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शरद पवार और यशवंत सिन्हा, इन दो राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण नेताओं ने 2024 में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्षी मोर्चा बनाने की कठिन कवायद शुरू कर दी है. क्या यह एक सफल शुरुआत थी? आंकड़ों के लिहाज से यह एक मामूली शो था. आज केवल TMC और NCP ही राजनीतिक दबदबा रखती हैं. पिछले चुनाव में हारने के बावजूद समाजवादी पार्टी में फिर से मजबूत होने के संकेत दिख रहे हैं. AAP और नेशनल कॉन्फ्रेंस से दहाई सीटों की उम्मीद कठिन है. आरजेडी और लेफ्ट को नगण्य ही मानिए.
राजनीतिक तौर पर इसने पवार के ‘जोश जगाने वाले किंगमेकर’ के रूप में सामने आने का संकेत दिये हैं जो कि हरिकिशन सिंह सुरजीत की याद दिलाता है. जो अनजान हैं उनके लिए बता दूं सुरजीत एक चतुर संयोजक थे जिन्होंने 1996 में देवगौड़ा के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनाने के लिए 1 दर्जन से अधिक क्षेत्रीय दलों को साथ लाने का काम किया था. पवार ने महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सबसे अप्रत्याशित गठबंधन को बनाकर बता दिया कि वो क्या कर सकते हैं, लेकिन मोदी से मुकाबले के लिए उन्हें कुशलता और बढ़ानी होगी.
शरद पवार 2024 के लिए एक विश्वसनीय, एकजुट विपक्ष तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए उन्हें तीन बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:
ये भारतीय राजनीति की दिलचस्प हकीकत है कि कैसे राज्यों में क्षेत्रीय दल हावी हैं और उनके सुप्रीम लीडर का प्रभुत्व है. जब सीमा बदलती है तो पार्टी का प्रभुत्व क्षेत्र भी बदलता है. जैसे तेलंगाना में टीडीपी अप्रासंगिक हो गई है, जबकि आंध्र प्रदेश का जब तक बंटवारा नहीं हुआ था तब तक वहां टीडीपी की दमदार मौजूदगी थी. ऐसे ही जब बिहार से झारखंड अलग हुआ, लालू यादव वहां से गायब हो गए. यहां तक कि कांग्रेस में कभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति में उलझ कर रह गए.
पवार को राहुल गांधी को भी इस बात के लिए मनाना होगा कि कांग्रेस सिर्फ 250 सीटों पर लड़े और 300 सीटें क्षेत्रीय पार्टियों के लिए छोड़ दे. साथ ही क्षेत्रीय पार्टियों को मनाना होगा कि वो राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकारें- हो सकता है कि ये कुछ ज्यादा ही अपेक्षा हो इसलिए भले ही ज्यादा उम्मीद ना पालें लेकिन इस विषय पर नजर बनाएं रखें.
अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव, पवार और सिन्हा को ये प्रयोग करने का मौका देते हैं कि संभावित विजेता के पीछे महत्वाकांक्षी राजनीतिक विरोधियों को कैसे एकजुट किया जाए. जहां योगी और बीजेपी की जड़ें मजबूत हैं, वहीं अखिलेश यादव और एसपी कुछ हलचल मचा रहे हैं, जैसा कि पंचायत चुनाव के नतीजे दर्शाते हैं. मायावती के पिक्चर से बाहर निकलने और बीएसपी से प्रतिभाओं के पलायन के कारण, यादव प्रमुख विपक्षी नेता के रूप में उभर रहे हैं. लेकिन कांग्रेस यूपी में हार मानने को तैयार नहीं है, भले ही वो खाई में इतनी गहरी है कि बाहर निकलने का एकमात्र तरीका कई साल छोटे कदम उठाना होगा, न कि ऊंची छलांग.
क्या शरद पवार, गांधी परिवार को “अभी रुको, बाद में जीतो” के लिए मना पाएंगे? अगर वह सफल होते हैं, तो वह 2024 के लिए एक फॉर्मूला तैयार कर लेंगे. अगर वह विफल रहते हैं, तो यह अच्छा अभ्यास होगा!
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