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‘न्याय’ नहीं मिला तो 3.5 लाख करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान होगा

2019 लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी ने चला है बड़ा दांव

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
2019 लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी ने चला है बड़ा दांव
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2019 लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी ने चला है बड़ा दांव
(फोटो: iStock/ Altered by कामरान अख्तर/द क्विंट)

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राहुल गांधी ने घोषणा की है कि अगर कांग्रेस पार्टी चुनाव में जीतकर आती है तो करीब 25 करोड़ लोगों को सालाना 72 हजार रुपए देगी. इस से बीजेपी हक्की-बक्की रह गई है. उसके प्रवक्ता जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं. 'देखो मम्मी उसने मेरी गेंद चुरा ली'.

सच तो ये है कि कांग्रेस ने वही किया है जिसे बीजेपी ने शुरू किया था. पहले ये की किन हर अकाउंट में 15 लाख रुपये डालेंगे और जब वो नहीं हुआ तो हर अकाउंट में हर महीने 500 रुपए डालेंगे. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर ट्रांसफर को इतना जोर देने का यही मतलब था.

पर अब राहुल गांधी ने पासा पलट दिया, ये कह के कि तुम सेर तो मैं सवा सेर. चुनाव के समय इस तरह के दांव पेंच का होना स्वभाविक है, अब ये चुनाव के समय इस तरह के दांव पेंच का होना स्वभाविक है. अब ये देखा होगा कि बीजेपी क्या करती है.

कांग्रेस को क्या चुनावी फायदा होगा?

क्या पॉलिटिकली इसका फायदा कांग्रेस को होगा? मैं मानता हूं कि होगा तो भी बहुत काम क्योंकि अब राजनीतिक दलों पर से जनता का विश्वास उठ गया है. जनता इसे महज जुमला मानेगी और वोट मोदी या गैर-मोदी के बेसिस पर ही देगी.

एक जायज सवाल जो सभी के मन में उठ रहा है कि भाई पैसा कहां से आएगा. राजस्व में तो चलते खर्चों के लिए पैसा नहीं है, तो फिर ये एक्स्ट्रा 3 लाख 50 हजार करोड़ कौन देखा? और इस से ये सवाल भी उठता है कि इस घोषणा को किस नजरिया से देखना चाहिए? क्या पॉलिटिक्स और इकनॉमिक्स के सिवाय कोई और नजरिया भी है क्या?

मेरा मानना है कि वो तीसरा नजरिया सामाजिक है. जिस देश में इतने गरीब हों जिन्हें एक दिन का खाना भी नसीब होना मुश्किल है, क्या बाकी समाज का कोई दायित्व नहीं बनता है कि उनके लिए कुछ तो किया जाए? जब हम ये सवाल पूछते हैं, तब पॉलिटिक्स और इकनॉमिक्स पीछे हट जाते हैं.
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बहुत लोगों के मन में अब ये शंका पैदा हो रही है कि इस खर्चे के लिए पैसा जुटाने के लिए अगली सरकार, जिसकी भी हो, टैक्स बढ़ाएगी. पर ऐसा कुछ नहीं होगा.

जहां तक इनडायरेक्ट टैक्स का सवाल है, वो अब सारे जीसएटी के तहत आते हैं और उनके साथ छेड़खानी करने से कोई कुछ ज्यादा नहीं मिलेगा. रही डायरेक्ट टैक्स की बात यहां भी रेट्स को बढ़ाना नामुमकिन है. हां, नए टैक्स की बात, जैसे गिफ्ट टैक्स और सुपर रिच टैक्स. ये जरूर लाए जा सकते हैं, पर उनका असर सिर्फ सुपर रिच पर पड़ेगा.

एक समय पर एस्टेट ड्यूटी की भी बात उठी थी, लेकिन मुझे नहीं लगता की ये फिर से लागू होगा. 1985 में राजीव गांधी ने इसे हटा दिया था. एस्टेट ड्यूटी का असर सारी मीडिल क्लास पर पड़ेगा, इसलिए इसका आना पॉलिटिकली बहुत मुश्किल है. तो फिर क्या रास्ता है? मैं कुछ महीने से लिख रहा हूं कि सरकार जिसकी भी बने, उसे पैसे की तंगी होगी. इसकी एक बहुत बड़ी वजह ये है कि हम नए IMF की बात मान ली है कि फिस्कल डेफिसिट जीडीपी का केवल 3 फीसदी को. पर इस 3 फीसदी का कोई बेसिस नहीं है. ये एक आर्बिटररी नंबर है, इसे हम नए बार-बार पर किया है और कोई मुसीबत नहीं आई है.

हम आसानी से 5 फीसदी तक जा सकते हैं और किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगेगी. ये 3 फीसदी की चट्टान हमने अपने गले में खुद डाल ली है. दूसरी बात ये है कि जैसे-जैसे इकनॉमकि एक्टिविटी, जिसे नोटबंदी और जीएसटी ने बहुत कम कर दिया था. बढ़ती है, इनडायरेक्ट टैक्स भी बढ़ेंगे. ये MNREGA के साथ भी हुआ था. 14 साल पहले 40 हजार करोड़ॉ एक बहुत बड़ी रकम लगती थी, लेकिन अब नहीं.

सोशल अनरेस्ट का टलेगा खतरा

साफ-साफ सार ये है कि पॉलिटिकली इसका लाभ कुछ ज्यादा नहीं होगा, सोशली ये एक सही कदम है, और इकनॉमिकली इसके लिए राशि जुटाया जा सकता है. अब आगे क्या होता है, चुनाव के नतीजे पर निर्भर है. परंतु एक बात निश्चित है, यूनिवर्सल बेसिक इनकम अब हो कर रहेगी. ये एक अच्छी बात है क्योंकि इसके बगैर सोशल अनरेस्ट बहुत बढ़ सकती है जिसका नुकसान 3 लाख 50 हजार करोड़ से कहीं ज्यादा हो सकता है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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