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लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ क्यों नहीं होने चाहिए, ये रहीं दलीलें

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के पक्ष में मुख्य रूप से चार तर्क दिए जा सकते हैं.

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पूरे देश में हर पांच साल में एक ही बार में लोकसभा और तमाम विधानसभाओं के चुनाव करा लेने का विचार काफी समय से राजनीतिक हलके में है. यह विषय बौद्धिक बहसों में रहा है, लेकिन राजनीतिक दलों के स्तर पर यह कभी चर्चा में नहीं रहा. संसद में कभी इस पर चर्चा नहीं हुई और न ही इस बारे में किसी तरह के संवैधानिक और कानूनी बदलाव की अब तक कोई पहल हुई है.

अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बारे में राष्ट्रीय सहमति बनाने की बात की है. कोई भी दल या संस्था एक राष्ट्र, एक चुनाव के प्रस्ताव को हड़बड़ी में लागू करने की बात नहीं कर रहा है. लेकिन चूंकि यह बात चर्चा में आ चुकी है, इसलिए यह उचित समय है जब इस बारे में पक्ष और विपक्ष के सारे तर्कों को समझने की कोशिश की जाए.

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‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के पक्ष में मुख्य रूप से चार तर्क दिए जा सकते हैं.

  1. हर पांच साल में देश के सारे चुनाव एक साथ करा लेने से चुनाव खर्च की बचत होगी.
  2. बार-बार चुनाव होते रहने से देश लगातार चुनावी ढर्रे में रहता है और सरकारों के लिए विकास के काम करने में बाधा आती है.
  3. बार-बार चुनाव होते रहने से जाति और धर्म के विवाद लगातार गर्म रहते हैं क्योंकि राजनीतिक दल अपने फायदे में चुनावी गोलबंदी करने के लिए इन मुद्दों को उछालते रहते हैं.
  4. बार-बार चुनाव होने से करप्शन बढ़ता है.

इन बिंदुओं को एक-एक करके समझते हैं.

खर्च में कमी का तर्क

यह सही है कि भारत में चुनाव एक बड़ी कवायद है. मिसाल के तौर पर, 2014 के लोकसभा चुनाव के समय देश में कुल 83.41 करोड़ वोटर थे. उस चुनाव में 9.27 लाख पोलिंग बूथ थे. हर बूथ के हिसाब से मतदान कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती से लेकर मतगणना तक को शामिल करें, तो यह सचमुच एक महंगी कवायद है. यह सही है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ हों तो हर बूथ पर अलग मशीनें रखने भर से काम चल जाएगा. लोकसभा चुनाव, 2014 पर लगभग साढ़े तीन हजार करोड़ का खर्च चुनाव आयोग ने किया था. उसमें मामूली रकम और जोड़ देने से विधानसभाओं के चुनाव संपन्न हो सकते थे.

राजकाज में बाधा न आने का तर्क

चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा के बाद सरकार ऐसी कोई नई घोषणा नहीं कर सकती, जिसके बारे में चुनाव आयोग को लगता है कि उससे मतदाताओं के फैसले पर असर पड़ सकता है. चुनाव की घोषणा आम तौर पर, मतदान के नोटिफिकेशन से 21 दिन पहले की जाती है. हालांकि इसमें तमाम दलों और प्रत्याशियों पर कुछ पाबंदियां हैं, लेकिन इसका ज्यादा बोझ सत्ताधारी दल पर है, ताकि उन्हें दूसरे दलों के मुकाबले बढ़त न हासिल हो. इसे ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ कहा गया है.

मॉडल कोड का चल रही योजनाओं और कार्यक्रमों पर कोई असर नहीं होता. इसके अलावा आपदा की स्थिति में या जरूरी हो तो सरकार चुनाव आयोग की सहमति से नई घोषणाएं भी कर सकती है. लेकिन विधानसभाओं के चुनाव अगर समय-समय पर होते रहें, तो खासकर केंद्र सरकार के लिए ऐसे मौके कई बार आते हैं, जब वह नई घोषणाएं नहीं कर सकती. आम तौर पर सत्ताधारी दलों को शिकायत होती है कि बार-बार मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लगते रहने से सरकारी कामकाज में बाधा आती है.

जाति-धर्म के आधार पर कड़वाहट

हालांकि यह तर्क प्रधानमंत्री की तरफ से नहीं आया है, लेकिन यह सच है कि चुनाव के समय जाति और धर्म के मुद्दे अक्सर गर्म हो जाते हैं. भारत ने बेशक आधुनिक लोकतंत्र को अपनाया है, लेकिन भारतीय समाज अभी भी बुनियादी रूप से सामंती है और गोलबंदी के सबसे सहज तरीका आदिम पहचान ही है. जाति और धर्म के आधार पर चूंकि राजनीतिक गोलबंदी होती है, इसलिए राजनीतिक दल और कैंडिडेट इसे जगाने या उग्र बनाने में लग जाते हैं.

जाति और धर्म के मुद्दों के आधार पर वोट मांगने पर कहने को पाबंदी है, लेकिन इसका पालन नहीं होता और इसे रोकने का कोई तरीका भी चुनाव आयोग के पास नहीं है. चुनाव घोषणापत्रों तक में जाति और धर्म के मुद्दे शामिल होते रहे हैं. किसी विधानसभा चुनाव के लिए मुमकिन है कि जाति या धर्म का मुद्दा देश के किसी अन्य हिस्से में उछाल दिया जाए. लगातार औऱ बार बार चुनाव होते रहने का मतलब है कि देश में जाति और धर्म के मुद्दे लगातार गर्म रहेंगे.

चुनावी भ्रष्टाचार

भारत में चुनाव बड़े पैमाने पर पैसे का खेल बन चुका है. चुनाव आयोग की यह सबसे बड़ी चिंता भी है. इसे रोकने में तमाम संस्थाएं विफल रही हैं, जिनमें चुनाव आयोग भी शामिल है. चुनाव के समय सबसे ज्यादा पैसा मीडिया प्रबंधन में लग रहा है. यह बात राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च के 2014 के आंकड़ों से भी साबित हुई है. जनमत को प्रभावित करने के लिए मीडिया में पेड न्यूज छापे और दिखाए जाते हैं. इसके अलावा, मतदाताओं की राय को प्रभावित करने में सक्षम लोगों तक पैसे पहुंचाए जाते हैं.

मतदाताओं को रिश्वत देने का भी चलन आम है. शराब बांटी जाती है और गिफ्ट दिए जाते हैं. इस खर्च को कॉरपोरेट जगत से लिया जाता है और बदले में कॉरपोरेट जगत राजनीतिक दलों से फायदा लेता है. बार-बार और लगातार चुनाव होने से यह भ्रष्टाचार पांच साल में एक बार होने वाली घटना की जगह, लगातार जारी चलन बन जाता है. एक बार में लोकसभा और तमाम विधानसभाओं के चुनाव करा लेने से भ्रष्टाचार सीमित समय तक ही चलेगा.

एक राष्ट्र एक चुनाव के समर्थन में दिए जा रहे इन तर्कों को तथ्यों की कसौटी पर कसें तो पाएंगे कि इनमें सीमित सच्चाई है.

चुनाव में खर्च होता है, लेकिन इतने बड़े लोकतंत्र के हिसाब से यह खर्च बहुत बड़ा नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रति मतदाता चुनाव पर आया खर्च सिर्फ 17 रुपये था. इसलिए यह कहना सही नहीं है कि बार-बार चुनाव होने से देश का बहुत सारा पैसा बर्बाद हो जाता है.
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चुनाव के कारण विकास कार्यों में बाधा आने के तर्क में भी सीमित सच्चाई है. चुनाव के मॉडल कोड के बावजूद तमाम कार्यक्रम और योजनाएं जारी रहती हैं. एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि सरकारों को काम करने के लिए कई साल और कई बार पूरे पौने पांच साल का समय मिलता है, लेकिन लोकलुभावन घोषणाएं वे चुनाव की घोषणा के बाद क्यों करना चाहते हैं. और फिर अगर कोई घोषणा जरूरी है, या कोई प्राकृतिक आपदा आ गई या संकट काल आ गया, तो सरकारें उसके हिसाब से काम करने के लिए आजाद होती हैं. कोड ऑफ कंडक्ट से ऐसे कार्यों में कोई बाधा नहीं आती.

बाद के दो तर्क यानी जाति और धर्म की लगातार सुलगती भट्ठी और भ्रष्टाचार की निरंतरता में काफी दम है. लेकिन ये समस्याएं चुनाव की नहीं देश, राजनीति और समाज की समस्याएं हैं और लोकतंत्र के परिपक्व होने और मतदाताओं में नागरिकता की भावना आने के बाद ही इनका समाधान मुमकिन है. बार-बार चुनाव हों या एक ही बार, उससे इन समस्याओं पर खास फर्क नहीं पड़ता.

अब उन दिक्कतों की बात, जिनकी वजह से एक राष्ट्र, एक चुनाव का सिद्धांत अमान्य होना चाहिए.

1. यह संघीय ढांचे के खिलाफ है: भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत को एक संघीय गणराज्य के तौर पर देखा है. संविधान का पहला अनुच्छेद ही कहता है कि– “इंडिया जो कि भारत है राज्यों का एक संघ है.” भारतीय संविधान में राज्यों और केंद्र के बीच शक्तियों का विभाजन है, लेकिन राज्यों को संघ के अधीन नहीं रखा गया है. विधानसभाएं लोकसभा के अधीन नहीं हैं. दोनों का गठन अलग अलग अनुच्छेदों के तहत होता है. ऐसे में लोकसभा का कार्यकाल खत्म होते ही तमाम विधानसभाएं अपना कार्यकाल कैसे समाप्त कर ले सकती हैं. क्या आज यह संभव है कि 2017 में गठित उत्तर प्रदेश की विधानसभा 2019 में इसलिए भंग कर दी जाए, क्योंकि लोकसभा का कार्यकाल 2019 में खत्म हो रहा है?

2. हर स्तर के चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं: भारत की संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक वोटर एक ही साथ राजनीतिक दल और व्यक्ति दोनों को चुनता है. इसके साथ ही उसे ध्यान रखना होता है कि केंद्र की सरकार से उसे क्या चाहिए और राज्य की सरकार से उसकी अपेक्षाएं क्या हों. कई बार मतदाता इसलिए किसी पार्टी को हराना चाहता है क्योंकि उसने राज्य सरकार के तौर पर शिक्षा या स्वास्थ्य या सड़क के मामले में अपनी भूमिका नहीं निभाई, लेकिन यह मुमकिन है कि उस वोटर की राय में उस पार्टी की रक्षा और विदेश नीति सही है और इसलिए उसे केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए.

एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने के मुद्दे गड्डमड्ड हो सकते हैं. इसके अलावा किसी पार्टी की अगर केंद्र या राज्य के स्तर पर लहर हो, तो उससे दोनों चुनावों पर असर पड़ सकता है. एक ही व्यक्ति का दो अलग मानसिक स्थितियों में होकर दो अलग-अलग मशीनों में वोट डालना एक पेचीदा काम साबित होगा. हालांकि कुछ खास स्थितियों में अभी भी केंद्र और कुछ राज्यों के चुनाव एक साथ होते हैं. लेकिन तमाम विधानसभाओं को एक साथ भंग करके लोकसभा के चुनाव के साथ उनका चुनाव कराना उचित नहीं होगा.

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3. बार-बार चुनाव होना फायदेमंद है: भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में जनता हर मुद्दे पर जनमत संग्रह करके अपनी राय नहीं दे सकती. प्राचीन रोम में यह होता था और स्वीट्जरलैंड में ऐसा अब भी होता है. स्वीट्जरलैंड 56 लाख नागरिकों के साथ जैसी व्यवस्था चलाता है, वह 83.4 करोड़ वोटर के साथ भारत नहीं कर सकता. यहां लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और राजकाज और नीतियां बनाने का जिम्मा उन्हें सौंपते हैं. ये जनप्रतिनिधि बेलगाम न हो जाएं, इसलिए हर पांच साल के अंतराल पर नए चुनाव की व्यवस्था है. चुनाव में हार जाने का डर किसी जनप्रतिनिधि को जवाबदेह और जिम्मेदार बनाता है. यह भय राजनीतिक दलों में भी होना चाहिए कि जनता किसी भी समय और किसी भी स्तर पर उसे और उसकी नीतियों को खारिज कर सकती है. इस दृष्टि से देखा जाए, तो बार-बार चुनाव होना कोई बुरी बात भी नहीं है.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)

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