मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019राहुल गांधी, सीताराम केसरी की 20 साल पुरानी गलती से क्या सीखें

राहुल गांधी, सीताराम केसरी की 20 साल पुरानी गलती से क्या सीखें

आपको मानना पड़ेगा कि राहुल गांधी पार्टी को अच्छा नेतृत्व दे रहे हैं

राघव बहल
नजरिया
Updated:
आपको मानना पड़ेगा कि राहुल गांधी पार्टी को अच्छा नेतृत्व दे रहे हैं.
i
आपको मानना पड़ेगा कि राहुल गांधी पार्टी को अच्छा नेतृत्व दे रहे हैं.
(फोटो: द क्विंट)

advertisement

शुरुआत दो सवालों से (इंस्टाग्राम पर, क्योंकि फेसबुक पुराना पड़ चुका है), जिनसे ट्रोल्स का हरकत में आना तय है.

  1. आप कांग्रेस नेता सीताराम केसरी के बारे में क्या जानते हैं?
  2. दिसंबर 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल गांधी के परफॉर्मेंस के बारे में आपकी राय क्या है?

अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी की अच्छी शुरुआत

पहले सवाल पर आने से पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि कांग्रेस के कटु आलोचक भी मानते हैं कि राहुल ने पार्टी प्रेसिडेंट के तौर पर अच्छी शुरुआत की है. इसलिए मैं ताल ठोककर कह रहा हूं कि राहुल गांधी 2 ने दो महीने पहले पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद एक भी गलती नहीं की है.

राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद एक भी गलती नहीं की(फोटोः PTI)
  1. इसकी शुरुआत गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार से हुई, जिसमें काफी सूझबूझ दिखी थी. राहुल अल्पेश ठाकोर, परेश धनानी, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवा नेताओं को एकजुट करने में सफल रहे, जिसने मोदी-शाह की टीम को करीब-करीब पानी पिला दिया.
  2. राजस्थान उपचुनाव में कांग्रेस ने चौंकाने वाली जीत दर्ज की, जिसका श्रेय सचिन पायलट और अशोक गहलोत को दिया गया.
  3. सिद्धारमैया जैसे क्षत्रप को कर्नाटक में कैंपेन की अगुवाई करने की छूट दी गई है और राहुल खुलकर उनका समर्थन कर रहे हैं.
  4. दिल्ली कांग्रेस में ‘हीलिंग टच’ पॉलिसी दिखी, जहां अजय माकन को इगो छोड़कर शीला दीक्षित, ए के वालिया, हारून यूसुफ जैसे विरोधी खेमे के नेताओं को साथ लेने के लिए मनाया गया और हां, अरविंदर सिंह लवली भी बीजेपी से कांग्रेस में लौट आए हैं.
  5. कांग्रेस की बिग डेटा और एनालिटिक्स डिवीजन की जिम्मेदारी प्रवीण चक्रवर्ती जैसे टेक सैवी और स्मार्ट शख्स के हाथ में दी गई है.
  6. सरकार की आर्थिक नीतियों और कानूनी पहल की काट के लिए चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसे सीनियर नेताओं का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिन्हें पहले या तो साइडलाइन कर दिया गया था या जो नाउम्मीद हो चुके थे.
  7. सीनियर नेताओं का ना सिर्फ पार्टी में सम्मान बना हुआ है बल्कि उन्हें एम्पावर भी किया जा रहा है.

आपको मानना पड़ेगा कि राहुल गांधी पार्टी को अच्छा नेतृत्व दे रहे हैं. उनका ध्यान भटका नहीं है और ना ही वह बेमन से यह काम कर रहे हैं. उनमें एक किस्म की देसी सूझबूझ भी दिख रही है. यह भी सच है कि सिर्फ अच्छी शुरुआत से बात नहीं बनती. राहुल के सामने पार्टी को सत्ता में वापस लाने का बड़ा काम बाकी है.

ऐसा लगता है कि मैंने ट्रोल्स को काफी मसाला दे दिया है.

सीताराम केसरी, कौन थे?

इस सवाल पर इंस्टाग्राम पर मैं यूजर्स के गुस्से का सामना करने को तैयार हूं, क्योंकि मिलेनियल्स को साल 2000 से पहले की घटनाओं के बारे में शायद ही कुछ पता है. ‘आपने टाइपिंग में गलती की है. आप शायद स्मार्ट कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी का जिक्र कर रहे हैं, है ना! क्योंकि हमने तो सीताराम केसरी का नाम कभी सुना ही नहीं है.’ ऐसे ही रिएक्शन तय हैं. इसलिए दूसरी बातें करने से पहले मैं सीताराम केसरी के बायोडेटा की पड़ताल करूंगा ताकि मैं जो कहना चाहता हूं, उसे समझा सकूं.

कांग्रेस की एक रैली में सोनिया गांधी के साथ सीताराम केसरी(फोटो: Reuters)

वह गुजरे हुए दौर के वेटरन नेता थे. केसरी 13 साल की उम्र में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े और 1930-1942 के बीच कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा. वह 6 बार सांसद चुने गए- एक बार लोकसभा और पांच बार राज्यसभा के लिए. 1980 में वह कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बने. मिलेनियल्स चाहें तो उन्हें फोटोग्राफिक मेमोरी वाला ऐसा शख्स समझ सकते हैं, जो पार्टी के पैसों का हिसाब-किताब रखता था. जिसके दिमाग में आम कार्यकर्ता से मिले एक रुपये से लेकर कॉरपोरेट्स से मिले करोड़ों रुपये के डोनेशन का डेटा फीड रहता था.

केसरी इंदिरा, राजीव और नरसिम्हा राव की कैबिनेट में भी शामिल रहे. सितंबर 1996 में वह राजनीतिक जीवन के चरम पर पहुंचे और उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया. यह वह समय था, जब नरसिम्हा राव राजनीतिक बियाबान में खो गए थे. अध्यक्ष बनने के बाद अगले दो साल में केसरी ने ऐसे ब्लंडर्स किए, जिनकी स्टडी राहुल गांधी जितनी भी बार करें, वह कम पड़ेगी. 1996-1998 के दौरान पार्टी प्रेसिडेंट रहे केसरी की इन गलतियों से 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

1995, जब कांग्रेस पार्टी राजनीतिक तौर पर खत्म होने को थी

नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार का 1995 आखिरी साल था, जिसमें उन्होंने पार्टी को मृत्युशैय्या पर पहुंचा दिया था. इस साल कई घोटालों का आरोप लगा, 7 मंत्रियों ने इस्तीफा दिया, अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी पार्टी से अलग हुए और जैन हवाला डायरी मामले में भ्रष्टाचार के आरोप लगे. इससे पहले राव सरकार के कार्यकाल के दौरान 1992 में बाबरी मस्जिद गिराई गई, पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या हुई और 1991 के आर्थिक सुधारों की वजह से कुछ समय तक पूरे देश को तकलीफों का सामना करना पड़ा. इसलिए लोकसभा चुनाव में यूपी और बिहार में कांग्रेस का सफाया हो गया. 1996 के 11वें लोकसभा चुनाव में पार्टी को 140 सीटें मिलीं, जो उस वक्त तक किसी चुनाव में मिलीं सबसे कम सीटें थीं.

लेकिन असल इतिहास कहीं और रचा जा रहा था. बीजेपी को 1996 में 161 सीटों पर जीत मिली. वह संसद में अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस दूसरे नंबर पर खिसक गई थी. अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन 13 दिन बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि बीजेपी और आरएसएस का हिंदुत्व किसी को गवारा नहीं था.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी(फोटो: फेसबुक)

मैं जोर देकर यह बात कहना चाहता हूं क्योंकि मैं फिर से इस पर लौटूंगाः क्योंकि किसी को भारत के लिए आरएसएस-हिंदुत्व का विजन गवारा नहीं था.

केसरी की भूल से राहुल गांधी क्या सीख सकते हैं...

वाजपेयी के इस्तीफा देने के बाद यूनाइटेड फ्रंट सरकार बनी, जिसमें सात क्षेत्रीय दल शामिल थे. उनके पास 192 सीटें थीं और 140 सीटों वाली सीताराम केसरी की कांग्रेस ने इस सरकार को बाहर से समर्थन दिया था. इस तरह से देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री बने, जो उस समय तक क्षेत्रीय नेता थे. यूनाइटेड फ्रंट और कांग्रेस के साथ आने की वजह से देवगौड़ा सरकार को लोकसभा के 542 में से 332 सांसदों का समर्थन हासिल था.

लेकिन केसरी दुखी थे और उनका धीरज चूक रहा था. कहते हैं कि वह प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. उन्हें लगता था कि क्षेत्रीय दलों के ‘नापाक’ गठबंधन की वजह से उनका यह सपना पूरा नहीं हो पाया. इसलिए साल भर के अंदर उन्होंने देवगौड़ा सरकार गिरा दी. दूसरी यूनाइटेड फ्रंट सरकार के मुखिया इंदर कुमार गुजराल चुने गए. इस बार 8 महीनों में ही केसरी ने सरकार गिरा दी. इससे दो साल के अंदर देश में लोकसभा चुनाव हुआ और गुस्साई जनता ने केसरी की कांग्रेस को सजा दी. 1998 के चुनाव में अटल बिहारी वाजयेपी की एनडीए को बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला.

लोग आरएसएस-हिंदुत्व विजन को मानने को मजबूर हुए. 1998 में केसरी ने जो किया, उसकी वजह से 1996 का आरएसएस, बीजेपी, हिंदुत्व का विरोध खत्म हो गया था. इसके बाद केसरी से कांग्रेस का ताज छीन लिया गया और वह गुमनामी के अंधेरों में खो गए.

पार्टी टूटने की कगार पर थी, जिसे सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम रखकर समय रहते बचा लिया. अगर 1996 में केसरी ने सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय दलों का समर्थन नहीं किया होता तो क्या होता? इतिहास में ‘क्या होता’ का जवाब देना आसान नहीं होता, लेकिन इतना तो माना जा सकता है कि बीजेपी क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सरकार बनाती, जो 2-3 साल से अधिक नहीं चल पाती. इस दौरान कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल बना रहता. उसकी पहचान सत्ता में बने रहने और सरकार गिराने वाली पार्टी की नहीं बनती. यह बताना भी मुश्किल है कि उसके बाद के चुनावों में क्या होता, शायद बीजेपी और कांग्रेस दो मुख्य पार्टियां रहतीं और क्षेत्रीय दलों का जनाधार कम हुआ होता.

राहुल की कांग्रेस के लिए इसी में सबक छिपे हुए हैं. 2019 चुनाव के बाद 1996 जैसी राजनीतिक स्थिति बन सकती है. मान लीजिए कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी-एनडीए को 200 के करीब सीटें मिलती हैं. यूपीए और कांग्रेस को 150 सीटें और क्षेत्रीय दलों को 192 सीटें. ऐसे में कांग्रेस शायद क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहे, लेकिन तब उसे इतिहास का वह सबक याद रखना होगा कि सिर्फ दो साल बाद लोगों ने आरएसएस, हिंदुत्व के विजन को स्वीकार कर लिया था.

कांग्रेस को या तो सत्ता में होना चाहिए या विपक्ष में, नो मैन्स लैंड में नहीं

  1. 2019 में अगर बीजेपी-एनडीए को 200 या इससे कुछ अधिक सीटें मिलती हैं, तो इसका मतलब यह होगा कि लोगों का हिंदुत्व की राजनीति से मोहभंग हो रहा है, जो अभी तक चरम पर नहीं पहुंचा है.
  2. अगर कांग्रेस और यूपीए को बीजेपी-एनडीए से अधिक सीटें (जैसा कि 2004 और 2009 में हुआ था) मिलती हैं, तभी उसे सरकार बनाने के बारे में सोचना चाहिए.
  3. किसी भी सूरत में कांग्रेस को बाहर से सरकार का समर्थन नहीं करना चाहिए.
  4. और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए ना कि कांग्रेस को किसी मुखौटे का इस्तेमाल करना चाहिए.

यह याद रखना जरूरी है कि जो लोग इतिहास भूल जाते हैं, वही उसे दोहराने की गलती करते हैं.

ये भी पढ़ें- एक राष्ट्र, एक चुनाव: ‘हां’ या ‘ना’ के सवाल पर राष्ट्रीय बहस जरूरी

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 20 Feb 2018,07:58 AM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT