक्ट पर प्रभाव, और बैठकों और समितियों के लिए आकर्षक "बैठक शुल्क". क्या आपने आईओसी, एयर इंडिया, पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन, सेल, एयरपोर्ट अथॉरिटी, नुमालीगढ़ रिफाइनरी, गार्डन रीच शिपबिल्डर्स आदि के शेयरधारकों को शिकायत करते सुना है? और तो और, अगर मनमोहन सिंह सरकार कांग्रेस के लोगों को बोर्ड में शामिल कर सकती है, तो मोदी सरकार उस बिना काम की सरकार से कैसे पीछे रह सकती है?

आह! भारत में जितनी चीजें बदलती हैं, उतनी ही वो वैसी ही रहती हैं,

वैक्सीन में भी 'रंगभेद'!

मेरे जैसे लोग जिनके भाग्य में कोविन ऐप के जरिए कोविशील्ड वैक्सीन आई, वो सभी उस वक्त चौंक गए जब हमारे पासपोर्ट यूरोप से उड़ान भरने में सफल नहीं हुए. आखिर क्यों? क्योंकि सीरम इंस्टीट्यूट जो एस्ट्राजेनेका और ऑक्सफोर्ड के लाइसेंस के तहत कोविशील्ड बनाती है, उसे अब तक यूरोपियन मेडिसिन एजेंसी से इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी नहीं मिल पाई है. सच कहूं तो ये असाधारण तौर पर रहस्यमयी और समझ से परे है. अगर इस वैक्सीन का लाइसेंस देने वाली पेरेंट कंपनी की वैक्सीन को मंजूरी दे दी गई है, तो आखिर क्यों उसी के तहत सभी नियमों के साथ लाइसेंस प्राप्त करने वाली कंपनी को खुद ही अप्रूवल क्यों नहीं मिला? क्योंकि ये कोई अलग वैक्सीन तो है नहीं, ये बिल्कुल वही फॉर्मूला है.

जिसे तमाम नियमों के बाद वैक्सीन के प्रोडक्शन की आधिकारिक मंजूरी मिली है. तो क्या सिर्फ एक अलग ब्रांड (वैसे भी नाम में क्या रखा है) होने के चलते इस पर इतनी सख्त शर्तें लगानी चाहिए? सबसे बेहतर ये है कि पेरेंट फॉर्मूले के आधार पर खुद ही उसके तहत बनने वाली वैक्सीन को मंजूरी दी जानी चाहिए. वैक्सीन में ये रंगभेद आखिर क्यों?

सामान्य दिन लौट रहे हैं, अहा!

आखिर में, क्या आपको ग्रैंड प्रिंसेस याद है, वो क्रूज जहाज जिसने मार्च 2020 की शुरुआत में कोविड पॉजिटिव यात्रियों के साथ सैन फ्रांसिस्को खाड़ी में खड़े होने पर लगभग वैश्विक महामारी शुरू कर दी थी? सौ से ज्यादा लोग पॉजिटिव पाए गए थे, सात की मौत हो गई थी, और 3000 को क्वॉरन्टीन किया गया था. कई दूसरे बिजनेस के साथ क्रूज बिजनेस भी बंद हो गया. खैर, अब राहत की सांस लेने का समय हो सकता है. क्योंकि रॉयल कैरेबियन सेलिब्रिटी ऐज, 36% क्षमता और एक अस्थायी अस्पताल के साथ 1000 से ज्यादा यात्रियों के साथ फ्लोरिडा से रवाना हुआ है. दो वयस्क लोग और 24 बच्चों को छोड़कर, क्रू और सभी यात्रियों को वैक्सीन लगाई गई है. सामान्य दिन लौट रहे हैं. अहा!

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Published: 29 Jun 2021,09:55 PM IST

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